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सुनो कहानी - "पत्नी का पत्र" - रबीन्द्र नाथ ठाकुर

सुनो कहानी: रबीन्द्र नाथ ठाकुर की कहानी "पत्नी का पत्र" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में पद्म भूषण साहित्यकार कृश्न चन्दर की कहानी " एक गधे की वापसी " का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं रबीन्द्र नाथ ठाकुर की एक कहानी " पत्नी का पत्र ", जिसको स्वर दिया है अर्चना चावजी ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 38 मिनट 39 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट गद्य कोश पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पक्षी समझते हैं कि मछलियों को पानी से ऊपर उठाकर वे उनपर उपकार करते हैं। ~ रबीन्द्र नाथ ठाकुर (1861-1941) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी चोरी की कला में यमराज निपुण हैं, उनकी नजर कीमती चीज पर ही पड़ती है। ( रबीन्द्र नाथ ठाकुर की

सडकें छोटी थीं, दिल बड़े थे, उस शहर के जहाँ इत्तेफ़ाकन मिले थे नितिन, उन्नी और कुहू

Season 3 of new Music, Song # 12 आज बेहद गर्व के साथ हम युग्म के इस मंच पर पेश कर रहे हैं, दो नए फनकारों को, संगीतकार नितिन दुबे संगीत रचेता होने के साथ-साथ एक संवेदनशील गीतकार भी हैं, जिन्होंने अपने जीवन के अनुभवों को शब्दों और सुरों में पिरो कर एक गीत बनाया, जिसे स्वर देने के लिए उतरे आज के दूसरे नए फनकार उन्नीकृष्णन के बी, जिनका साथ दिया है। इस गीत में महिला स्वरों के लिए सब संगीतकारों की पहली पसंद बन चुकी गायिका कुहू गुप्ता। कुहू और उन्नी के स्वरों में ये गीत यक़ीनन आपको संगीत के उस पुराने सुहाने दौर की याद दिला देगा, जब अच्छे शब्द और मधुर संगीत से सजे युगल गीत हर जुबाँ पर चढ़े होते थे. सुनिए और आनंद लीजिए. गीत के बोल - एक शहर था जिसके सीने में सडकें छोटी थीं, दिल बड़े थे उस शहर से, भरी दोपहर में मैं अकेला चला था इस अकेले सफ़र पे मैं अकेला चला था इस अकेले सफ़र पे क्या हसीं इत्तफाक था बन गए हमसफ़र तुम मेरे दिल के, एक कोने में गहरे कोहरे थे, मुद्दतों से फिर मौसम खुला, तुम दिखे थे पास आकर रुके थे साथ मिलकर चले थे तन्हा ये काफिला था लम्बे ये फासले थे क्या हसीं इत्तफाक था बन गए हमसफ़र

और इस दिल में क्या रखा है....कल्याणजी आनंदजी जैसे संगीतकारों के रचे ऐसे गीतों के सिवा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 430/2010/130 क ल्याणजी-आनंदजी के स्वरबद्ध गीतों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' की अंतिम कड़ी पर। आपने पिछली नौ कड़ियों में महसूस किया होगा कि किस तरह से बदलते वक़्त के साथ साथ इस संगीतकार जोड़ी ने अपने आप को बदला, अपनी स्टाइल में बदलाव लाए, जिससे कि हर दौर में उनका संगीत हिट हुआ। आज अंतिम कड़ी में हम सुनेंगे ८० के दशक का एक गीत। युं तो १९८९ में बनी फ़िल्म 'त्रिदेव' को ही कल्याणजी-आनंदजी की अंतिम हिट फ़िल्म मानी जाती है (हालाँकि उसके बाद भी कुछ कमचर्चित फ़िल्मों में उन्होने संगीत दिया), लेकिन आज हम आपको 'त्रिदेव' नहीं बल्कि १९८७ की फ़िल्म 'ईमानदार' का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत गीत सुनवाना चाहते हैं। जी हाँ, बिलकुल सही पहचाना, "और इस दिल में क्या रखा है, तेरा ही दर्द छुपा रखा है"। इस गीत के कम से कम दो वर्ज़न है, एक आशा और सुरेश वाडकर का डुएट है, और दूसरा सुरेश की एकल आवाज़ में। आज आपको सुनवा रहे हैं सुरेश वाडकर की एकल आवाज़। गाना मॊडर्ण है, लेकिन जो पैथोस गीतकार प्रकाश मेहरा ने इस गीत में डाल

किसी राह में, किसी मोड पर....कहीं छूटे न साथ ओल्ड इस गोल्ड के हमारे हमसफरों का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 429/2010/129 क ल्याणजी-आनंदजी के सुर लहरियों से सजी इस लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' में आज छा रहा है शास्त्रीय रंग। इसे एक रोचक तथ्य ही माना जाना चाहिए कि तुलनात्मक रूप से कम लोकप्रिय राग चारूकेशी पर कल्याणजी-आनंदजी ने कई गीत कम्पोज़ किए हैं जो बेहद कामयाब सिद्ध हुए हैं। चारूकेशी के सुरों को आधार बनाकर "छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए" (सरस्वतीचन्द्र), "मोहब्बत के सुहाने दिन, जवानी की हसीन रातें" (मर्यादा), "किसी राह में किसी मोड़ पर (मेरे हमसफ़र), "अकेले हैं चले आओ" (राज़), "एक तू ना मिला" (हिमालय की गोद में), "कभी रात दिन हम दूर थे" (आमने सामने), "बेख़ुदी में सनम उठ गए जो क़दम" (हसीना मान जाएगी), "जानेजाना, जब जब तेरी सूरत देखूँ" (जाँबाज़) जैसे गीतों की याद कल्याणजी-आनंदजी के द्वारा इस राग के विविध प्रयोगों के उदाहरण के रूप में फ़िल्म संगीत में जीवित रहेगी। चारूकेशी का इतना व्यापक व विविध इस्तेमाल शायद ही किसी और संगीतकार ने किया होगा! दूसरे संगीतकारों के जो दो चार गानें

हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर.. यादें गढने और चेहरे पढने में उलझे हैं रूप कुमार और जाँ निसार

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९० "जाँ निसार अख्तर साहिर लुधियानवी के घोस्ट राइटर थे।" निदा फ़ाज़ली साहब का यह कथन सुनकर आश्चर्य होता है.. घोर आश्चर्य। पता करने पर मालूम हुआ कि जाँ निसार अख्तर और निदा फ़ाज़ली दोनों हीं साहिर लुधियानवी के घर रहा करते थे बंबई में। अब अगर यह बात है तब तो निदा फ़ाज़ली की कही बातों में सच्चाई तो होनी हीं चाहिए। कितनी सच्चाई है इसका फ़ैसला तो नहीं किया जा सकता लेकिन "नीरज गोस्वामी" जी के ब्लाग पर "जाँ निसार" साहब के संस्मरण के दौरान इन पंक्तियों को देखकर निदा फ़ाज़ली के आरोपों को एक नया मोड़ मिल जाता है - "जांनिसार साहब ने अपनी ज़िन्दगी के सबसे हसीन साल साहिर लुधियानवी के साथ उसकी दोस्ती में गर्क कर दिए. वो साहिर के साए में ही रहे और साहिर ने उन्हें उभरने का मौका नहीं दिया लेकिन जैसे वो ही साहिर की दोस्ती से आज़ाद हुए उनमें और उनकी शायरी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. उसके बाद उन्होंने जो लिखा उस से उर्दू शायरी के हुस्न में कई गुणा ईजाफा हुआ." पिछली महफ़िल में "साहिर" के ग़मों और दर्दों की दुनिया से गुजरने के बाद उनके बारे

ये मेरा दिल यार का दीवाना...जबरदस्त ऒरकेस्ट्रेशन का उत्कृष्ट नमूना है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 428/2010/128 'दि ल लूटने वाले जादूगर' - कल्याणजी-आनंदजी के धुनों से सजी इस लघु शृंखला में आज हम और थोड़ा सा आगे बढ़ते हुए पहुँच जाते हैं सन‍ १९७८ में। ७० के दशक के मध्य भाग से हिंदी फ़िल्मों का स्वरूप बदलने लगा था। नर्मोनाज़ुक प्रेम कहानियो से हट कर, ऐंग्री यंग मैन की इमेज हमारे नायकों को दिया जाने लगा। इससे ना केवल कहानियों से मासूमीयत ग़ायब होने लगी, बल्कि इसका प्रभाव फ़िल्म के गीतों पर भी पड़ा। क्योंकि गानें फ़िल्म के किरदार और सिचुयशन को केन्द्र में रखते हुए ही बनाए जाते हैं, ऐसे में गीतकारों और संगीतकारों को भी उसी सांचे में अपने आप को ढालना पड़ा। जो नहीं ढल सके, वो पीछे रह गए। कल्याणजी-आनंदजी एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होने हर बदलते दौर को स्वीकारा और उसी के हिसाब से सगीत तैयार किया। और यही वजह है कि १९५८ में उनके गानें जितने लोकप्रिय हुआ करते थे, ८० के दशक में भी लोगों ने उनके गीतों को वैसे ही हाथों हाथ ग्रहण किया। हाँ, तो हम ज़िक्र कर रहे थे १९७८ के साल की। इस साल अमिताभ बच्चन की मशहूर फ़िल्म आई थी 'डॊन', जिसमें इस जोड़ी का संगीत था। सुपर स्ट

"मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेज मेहता" के घर सुमधुर गीतों और ग़ज़लों के साथ आए हैं उस्ताद शुजात खान और शारंग देव

ताज़ा सुर ताल २४/२०१० विश्व दीपक - ७० के दशक के मध्य भाग से लेकर ८० के दशक का समय कलात्मक सिनेमा का स्वर्णयुग माना जाता है। उस ज़माने में व्यावसायिक सिनेमा और कलात्मक सिनेमा के बीच की दूरी बहुत ही साफ़-साफ़ नज़र आती है। और सब से बड़ा फ़र्क था कलात्मक फ़िल्मों में उन दिनों गीतों की गुजाइश नहीं हुआ करती थी। लेकिन धीरे धीरे सिनेमा ने करवट बदली, और आज आलम कुछ ऐसा है कि युं तो समानांतर विषयों पर बहुत सारी फ़िल्में बन रही हैं, लेकिन उन्हे कलात्मक कह कर टाइप कास्ट नहीं किया जाता। इन फ़िल्मों की कहानी भले ही समानांतर हो, लेकिन फ़िल्म में व्यावसायिक्ता के सभी गुण मौजूद होते हैं। और इसलिए ज़ाहिर है कि गीत-संगीत भी शामिल होता है। सुजॊय - आपकी इन बातों से ऐसा लग रहा है कि 'ताज़ा सुर ताल' में आज हम ऐसे ही किसी फ़िल्म के गानें सुनने जा रहे हैं। विश्व दीपक - बिलकुल! आज हमने चुना है आने वाली फ़िल्म 'मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेज मेहता' के गीतों को। सुजॊय - मैंने इस फ़िल्म के बारे में कुछ ऐसा सुन रखा है कि इसकी कहानी विवाह से बाहर के संबंध पर आधारित है और इस एक्स्ट्रा-मैरिटल संबंध का एक कारण ह