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तस्वीर-ए-मोहब्बत थी जिसमें...ओल्ड इस गोल्ड में आज पेश है मंदार नारायण की पसंद

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 405/2010/105 ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में हम हमारी पसंद के गीतों को तो सुनवाते ही रहते हैं। इन दिनों हम ख़ास आपकी पसंदीदा गीतों को समेट कर प्रस्तुत कर रहे हैं लघु शृंखला 'पसंद अपनी अपनी'। आज इस महफ़िल को सजाने के लिए हम लेकर आए हैं एक मुजरा गीत। युं तो बहुत सारी गायिकाओं ने मुजरे गाए गाए हैं, और अक्सर ऐसा हुआ है कि क्योंकि फ़िल्म में मुजरा हीरोइन पर नहीं बल्कि किसी चरित्र अभिनेत्री पर फ़िल्माया जाता रहा है, इसलिए कई बार फ़िल्म की मुख्य गायिका (जो ज़्यादातर लता जी हुआ करती थीं) से ये मुजरे नहीं गवाए जाते थे बल्कि आशा जी या उषा जी या फिर कोई और कमचर्चित गायिका की आवाज़ में ये मुजरे होते थे। वैसे लता जी ने भी बहुत से मुजरे गाए हैं, लेकिन मेरे हिसाब से मुजरों में जान डालने में आशा जी का कोई सानी नहीं है। ५० के दशक से लेकर ८० के दशक तक आशा जी ने बेहिसाब मुजरे गाये हैं। किसी मुजरे की खासियत होती है कि उसमें नुकीली आवाज़ के साथ साथ थोड़ी सी शोख़ी, थोड़ी सी शरारत, थोड़ी सी बेवफ़ाई, थोड़ा सा दर्द, और अपनी तरफ़ आकृष्ट करने की क्षमता होनी चाहिए। और ये सब गुण आशा जी की

तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूँ...कि इस मीठी नोंक झोंक में भी मज़ा बहुत आता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 404/2010/104 दो स्तों, पिछले तीन दिनों से हम आप ही के पसंद के गानें सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। ये तीनों ही गीत कुछ संजीदे या फिर थोड़े दर्द भरे रहे। तो आज मूड को बिल्कुल ही बदलते हुए हम जिस गीत को सुनेंगे उसका ताल्लुख़ है खट्टे मीठे नोंक झोंक से, प्यार भरे तकरारों से, प्यार में रूठने मनाने से। यह गीत है रोहित राजपूत की पसंद का गीत है, रोहित जी ने पहेली प्रतियोगिता के पहले सीज़न में मंज़िल के बहुत करीब तक पहुँच गए थे, लेकिन शायद व्यस्तता की वजह से बाद में वो कुछ ग़ायब से हो गए। लेकिन हमारा अनुमान है कि जब भी उन्हे समय मिल पाता है, वह आवाज़ के मंच को दस्तक ज़रूर देते हैं। तभी तो उन्होने अपनी फ़रमाइश लिख भेजी है हमें। तो उनकी फ़रमाइश है फ़िल्म 'आस का पंछी' से, "तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूँ कि इन अदाओं पे और प्यार आता है"। लता मंगेशकर और मुकेश का गाया यह गीत है जिसे लिखा है हसरत जयपुरी ने और स्वरबद्ध किया है शंकर जयकिशन ने। १९६१ की इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे वैजयंतीमाला, राजेन्द्र कुमार और राज मेहरा। राजेन्द्र सिंह बेदी लिखित इस फ़िल

उस पे बन जाये कुछ ऐसी कि बिन आये न बने.. जसविंदर सिंह की जोरदार आवाज़ में ग़ालिब ने माँगी ये दुआ

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७९ पि छली किसी कड़ी में इस बात का ज़िक्र आया था कि "ग़ालिब" के उस्ताद "ग़ालिब" हीं थे। उस वक्त तो हमने इस बात पे ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब आज का आलेख लिखने की बारी आई तो हमने सोचा कि क्यों न एक नया मुद्दा,एक नया विषय ढूँढा जाए, अंतर्जाल पर ग़ालिब से जु़ड़ी सारी कहानियों को हमने खंगाल डाला और फिर ढूँढते-ढूँढते बात चचा ग़ालिब के उस्ताद पे आके अटक गई। श्री रामनाथ सुमन की पुस्तक "ग़ालिब" में इस सुखनपरवर के उस्ताद का लेखा-जोखा कुछ इस तरह दर्ज़ है: फ़ारसी की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने आगराके उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान मौलवी मुहम्मद मोवज्ज़म से प्राप्त की। इनकी ग्रहण शक्ति इतनी तीव्र थी कि बहुत जल्द वह ज़हूरी जैसे फ़ारसी कवियों का अध्ययन अपने आप करने लगे बल्कि फ़ारसी में गज़लें भी लिखने लगे। इसी ज़माने (१८१०-१८११ ई.) में मुल्ला अब्दुस्समद ईरान से घूमते-फिरते आगरा आये और इन्हींके यहाँ दो साल तक रहे। यह ईरान के एक प्रतिष्ठत एवं वैभवसम्पन्न व्यक्ति थे और यज़्द के रहनेवाले थे। पहिले ज़रथुस्त्र के अनुयायी थे पर बाद में इस्लाम को स्वीकार कर लिया था। इ

पड़े बरखा फुहार, करे जियरा पुकार....इंदु जी और पाबला जी के जीवन से जुड़ा एक खास गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 403/2010/103 'प संद अपनी अपनी' के तहत इन दिनों आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन रहे हैं अपनी ही पसंद के गानें। आज बारी है इंदु जी के फ़रमाइश की। वैसे भए इस गीत की फ़रमाइश इंदु जी ने लिख भेजी है, लेकिन इस गीत के चुनाव के पीछे हमारे अति परिचित पाबला जी का भी योगदान है। तो हम इस गीत को इन दोनों की मिली जुली फ़रमाइश ही मान लेते हैं। यह गीत है फ़िल्म 'दूज का चांद' का "पड़े बरखा फुहार, करे जियरा पुकार, दुख जाने ना हमार, बैरन रुत बरसात की"। लता मंगेशकर की आवाज़, साहिर लुधियानवी के बोल और रोशन का संगीत। इसे संयोग ही हम कहेंगे कि पिछले तीन दिनों से हम जो फ़रमाइशी गीत सुन रहे हैं वो सभी साहिर साहब के ही लिखे हुए हैं। फ़िल्म 'दूज का चांद' के इस गीत को चुनने के पीछे जो विशेष कारण है उसे हम आप सब के साथ बाँटना चाहेंगे। पाबला जी की बेटी जब बहुत छोटी थी, तो किसी बिमारी की वजह से वो कई दिनों तक अवचेतन रही। किसी भी तरीके से कुछ हो नहीं पा रहा था। ऐसे में कहीं से जब यह गीत गूंजा तो उनकी बेटी ने रेस्पॊण्ड किया और उसकी चेतना वापस आई और फिर धीरे ध

आज मुझे कुछ कहना है...जब साहिर की अधूरी चाहत को स्वर दिए सुधा मल्होत्रा और किशोर कुमार ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 402/2010/102 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर कल से हमने शुरु की है आप ही के पसंदीदा गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'पसंद अपनी अपनी'। आज इसकी दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है रश्मि प्रभा जी के पसंद का एक गीत। इससे पहले कि हम रश्मि जी के पसंद के गाने का ज़िक्र करें, हम यह बताना चाहेंगे कि ये वही रश्मि जी हैं जो एक जानी मानी लेखिका हैं, और प्रकाशन की बात करें तो "कादम्बिनी" , "वांग्मय", "अर्गला", "गर्भनाल" के साथ साथ कई महत्त्वपूर्ण अखबारों में उनकी रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है जिसमें अभी हाल ही में हिंद युग्म से प्रकाशित "शब्दों का रिश्ता" भी शामिल है. जिन्हे मालूम नहीं उनके लिए हम यह बता दें कि रश्मि जी कवि पन्त की मानस पुत्री श्रीमती सरस्वती प्रसाद की बेटी हैं और इनका नामकरण स्वर्गीय सुमित्रा नंदन पन्त जी ने ही किया था। रश्मि जी आवाज़ से भी सक्रिय रूप से जुड़ी हुईं हैं और कविताओं के अलावा 'आवाज़' के 'गुनगुनाते लम्हे' सीरीज़ में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। तो रश्

राजेश रोशन के सुरों की डोर पर संगीत का आसमां छूती "काईट्स"

ताज़ा सुर ताल १५/२०१० सुजॊय - सजीव, कुछ निर्देशक और अभिनेता ऐसे हैं जिनकी फ़िल्मों का लोग बेसबरी से इंतज़ार करते हैं। ये कलाकार ना केवल बहुत कम फ़िल्में बनाते हैं, बल्कि हर फ़िल्म में कुछ नया इस फ़िल्म जगत को देते हैं। राकेश रोशन और उनके सुपुत्र हृतिक रोशन के फ़िल्मों का जो कारवाँ 'कहो ना प्यार है' की ज़बरदस्त कामयाबी से शुरु हुआ था, वह कारवाँ उसी कामयाबी की राह पर आगे बढ़ता हुआ, 'कोई मिल गया' और 'क्रिश' जैसी ब्लॊकबस्टर फ़िल्मों के पड़ाव से गुज़र कर अब एक और महत्वपूर्ण पड़ाव की ओर अग्रसर हो रहा है, जिस पड़ाव का नाम है 'काइट्स'। सजीव - 'काइट्स' की चर्चा काफ़ी समय से हो रही है और इस फ़िल्म से लोगों को बहुत सी उम्मीदें हैं। लेकिन इस फ़िल्म को राकेश रोशन ने ज़रूर प्रोड्युस किया है, लेकिन इस बार निर्देशन की बगडोर उन्होने अपने हाथ में नहीं लिया, बल्कि यह भार सौंपा गया 'लाइफ़ इन अ मेट्रो' और 'गैंगस्टर' जैसी सफल फ़िल्मों के निर्देशक अनुराग बासु को। सुजॊय - संगीत की बात करें तो अनुराग बासु की फ़िल्मों में अक्सर प्रीतम का ही संगीत होता है।

मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी....गुड्डो दादी की पसंद आज ओल्ड इस गोल्ड पर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 401/2010/101 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में सभी श्रोताओं व पाठकों का फिर एक बार स्वागत है। पिछले दिनों हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए एक नए ई-मेल पते की शुरुआत की थी जिस पर हम आप से आपकी पसंद और सुझावों का स्वागत किया करते हैं। हमें बेहद ख़ुशी है कि आप में से कई 'आवाज़' के चाहनेवाले इस पते पर ना केवल अपनी पसंद लिख कर भेज रहे हैं, बल्कि साथ ही साथ सुझाव भी भेज रहे हैं और हमारी ग़लतियों को भी सुधार रहे हैं। हम पूरी कोशिश करते हैं कि आलेखों में लिखे जाने वाले तथ्य १००% सही हो, लेकिन कभी कभी ग़लतियाँ हो ही जाती हैं। इसलिए हम आप से फिर एक बार निवेदन करते हैं कि जब भी कभी आपको लगे कि दी जाने वाली जानकारी ग़लत है, तो हमें ज़रूर सूचित करें। और अब हम आते हैं आपकी पसंद पर। हमारा मतलब है, उन फ़रमाइशों पर जिन्हे आप ने की है हम से। जी हाँ, पिछले दिनों हमें आप की तरफ़ से जिन जिन गीतों को सुनवाने की फ़रमाइशें प्राप्त हुई हैं, उन्ही गीतों को लेकर हम आज से शुरु कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'पसंद अपनी अपनी'। हमारे ई-मेल पते प