ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 397/2010/97 भा षा की सजावट के लिए पौराणिक समय से जो अलग अलग तरह के माध्यम चले आ रहे हैं, उनमें से एक बेहद लोकप्रिय माध्यम है मुहावरे। मुहावरों की खासियत यह होती है कि इन्हे बोलने के लिए साहित्यिक होने की या फिर शुद्ध भाषा बोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती। ये मुहावरे पीढ़ी दर पीढ़ी ज़बानी आगे बढ़ती चली जाती है। क्या आप ने कभी ग़ौर किया है कि हिंदी फ़िल्मी गीतों में किसी मुहावरे का इस्तेमाल हुआ है या नहीं। हमें तो भई कम से कम एक ऐसा मुहवरा मिला है जो एक नहीं बल्कि दो दो गीतों में मुखड़े के तौर पर इस्तेमाल हुए हैं। इनमें से एक है लता मंगेशकर का गाया १९५७ की फ़िल्म 'बारिश' का गीत "ये मुंह और दाल मसूर की, ज़रा देखो तो सूरत हुज़ूर की"। और दूसरा गीत है फ़िल्म 'अराउंड दि वर्ल्ड' फ़िल्म का "ये मुंह और मसूर की दाल, वाह रे वाह मेरे बांके लाल, हुस्न जो देखा हाल बेहाल, वाह रे वाह मेरे बांके लाल"। जी हाँ, मुहावरा है 'ये मुंह और मसूर की दाल', और 'अराउंड दि वर्ल्ड' के इस गीत को गाया था जो गायिकाओं ने - शारदा और मुबारक़ बेग़म। आज