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न मैं धन चाहूँ, न रतन चहुँ....मन को पावन धारा में बहा ले जाता एक मधुर भजन....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 394/2010/94 दो स्तों, इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आप सुन रहे हैं पार्श्वगायिकाओं के गाए युगल गीतों पर आधारित हमारी लघु शृंखला 'सखी सहेली'। आज इस शृंखला की चौथी कड़ी में प्रस्तुत है गीता दत्त और सुधा मल्होत्रा की आवाज़ों में एक भक्ति रचना - "ना मैं धन चाहूँ ना रतन चाहूँ, तेरे चरणों की धूल मिल जाए"। फ़िल्म 'काला बाज़ार' की इस भजन को लिखा है शैलेन्द्र ने और सगीतबद्ध किया है सचिन देव बर्मन ने। जैसा कि हम पहले भी ज़िक्र कर चुके हैं और सब को मालूम भी है कि गीता जी की आवाज़ में कुछ ऐसी खासियत थी कि जब भी उनके गाए भक्ति गीतों को हम सुनते हैं, ऐसा लगता है कि जैसे भगवान से गिड़गिड़ाकर विनती की जा रही है बहुत ही सच्चाई व इमानदारी के साथ। और ऐसी रचनाओं को सुनते हुए जैसे मन पावन हो जाता है, ईश्वर की आराधना में लीन हो जाता है। फ़िल्म 'काला बाज़ार' के इस भजन में भी वही अंदाज़ गीता जी का रहा है। और साथ में सुधा मल्होत्रा जी की आवाज़ भी क्या ख़ूब प्यारी लगती है। इन दोनों की आवाज़ों से जो कॊन्ट्रस्ट पैदा हुआ है गीत में, वही गीत को और भी

अपलम चपलम चपलाई रे....गुदगुदाते शब्द मधुर संगीत और मंगेशकर बहनों की जुगलबंदी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 393/2010/93 ज़ो हराबाई -शमशाद बेग़म और सुरैय्या - उमा देवी की जोड़ियों के बाद 'सखी सहेली' की तीसरी कड़ी में आज हम जिन दो गायिकाओं को लेकर उपस्थित हुए हैं, वो एक ऐसे परिवार से ताल्लुख़ रखती हैं जिस परिवार का नाम फ़िल्म संगीत के आकाश में सूरज की तरह चमक रहा है। जी हाँ, मंगेशकर परिवार। जो परम्परा स्व: दीनानाथ मंगेशकर ने शुरु की थी, उस परम्परा को उनके बेटे बेटियों, लता, आशा, उषा, मीना, हृदयनाथ, आदिनाथ, ने ना केवल आगे बढ़ाया, बल्कि उसे उस मुकाम तक भी पहुँचाया कि फ़िल्म संगीत के इतिहास में उनके परिवार का नाम स्वर्णाक्षरों से दर्ज हो गया। आज इसी मंगेशकर परिवार की दो बहनों, लता और उषा की आवाज़ों में प्रस्तुत है एक बड़ा ही नटखट, चंचल और चुलबुला सा गीत सी. रामचन्द्र के संगीत निर्देशन में। राजेन्द्र कृष्ण का लिखा १९५५ की फ़िल्म 'आज़ाद' का वही सदाबहार गीत "अपलम चपलम"। कहा जाता है कि फ़िल्म 'आज़ाद' के निर्माता एस. एम. एस. नायडू ने पहले संगीतकार नौशाद को इस फ़िल्म के संगीत का भार देना चाहा, पर उन्होने नौशाद साहब के सामने शर्त रख दी कि एक मही

सुनो कहानी: चार बेटे - हरिशंकर परसाई

सुनो कहानी: चार बेटे - हरिशंकर परसाई 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा लिखित रचना " मैं एक भारतीय " का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं हरिशंकर परसाई लिखित व्यंग्य " चार बेटे ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। "चार बेटे" का कुल प्रसारण समय मात्र 8 मिनट 44 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। । ~ हरिशंकर परसाई (1922-1995) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी गृहस्थ धर्म की एक ज़रूरी रस्म पत्नी को पीटने की भी होती है। ( हरिशंकर परसाई के व्यंग्य "चार बेटे" से एक अंश )