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मोहे भी रंग देता जा मोरे सजना...संगीत के विविध रंगों से सजा एक रंगीला गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 363/2010/63 रं ग रंगीले गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह लघु शृंखला 'गीत रंगीले' जारी है 'आवाज़' पर। "आजा रंग दूँ तेरी चुनरिया प्यार के रंग में", दोस्तों, अक्सर ये शब्द प्रेमी अपनी प्रेमिका को कहता है। लेकिन कभी कभी हालात ऐसे भी आन पड़ते हैं कि नायिका ख़ुद अपनी कोरी चुनरिया को रंग देने का अनुरोध कर बैठती है। कुछ साल पहले इस तरह का एक गीत फ़िल्म 'तक्षक' में ए. आर. रहमान ने स्वरब्द्ध किया था जिसे आशा भोसले और साथियों ने गाया था, "मुझे रंग दे, मुझे रंग दे, मुझे अपने प्रीत विच रंग दे"। लेकिन प्यार के रंग में रंगने की नायिका की यह फ़रमाइश हिंदी फ़िल्मों में काफ़ी पुराना है। ५० के दशक के आख़िर में, यानी कि १९५९ में एक फ़िल्म आई थी 'चार दिल चार राहें', जिसमें एक बेहद लोकप्रिय गीत था मीना कपूर की आवाज़ में, "कच्ची है उमरिया, कोरी है चुनरिया, मोहे भी रंग देता जा मोरे सजना, मोहे भी रंग देता जा"। जब रंगीले गीतों की बात चल रही हो, तो हमने सोचा कि क्यों ना इस अनूठे गीत को भी इसी शृंखला में शामिल कर

लाई है हज़ारों रंग होली...और हजारों शुभकामनाएं संगीतकार रवि को जन्मदिन की भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 362/2010/62 'गी त रंगीले' शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का एक बार फिर स्वागत है। दोस्तों, आप ने बचपन में अपनी दादी नानी को कहते हुए सुना होगा कि "उड़ गया पाला, आया बसंत लाला"। ऋतुराज बसंत के आते ही शीत लहर कम होने लग जाती है, और एक बड़ा ही सुहावना सा मौसम चारों तरफ़ छाने लगता है। थोड़ी थोड़ी सर्दी भी रहती है, ओस की बूँदों से रातों की नमी भी बरकरार रहती है, ऐसे मदहोश कर देने वाले मौसम में अपने साजन से जुदाई भला किसे अच्छा लगता है! तभी तो किसी ने कहा है कि "मीठी मीठी सर्दी है, भीगी भीगी रातें हैं, ऐसे में चले आओ, फागुन का महीना है"। ख़ैर, हम तो आज बात करेंगे होली की। होली फागुन महीने की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता, और आम तौर पर फागुन का महीना ग्रेगोरियन कलेण्डर के अनुसार फ़रवरी के मध्य भाग से लेकर मार्च के मध्य भाग तक पड़ता है। और यही समय होता है बसंत ऋतु का भी। दोस्तों, आज हमने जो गीत चुना है इस रंगीली शृंखला में, वह कल के गीत की ही तरह एक होली गीत है। और क्योंकि आज संगीतकार रवि जी का जनमदिन है, इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना उन्ही का स्वरबद्ध क

रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यूँ.. नूरजहां की काँपती आवाज़ में मचल पड़ी ग़ालिब की ये गज़ल

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७३ ला जिम था कि देखो मेरा रस्ता कोई दिन और, तनहा गये क्यों अब रहो तनहा कोई दिन और। ग़ालिब की ज़िंदगी बड़ी हीं तकलीफ़ में गुजरी और इस तकलीफ़ का कारण महज़ आर्थिक नहीं था। हाँ आर्थिक भी कई कारण थे, जिनका ज़िक्र हम आगे की कड़ियों में करेंगे। आज हम उस दु:ख की बात करने जा रहे हैं, जो किसी भी पिता की कमर तोड़ने के लिए काफ़ी होता है। ग़ालिब पर चिट्ठा(ब्लाग) चला रहे अनिल कान्त इस बारे में लिखते हैं: ग़ालिब के सात बच्चे हुए पर कोई भी पंद्रह महीने से ज्यादा जीवित न रहा. पत्नी से भी वह हार्दिक सौख्य न मिला जो जीवन में मिलने वाली तमाम परेशानियों में एक बल प्रदान करे. इनकी पत्नी उमराव बेगम नवाब इलाहीबख्शखाँ 'मारुफ़’ की छोटी बेटी थीं. ग़ालिब की पत्नी की बड़ी बहन को दो बच्चे हुए जिनमें से एक ज़ैनुल आब्दीनखाँ को ग़ालिब ने गोद ले लिया था. वह बहुत अच्छे कवि थे और 'आरिफ' उपनाम रखते थे. ग़ालिब उन्हें बहुत प्यार करते थे और उन्हें 'राहते-रूहे-नातवाँ' (दुर्बल आत्मा की शांति) कहते थे. दुर्भाग्य से वह भी भरी जवानी(३६ साल की उम्र) में मर गये. ग़ालिब के दिल पर ऐसी चोट लगी कि