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लाई है हज़ारों रंग होली...और हजारों शुभकामनाएं संगीतकार रवि को जन्मदिन की भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 362/2010/62 'गी त रंगीले' शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का एक बार फिर स्वागत है। दोस्तों, आप ने बचपन में अपनी दादी नानी को कहते हुए सुना होगा कि "उड़ गया पाला, आया बसंत लाला"। ऋतुराज बसंत के आते ही शीत लहर कम होने लग जाती है, और एक बड़ा ही सुहावना सा मौसम चारों तरफ़ छाने लगता है। थोड़ी थोड़ी सर्दी भी रहती है, ओस की बूँदों से रातों की नमी भी बरकरार रहती है, ऐसे मदहोश कर देने वाले मौसम में अपने साजन से जुदाई भला किसे अच्छा लगता है! तभी तो किसी ने कहा है कि "मीठी मीठी सर्दी है, भीगी भीगी रातें हैं, ऐसे में चले आओ, फागुन का महीना है"। ख़ैर, हम तो आज बात करेंगे होली की। होली फागुन महीने की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता, और आम तौर पर फागुन का महीना ग्रेगोरियन कलेण्डर के अनुसार फ़रवरी के मध्य भाग से लेकर मार्च के मध्य भाग तक पड़ता है। और यही समय होता है बसंत ऋतु का भी। दोस्तों, आज हमने जो गीत चुना है इस रंगीली शृंखला में, वह कल के गीत की ही तरह एक होली गीत है। और क्योंकि आज संगीतकार रवि जी का जनमदिन है, इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना उन्ही का स्वरबद्ध क

रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यूँ.. नूरजहां की काँपती आवाज़ में मचल पड़ी ग़ालिब की ये गज़ल

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७३ ला जिम था कि देखो मेरा रस्ता कोई दिन और, तनहा गये क्यों अब रहो तनहा कोई दिन और। ग़ालिब की ज़िंदगी बड़ी हीं तकलीफ़ में गुजरी और इस तकलीफ़ का कारण महज़ आर्थिक नहीं था। हाँ आर्थिक भी कई कारण थे, जिनका ज़िक्र हम आगे की कड़ियों में करेंगे। आज हम उस दु:ख की बात करने जा रहे हैं, जो किसी भी पिता की कमर तोड़ने के लिए काफ़ी होता है। ग़ालिब पर चिट्ठा(ब्लाग) चला रहे अनिल कान्त इस बारे में लिखते हैं: ग़ालिब के सात बच्चे हुए पर कोई भी पंद्रह महीने से ज्यादा जीवित न रहा. पत्नी से भी वह हार्दिक सौख्य न मिला जो जीवन में मिलने वाली तमाम परेशानियों में एक बल प्रदान करे. इनकी पत्नी उमराव बेगम नवाब इलाहीबख्शखाँ 'मारुफ़’ की छोटी बेटी थीं. ग़ालिब की पत्नी की बड़ी बहन को दो बच्चे हुए जिनमें से एक ज़ैनुल आब्दीनखाँ को ग़ालिब ने गोद ले लिया था. वह बहुत अच्छे कवि थे और 'आरिफ' उपनाम रखते थे. ग़ालिब उन्हें बहुत प्यार करते थे और उन्हें 'राहते-रूहे-नातवाँ' (दुर्बल आत्मा की शांति) कहते थे. दुर्भाग्य से वह भी भरी जवानी(३६ साल की उम्र) में मर गये. ग़ालिब के दिल पर ऐसी चोट लगी कि

पिया संग खेलूँ होली फागुन आयो रे...मौसम ही ऐसा है क्यों न गूंजें तराने फिर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 361/2010/61 हो ली का रंगीन त्योहार आप सभी ने ख़ूब धूम धाम से और आत्मीयता के साथ मनाया होगा, ऐसी हम उम्मीद करते हैं। दोस्तों, भले ही होली गुज़र चुकी है, लेकिन वातावरण में, प्रकृति में जो रंग घुले हुए हैं, वो बरक़रार है। फागुन का महीना चल रहा है, बसंत ऋतु ने चारों तरफ़ रंग ही रंग बिखेर रखी है। चारों ओर रंग बिरंगे फूल खिले हैं, जो मंद मंद हवाओं पे सवार होकर जैसे झूला झूल रहे हैं। उन पर मंडराती हुईं तितलियाँ और भँवरे, ठंडी ठंडी हवाओं के झोंके, कुल मिलाकर मौसम इतना सुहावना बन पड़ा है इस मौसम में कि इसके असर से कोई भी बच नहीं सकता। इन सब का मानव मन पर असर होना लाज़मी है। इसी रंगीन वातावरण को और भी ज़्यादा रंगीन, ख़ुशनुमा और सुरीला बनाने के लिए आज से हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु कर रहे हैं दस रंगीन गीतों की एक लघु शृंखला 'गीत रंगीले'। इनमें से कुछ गानें होली गीत हैं, तो कुछ बसंत ऋतु को समर्पित है, किसी में फागुन का ज़िक्र है, तो किसी में है इस मौसम की मस्ती और धूम। दोस्तों, मुझे श्याम 'साहिल' की लिखी हुई एक कविता याद आ रही है, जो कुछ इस तरह से ह

कहीं शेर-ओ-नग़मा बन के....तलत साहब की आवाज़ में एक दुर्लभ गैर फ़िल्मी गज़ल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 360/2010/60 'द स महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़', तलत महमूद पर केन्द्रित इस ख़ास पेशकश की अंतिम कड़ी में आपका फिर एक बार हम स्वागत करते हैं। दोस्तों, किसी भी इंसान की जो जड़ें होती हैं, वो इतने मज़बूत होती हैं, कि ज़िंदगी में एक वक़्त ऐसा आता है जब वह अपने उसी जड़ों की तलाश करता है, उसी की तरफ़ फिर एक बार रुख़ करने की कोशिश करता है। तलत महमूद सहब के गायन की शुरुआत ग़ैर फ़िल्मी रचनाओं के साथ हुई थी जब उन्होने "सब दिन एक समान नहीं था" से अपना करीयर शुरु किया था। फिर उसके बाद कमल दासगुप्ता के संगीत में उनका पहला कामयाब ग़ैर फ़िल्मी गीत आया, "तसवीर तेरी दिल मेरा बहला ना सकेगी"। तलत साहब के अपने शब्दों में "१९४१ में मैंने अपना पहला गीत रिकार्ड करवाया था "तसवीर तेरी दिल मेरा..."। फ़य्याज़ हशमी ने इसे लिखा था और कमल दासगुप्ता की तर्ज़ थी। मैं अपनी तारीफ़ ख़ुद नहीं करना चाहता पर तसवीर पर इससे बेहतरीन गीत आज तक नहीं हुआ है। " तो हम बात करे थे अपने जड़ों की ओर वापस मुड़ने की। तो तलत साहब, जिन्होने ग़ैर फ़िल्मी गीत से अपने

"अमन की आशा" है संगीत का माधुर्य, होली पर झूमिए इन सूफी धुनों पर

ताज़ा सुर ताल ०९/२०१० सुजॊय - सभी पाठकों को होली पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ और सजीव, आप को भी! सजीव - मेरी तरफ़ से भी 'आवाज़' के सभी रसिकों को होली की शुभकामनाएँ और सुजॊय, तुम्हे भी। सुजॊय - होली का त्योहार रंगों का त्योहार है, ख़ुशियों का त्योहार है, भाइचारे का त्योहार है। गिले शिकवे भूलकर दुश्मन भी गले मिल जाते हैं, चारों तरफ़ ख़ुशी की लहर दौड़ जाती है। सजीव - सुजॊय, तुमने भाइचारे की बात की, तो मैं समझता हूँ कि यह भाइचारा केवल अपने सगे संबंधियों और आस-पड़ोस तक ही सीमित ना रख कर, अगर हम इसे एक अंतर्राष्ट्रीय रूप दें, तो यह पूरी की पूरी पृथ्वी ही स्वर्ग का रूप ले सकती है। सुजॊय - जी बिल्कुल! आज कल जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय उग्रवाद बढ़ता जा रहा है, विनाश और दहशत के बादल इस पूरी धरा पर मंदला रहे हैं। ऐसे में अगर कोई संस्था अगर अमन और शांति का दूत बन कर, और सीमाओं को लांघ कर दो देशों को और ज़्यादा क़रीब लाने का प्रयास करें, तो हमें खुले दिल से उसकी स्वागत करनी चाहिए। सजीव - हाँ, और ऐसी ही दो संस्थाओं ने मिल कर अभी हाल में एक परियोजना बनाई है भारत और पाक़िस्तान के रिश्तों को

यादों का सहारा न होता हम छोड के दुनिया चल देते....और चले ही तो गए तलत साहब

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 359/2010/59 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोताओं व पाठकों को हमारी तरफ़ से होली की हार्दिक शुभकामनाएँ। इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है तलत महमूद पर केन्द्रित शृंखला 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। जैसा कि हमने आप से पहली ही कहा था कि तलत महमूद की गाई ग़ज़लों की इस ख़ास शृंखला के दस में से नौ ग़ज़लें फ़िल्मों से चुनी हुई होगी और आख़िरी ग़ज़ल हम आपको ग़ैर फ़िल्मी सुनवाएँगे। तो आज बारी है आख़िरी फ़िल्मी ग़ज़ल की। ६० के दशक के आख़िर के सालों में फ़िल्म संगीत पर पाश्चात्य संगीत इस क़दर हावी हो गया कि गीतों से नाज़ुकी और मासूमियत कम होने लगी। ऐसे में वो कलाकार जो इस बदलाव के साथ अपने आप को बदल नहीं सके, वो धीरे धीरे फ़िल्मों से दूर होते चले गए। इनमें कई कलाकार अपनी स्वेच्छा से पीछे हो लिए तो बहुत सारे अपने आप को इस परिवर्तन में ढाल नहीं सके। तलत महमूद उन कलाकारों में से थे जो स्वेच्छा से ही इस जगत को त्याग दिया और ग़ैर फ़िल्म संगीत जगत में अपने आप को व्यस्त कर लिया। आज हमने एक ऐसी ग़ज़ल चुनी है जो बनी थी सन‍ १९६९ में। फ़िल्म 'पत्थ

फागुनी पॉडकास्ट कवि सम्मेलन और एक सरप्राइज

रश्मि प्रभा खुश्बू दुनिया के लगभग सभी त्योहार बदलाव-सूचक हैं। और ये बदलाव दुखों से लगातार लड़ते मनुष्य के मन में, आगे सुख की रोशनी है- की आशा का संचार करते हैं। होली त्योहार भी वैमनस्यकता, ईर्ष्या, द्वेष के खिलाफ भाईचारे का उद्‍घोष है। इसी तरह की कुछ आवाज़ों को कवि सम्मेलन में पिरोकर हम फागुन के अंत में आपके के लिए लाये हैं। ये संवेदना की आवाज़ें हैं। इस बार रश्मि प्रभा इस कवि सम्मेलन में एक सरप्राइज के साथ उपस्थित हुई हैं। और चूँकि वह सरप्राइज है इसलिए जानने के लिए आपको कवि सम्मेलन सुनना होगा। हम होली की शुभकामना देकर हटते हैं, आप सुनिए इस बार का कवि सम्मेलन- प्रतिभागी कवि- सरस्वती प्रसाद, नवीन कुमार, नीलम प्रभा, दीपाली आब, शन्नो अग्रवाल, आर्यमन, चेतस पाण्डेय, गौरव वशिष्ठ और *सरप्राइज़*। संचालन- रश्मि प्रभा तकनीक- खुश्बू यदि आप इसे सुविधानुसार सुनना चाहते हैं तो कृपया नीचे के लिंकों से डाउनलोड करें- WMA MP3 आप भी इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनें आप इस तकनीकी कवि सम्मेलन का हिस्सा होकर दुनिया भर के लाखों कविता प्रेमियों से सीधे जुड़ सकते हैं। प्रक्रिया बहुत सरल है। रश्मि प्रभा के साथ