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मेरा बुलबुल सो रहा है शोर तू न मचा...कवि प्रदीप और अनिल दा का रचा एक अनमोल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 344/2010/44 १९४३ । इस वर्ष ने ३ प्रमुख फ़िल्में देखी - क़िस्मत, तानसेन, और शकुंतला। 'तानसेन' रणजीत मूवीटोन की फ़िल्म थी जिसमें संगीतकार खेमचंद प्रकाश ने सहगल और ख़ुर्शीद से कुछ ऐसे गानें गवाए कि फ़िल्म तो सुपर डुपर हिट साबित हुआ ही, खेमचंद जी और सहगल साहब के करीयर का एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म भी साबित हुआ। प्रभात से निकल कर और अपनी निजी बैनर 'राजकमल कलामंदिर' की स्थापना कर वी. शांताराम ने इस साल बनाई फ़िल्म 'शकुंतला', जिसके गीत संगीत ने भी काफ़ी धूम मचाया। संगीतकार वसंत देसाई की इसी फ़िल्म से सही अर्थ में करीयर शुरु हुआ था। और १९४३ में बॊम्बे टॊकीज़ की सफलतम फ़िल्म आई 'क़िस्मत'। 'क़िस्मत' को लिखा व निर्देशित किया था ज्ञान मुखर्जी ने। हिमांशु राय की मृत्यु के बाद बॊम्बे टॊकीज़ में राजनीति चल पड़ी थी। देवीका रानी और शशधर मुखर्जी के बीच चल रही उत्तराधिकार की लड़ाई के बीच ही यह फ़िल्म बनी। अशोक कुमार और मुम्ताज़ शांति अभिनीत इस फ़िल्म ने बॊक्स ऒफ़िस के सारे रिकार्ड्स तोड़ दिए। देश भर में कई कई जुबिलीज़ मनाने के अलावा यह फ़िल्

झूठ बराबर तप नहीं - गोपाल प्रसाद व्यास

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में उनका ही व्यंग्य संस्कृति के रखवाले सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं गोपाल प्रसाद व्यास का व्यंग्य " झूठ बराबर तप नहीं ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। "झूठ बराबर तप नहीं" का कुल प्रसारण समय 9 मिनट 36 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। जब मैं सात वर्ष का हुआ तो भगवान् कृष्ण की तरह गोवर्धन पर्वत की तलहटी छोड़कर मथुरा आ गया। ~ गोपाल प्रसाद व्यास हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी जिस आदमी को अपनी नाक का ख्याल नहीं वह भी भला कोई आदमी है? ( गोपाल प्रसाद व्यास की "झूठ बराबर तप नहीं" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' प

दुनिया ये दुनिया तूफ़ान मेल....दौड़ती भागती जिंदगी को तूफ़ान मेल से जोड़ती कानन देवी की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 343/2010/43 'प्यो र गोल्ड' की तीसरी कड़ी मे आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, १९४२ का साल सिर्फ़ भारत का ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के इतिहास का एक बेहद महत्वपूर्ण पन्ना रहा है। एक तरफ़ द्वितीय विश्व युद्ध पूरे शबाब पर थी, और दूसरी तरफ़ भारत का स्वाधीनता संग्राम पूरी तरह से ज़ोर पकड़ चुका था। 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो' के नारे गली गली में गूंज रहे थे। उस तरफ़ पर्ल हार्बर कांड को भी इसी साल अंजाम दिया गया था। इधर फ़िल्म इंडस्ट्री में ब्रिटिश सरकार ने फ़िल्मों की लंबाई पर ११,००० फ़ीट का मापदंड निर्धारित कर दिया ताकि 'वार प्रोपागंडा' फ़िल्मों के लिए फ़िल्मों की कोई कमी न हो। दूसरी तरफ़ फ़िल्म सेंसर बोर्ड ने सख़्ती दिखाते हुए फ़िल्मों में 'गांधी', 'नेहरु', 'आज़ादी' जैसे शब्दों का इस्तेमाल बंद करवा दिया। 'प्योर गोल्ड' में आज बारी है सन्‍ १९४२ के एक सुपरहिट गीत की। दोस्तों, पहली कड़ी में हमने आपको बताया था कि १९४० की फ़िल्म 'ज़िंदगी' निर्देशक प्रमथेश बरुआ की न्यु थिएटर्स में अंतिम फ़िल्म थी। उस ज़माने में कलाकार

एक कली नाजों की पली..आन्दोलनकारी संगीतकार मास्टर गुलाम हैदर की एक उत्कृष्ट रचना

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 342/2010/42 'प्यो र गोल्ड' की दूसरी कड़ी में आज बातें १९४१ की। इस साल की कुछ प्रमुख फ़िल्मी बातों से अवगत करवाएँ आपको? मुकेश ने इस साल क़दम रखा बतौर अभिनेता व गायक फ़िल्म 'निर्दोष' में, जिसमें अभिनय के साथ साथ संगीतकार अशोक घोष के निर्देशन में उन्होने अपना पहला गीत गाया। गायक तलत महमूद ने कमल दासगुप्ता के संगीत निर्देशन में फ़य्याज़ हाशमी का लिखा अपना पहला ग़ैर फ़िल्मी गीत गाया "सब दिन एक समान नहीं था"। सहगल साहब भी दूसरे कई कलाकारों की तरह कलकत्ता छोड़ बम्बई आ गए और रणजीत मूवीटोन से जुड़ गए। इससे न्यु थिएटर्स को एक ज़बरदस्त झटका लगा। वैसे इस साल न्यु थिएटर्स ने पंकज मल्लिक के संगीत और अभिनय से सजी फ़िल्म 'डॉक्टर' रिलीज़ की जो सुपरहिट रही। इस साल अंग्रेज़ फ़ौज ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को उनके घर में नज़रबन्द कर रखा था। लेकिन सब की आँखों में धूल झोंक कर पेशावर के रास्ते वो अफ़ग़ानिस्तान चले गए। मिनर्वा मूवीटोन के सोहराब मोदी ने द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर फ़िल्म बनाई 'सिकंदर', जिसमें सिकन्दर और पोरस की भूमिकाएँ न

मैं क्या जानूँ क्या जादू है- सहगल साहब की आवाज़ का जादू

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 341/2010/41 दो स्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ने देखते ही देखते लगभग एक साल का सफ़र पूरा कर लिया है। पिछले साल २० फ़रवरी की शाम से शुरु हुई थी यह शृंखला। गुज़रे ज़माने के सदाबहार नग़मों को सुनते हुए हम साथ साथ जो सुरीला सफ़र तय किया है, उसको हमने समय समय पर १० गीतों की विशेष लघु शृंखलाओं में बाँटा है, ताकि फ़िल्म संगीत के अलग अलग पहलुओं और कलाकारों को और भी ज़्यादा नज़दीक से और विस्तार से जानने और सुनने का मौका मिल सके। आज १० फ़रवरी है और आज से जो लघु शृंखला शुरु होगी वह जाकर समाप्त होगी १९ फ़रवरी को, यानी कि उस दिन जिस दिन 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पूरा करेगा अपना पहला साल। इसलिए यह लघु शृंखला बेहद ख़ास बन पड़ी है, और इसे और भी ज़्यादा ख़ास बनाने के लिए हम इसमें लेकर आए हैं ४० के दशक के १० सदाबहार सुपर डुपर हिट गीत, जो ४० के दशक के १० अलग अलग सालों में बने हैं। यानी कि १९४० से लेकर १९४९ तक, दस गीत दस अलग अलग सालों के। हम यह दावा तो नहीं करते कि ये गीत उन सालों के सर्वोत्तम गीत रहे, लेकिन इतना आपको विश्वास ज़रूर दिला सकते हैं कि इन गीतों को आप ज़रूर पसंद करेंगे

खुशबू उड़ाके लाई है गेशु-ए-यार की.. अपने मियाँ आग़ा कश्मीरी के बोलों में रंग भरा मुख्तार बेग़म ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७० ह मने अपनी महफ़िल में इस मुद्दे को कई बार उठाया है कि ज्यादातर शायर अपनी काबिलियत के बावजूद पर्दे के पीछे हीं रह जाते हैं। सारी की सारी मक़बूलियत इन नगमानिगारों के शेरों को, उनकी गज़लों को अपनी आवाज़ से मक़बूल करने वाले फ़नकारों के हिस्से में जाती है। लेकिन आज की महफ़िल में स्थिति कुछ अलग है। हम आज एक ऐसी फ़नकारा की बात करने जा रहे हैं जिनकी बदौलत एक अव्वल दर्ज़े की गायिका और एक अव्वल दर्ज़े की नायिका हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी अवाम को नसीब हुई। इस अव्वल दर्ज़े की गायिका से हम सारे परिचित हैं। हमने कुछ महिनों पहले इनकी दो नज़्में आपके सामने पेश की थीं। ये नज़्में थीं- जनाब अतर नफ़ीस की लिखी "वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया" और जनाब फ़ैयाज हाशमी की "आज जाने की जिद्द न करो" । आप अब तक समझ हीं गए होंगे कि हम किन फ़नकारा की बातें कर रहे हैं। वह फ़नकारा जिनकी गज़ल से आज की महफ़िल सजी है,वो इन्हीं जानीमानी फ़नकारा की बड़ी बहन हैं। तो दोस्तों छोटी बहन का नाम है- "फ़रीदा खानुम" और बड़ी बहन यानि की आज की फ़नकारा का नाम है "मुख्तार बेग़म"। मु

कभी तन्हाईयों में यूं हमारी याद आएगी....मुबारक बेगम की दर्द भरी सदा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 340/2010/40 फ़ि ल्म संगीत के सुनहरे दौर की कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं को सलाम करते हुए आज हम आ पहुँचे हैं इस ख़ास शृंखला की अंतिम कड़ी पर। अब तक हमने इस शृंखला में क्रम से सुलोचना कदम, उमा देवी, मीना कपूर, सुधा मल्होत्रा, जगजीत कौर, कमल बारोट, मधुबाला ज़वेरी, मुनू पुरुषोत्तम और शारदा का ज़िक्र कर चुके हैं। आज बारी है उस गयिका की जिनके गाए सब से मशहूर गीत के मुखड़े को ही हमने इस शृंखला का नाम दिया है। जी हाँ, "कभी तन्हाइयों में युं हमारी याद आएगी" गीत की गयिका मुबारक़ बेग़म आज 'ओल्ड इस गोल्ड' की केन्द्रबिंदु हैं। मुबारक़ बेग़म के गाए फ़िल्म 'हमारी याद आएगी' के इस शीर्षक गीत को सुनते हुए जैसे महसूस होने लगता है इस गीत में छुपा हुआ दर्द। जिस अंदाज़ में मुबारक़ जी ने "याद आएगी" वाले हिस्से को गाया है, इसे सुनते हुए सचमुच ही किसी ख़ास बिछड़े हुए की याद आ ही जाती है और कलेजा जैसे कांप उठता है। इस गीत में, इसकी धुन में, इसकी गायकी में कुछ ऐसी शक्ति है कि सीधे आत्मा को कुछ देर के लिए जैसे अपनी ओर सम्मोहित कर लेती है और गीत ख़त्म होने क