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सुनो कहानी: पंडित सुदर्शन की कालजयी रचना हार की जीत

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने हरिशंकर परसाई की कहानी " ग्रीटिंग कार्ड और राशन कार्ड " का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं पंडित सुदर्शन की कालजयी रचना " हार की जीत ", जिसको स्वर दिया है शरद तैलंग ने। हार की जीत का टेक्स्ट यहाँ पढ़ा जा सकता है । कहानी का कुल प्रसारण समय 9 मिनट 3 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पंडित सुदर्शन (मूल नाम: पं. बद्रीनाथ भट्ट) (1895-1967) सुनो कहानी के २००९ के अंतिम अंक में शरद जी के स्वर में हार की जीत प्रस्तुत करते हुए मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मैंने जम्मू में पांचवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में पहली बार "हार का जीत" पढी थी। तब से ही इसके लेखक के बारे में जानने की उत्सु

फ़्लैशबैक २००९- नए संगीत कर्मियों का जोर- हिंदी फ़िल्मी/गैरफिल्मी गीत-संगीत पर एक वार्षिक अवलोकन सुजॉय चटटर्जी द्वारा

आप सभी को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार और Merry Christmas! अब बस इस साल में कुछ ही दिन रह गए हैं, और सिर्फ़ इस साल के ही नहीं बल्कि इस पूरे दशक के चंद रोज़ बाक़ी हैं। साल २००९ अगर हमें अलविदा कहने की ज़ोर शोर से तैयारी कर रहा है तो साल २०१० दरवाज़े पर दस्तक भी दे रहा है। हर साल की तरह २००९ भी हिंदी फ़िल्म जगत के लिए मिला जुला साल रहा, बहुत सारी फ़िल्में बनीं, जिनमें से कुछ चले और बहुत सारों के सितारे गरदिश पर ही रहे। जहाँ तक इन फ़िल्मों के संगीत का सवाल है, इस साल कई लोकप्रिय गानें आए जिनमें से कुछ फ़ूट टैपरिंग् नंबर्स थे तो कुछ सूफ़ी रंग में रंगे हुए, कुछ सॊफ़्ट रोमांटिक गानें दिल को छू गए, और बहुत सारे गानें तो कब आए और कब गए पता भी नहीं चला। आइए प्रस्तुत है साल २००९ के फ़िल्म संगीत पर एक लेखा जोखा, हमारी यह विशेष प्रस्तुति 'फ़ैल्शबैक २००९' के अन्तर्गत। हम इस आलेख को शुरु करना चाहेंगे कुछ ऐसे कलाकारों को श्रद्धांजली अर्पित करते हुए जो इस साल हमें छोड़ अपनी अनंत यात्रा पर निकल पड़े हैं। आप हैं फ़िल्मकार शक्ति सामंत , फ़िल्मकार प्रकाश मेहरा , गीतकार गुलशन बावरा , और अभी हा

जाने वाले सिपाही से पूछो...ओल्ड इस गोल्ड का ३०० एपिसोड सलाम करता है देश के वीर जांबाज़ सिपाहियों को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 300 औ र दोस्तों, हमने लगा ही लिया अपना तीसरा शतक। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' आज पूरा कर रहा है अपना ३००-वाँ अंक, और इस मुक़ाम तक पहुँचने में आप सभी के योगदान और प्रोत्साहन की हम सराहना करते हैं कि इस सीरीज़ को यहाँ तक लाने में आप ने हमारा भरपूर साथ दिया। और हर बार की तरह हमें पूरा विश्वास भी है कि आगे भी आपका ऐसा ही साथ बना रहेगा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के साथ। जैसा कि इन दिनों आप सुन रहे हैं शरद तैलंग जी के पसंद के गानें और आज बारी है पाँचवें गीत की, तो आज के इस ख़ास अंक को शरद जी के पसंद के गीत के ज़रिए हम समर्पित करना चाहेंगे हमारे देश के उन वीर जवानों को जो अपना सर्वस्व न्योछावर कर इस मातृभूमि की रक्षा करते हैं, हमारी हिफ़ाज़त करते हैं, इस देश को दुश्मनों से सुरक्षित रखते हैं। आज हम घर में चैन से बस इसलिए सो सकते हैं कि सरहद पर हमारे फ़ौजी भाई जाग रहे होते हैं। देश के वीर जवानों का ऋण किसी भी तरह से चुकाया तो नहीं जा सकता लेकिन यह हमारी छोटी से कोशिश है उन वीरों को सम्मानित करने की, उन शहीदों के आगे नतमस्तक होने की। और इस कोशिश में शरद जी की भी कोशिश शामिल ह

पूरी दुनिया को अपने ताल पर नचाने वाले इन गीतों के साथ मनाईये क्रिसमस और नववर्ष की खुशियाँ

दोस्तों कल है २५ दिसम्बर यानी प्रभु ईसा मसीह का जन्मदिन, जिसे पूरी दुनिया में क्रिसमस के रूप में मनाया जाता है. दूसरी तरफ वर्ष समाप्ति का भी समय है, नववर्ष के स्वागत का भी उल्लास है, ऐसे में हर कोई रोजमर्रा के ताम झाम से कुछ हद छुटकारा पाकर थोड़ी बहुत मस्ती और एन्जॉय करने के बहाने तलाश रहा है. आवाज़ तो हर हाल में आपका मीत ठहरा, तो हमने सोचा कि इन खुशियों भरी पार्टियों में आपके लिए कुछ ऐसे गीत चुन कर बजाये जाएँ, जो किसी देश, प्रदेश या भाषा की दीवारें लांग कर पूरी दुनिया पर कुछ ऐसे छा गए कि पीढ़ियों पीढयों तक लोग उन धुनों पर थिरकते पाए गए. कहते हैं संगीत की कोई भाषा नहीं होती, हमें यकीं है कि इन गीतों के शब्द आपको समझ आये या न आयें, इन्हें सुनकर आपका भी मन झूमने को कर उठेगा. भारतीय मूल के अपेचे इंडियन सुदूर दक्षिण अमेरिका के निवासी जरूर हैं पर उनकी रगों में दौड़ता भारतीय संगीत ही आखिरकार उनकी पहचान बना. छोटे बाल, हलकी मूछें, कानों में कुंडल, रेग्गे और भांगड़ा का उपयुक्त मिश्रण और अप्पेचे बन गए अंतर्राष्ट्रीय सितारे, अपने एक गीत "चोक देयर" से, ९० के दशक में आया ये विडियो ARRANGE

कैसे दिन बीते कैसे बीती रतिया....पंडित रवि शंकर और शैलेन्द्र की जुगलबंदी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 299 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं शरद तैलंग जी के पसंद के पाँच गानें बिल्कुल बैक टू बैक। आज है उनके चुने हुए चौथे गाने की बारी। फ़िल्म 'अनुराधा' से यह है लता जी का गाया "कैसे दिन बीते कैसे बीती रतिया, पिया जाने ना"। इस फ़िल्म का एक गीत हमने 'दस राग दस रंग' शृंखला के दौरान आपको सुनवाया था। याद है ना आपको राग जनसम्मोहिनी पर आधारित गीत " हाए रे वो दिन क्यों ना आए "? फ़िल्म 'अनुराधा' के संगीतकार थे सुविख्यात सितार वादक पंडित रविशंकर, जिन्होने इस फ़िल्म के सभी गीतों में शास्त्रीय संगीत की वो छटा बिखेरी कि हर गीत लाजवाब है, उत्कृष्ट है। इस फ़िल्म में उन्होने राग मंज खमाज को आधार बनाकर दो गानें बनाए। एक है "जाने कैसे सपनों में खो गई अखियाँ" और दूसरा गीत है "कैसे दिन बीते कैसे बीती रतिया", और यही दूसरा गीत पसंद है शरद जी का। शैलेन्द्र की गीत रचना है और लता जी की सुरीली आवाज़। वैसे हम इस फ़िल्म के बारे में सब कुछ "हाए रे वो दिन..." गीत के वक़्त ही बता चुके हैं। यहाँ तक कि फ

ज़िंदगी मेरे घर आना...फ़ाकिर के बोलों पर सुर मिला रहे हैं भूपिन्दर और अनुराधा..संगीत है जयदेव का

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६३ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शामिख जी की पसंद की अंतिम नज़्म लेकर। इस नज़्म को जिन दो फ़नकारों ने अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया है उनमें से एक के बारे में महफ़िल-ए-गज़ल पर अच्छी खासी सामग्री मौजूद है, इसलिए आज हम उनकी बात नहीं करेंगे। हम ज़िक्र करेंगे उस दूसरे फ़नकार या यूँ कहिए फ़नकारा और इस नज़्म के नगमानिगार का, जिनकी बातें अभी तक कम हीं हुई हैं। यह अलग बात है कि हम आज की महफ़िल इन दोनों के सुपूर्द करने जा रहे हैं, लेकिन पहले फ़नकार का नाम बता देना हमारा फ़र्ज़ और जान लेना आपका अधिकार बनता है। तो हाँ, इस नज़्म में जिसने अपनी आवाज़ की मिश्री घोली है, उस फ़नकार का नाम है "भूपिन्दर सिंह"। "आवाज़" पर इनकी आवाज़ न जाने कितनी बार गूँजी है। अब हम बात करते हैं उस फ़नकारा की, जिसने अपनी गायिकी की शुरूआत फिल्म "अभिमान" से की थी जया बच्चन के लिए एक श्लोक गाकर। आगे चलकर १९७६ में उन्हें फिल्म कालिचरण के लिए गाने का मौका मिला। पहला एकल उन्होंने "लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल" के लिए "आपबीती" में गाया। फिर राजेश रोशन के लिए "देश-परद

यही वो जगह है, यही वो फिजायें....किसी की यादों में खोयी आशा की दर्द भरी सदा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 298 श रद तैलंग जी के पसंद के ज़रिए आज बहुत दिनों के बाद हम लेकर आए हैं आशा भोसले और ओ. पी. नय्यर साहब की जोड़ी का एक और सदाबहार नग़मा। फ़िल्म 'ये रात फिर ना आएगी' का यह गीत "यही वो जगह है, ये ही वो फ़िज़ाएँ" इस जोड़ी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण गीत है। बीती पुरानी यादों को उसी जगह पे जा कर फिर से एक बार जी लेने की बातें हैं इस गीत में। एस. एच. बिहारी साहब ने ऐसे जज़्बाती बोल लिखे हैं कि सुन कर दिल भर आता है। इस गीत के साथ हर कोई अपने आप को कनेक्ट कर सकता है। ख़ास कर वो लोग तो ज़रूर महसूस कर पाएँगे जो कभी अपने घर से दूर किसी जगह पर जा कर रहे होंगे और वहाँ पर कई रिश्ते भी बनाएँ होंगे, दोस्त बनाए होंगे, प्यार पाया होगा। और फिर जब उस जगह को छोड़ कर चले जाना पड़ा तो बस यादें ही साथ में वापस गईं। और फिर कई बरस बाद जब उसी जगह पर वापस लौटे तो सब कुछ बदला हुआ सा पाया। अगर कुछ वैसे का वैसा था तो बस दिल में उन बीते दिनों की यादें। "यही पर मेरा हाथ में हाथ लेकर कभी ना बिछड़ने का वादा किया था, सदा के लिए हो गए हम तुम्हारे गले से लगा कर हमें ये कहा था, कभ