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गुड़िया चाहे ना लाना, पप्पा जल्दी आ जाना....बचपन की जाने कितनी यादें समेटे हैं ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 255 औ र दोस्तों, पूर्वी जी के पसंद के गीतों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं उनकी पसंद के पाँचवे और फिलहाल अंतिम गीत पर। यह गीत भले ही बच्चों वाला गाना हो, लेकिन बहुत ही मर्मस्पर्शी है, जिसे सुनते हुए आँखें भर ही आते हैं। परदेस गए अपने पिता के इंतेज़ार में बच्चे किस तरह से आस लगाए बैठे रहते हैं, यही बात कही गई है इस गीत में। जी हाँ, "सात समुंदर पार से, गुड़ियों के बाज़ार से, अच्छी सी गुड़िया लाना, गुड़िया चाहे ना लाना, पप्पा जल्दी आ जाना"। जहाँ एक तरफ़ मासूमियत और अपने पिता के जल्दी घर लौट आने की आस है, वहीं बच्चों की परिपक्वता भी दर्शाता है यह पंक्ति कि "गुड़िया चाहे ना लाना"। आप चाहे कुछ भी ना लाओ हमारे लिए, लेकिन बस आप जल्दी से आ जाओ। आनंद बक्शी के ये सीधे सरल बोल और उस पर लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का सुरीला और दिल को छू लेने वाला संगीत, गीत को वही ट्रीटमेंट मिला जिसकी उसे ज़रूरत थी। और इस गीत के गायक कलाकारों के नामों का उल्लेख भी बेहद ज़रूरी है। लता जी की आवाज़ तो आप पहचान ही सकते हैं जो कि गीत की मुख्य गायिका हैं, लेकिन उनके अतिरिक्त इस गीत

सभ्यता का रहस्य - प्रेमचंद

सुनो कहानी: प्रेमचंद की "सभ्यता का रहस्य" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हिंदी साहित्यकार प्रेमचंद की हृदयस्पर्शी कहानी " घर-जमाई " का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं मुंशी प्रेमचंद की कहानी " सभ्यता का रहस्य ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 15 मिनट 47 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी सभ्यता केवल हुनर के साथ ऐब करने का नाम है। ( प्रेमचंद की "सभ्यता का रहस्य" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्

सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगे...अनंत इंतज़ार की पीड़ा है इस गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 254 पू र्वी जी के पसंद के गानों का लुत्फ़ इन दिनों आप उठा रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। पूर्वी जी के पसंद के इन पाँच गीतों की खासियत यह है कि ये पाँच गानें पाँच अलग गीतकार और पाँच अलग संगीतकारों की रचनाएँ हैं। कमाल अमरोही - ग़ुलाम मोहम्मद, हसरत जयपुरी - दत्ताराम, और राजेन्द्र कृष्ण - मदन मोहन के बाद आज बारी है एक ऐसे गीतकार - संगीतकार जोड़ी की जो फ़िल्म जगत के इस तरह की जोड़ियों में एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह जोड़ी है शक़ील बदायूनी और नौशाद अली की। जी हाँ, आज प्रस्तुत है शक़ील - नौशाद की एक रचना मोहम्मद रफ़ी के स्वर में। फ़िल्म 'दुलारी' का यह गीत है "सुहानी रात ढल चुकी, ना जाने तुम कब आओगे"। १९४९ का साल शक़ील - नौशाद के लिए एक सुखद साल रहा। महबूब ख़ान की फ़िल्म 'अंदाज़', ताजमहल पिक्चर्स की फ़िल्म 'चांदनी रात', तथा ए. आर. कारदार साहब की दो फ़िल्में 'दिल्लगी' और 'दुलारी' इसी साल प्रदर्शित हुई थी और ये सभी फ़िल्मों का गीत संगीत बेहद लोकप्रिय सिद्ध हुआ था। आज ज़िक्र 'दुलारी' का। इस फ़िल्म के

फिर वही शाम वही गम वही तन्हाई है...तलत की आवाज़ में डूबते शाम को तन्हा दिल से उठती टीस

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 253 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं पहेली प्रतियोगिता के तीसरे विजेयता पूर्वी जी के अनुरोध पर एक के बाद एक कुल पाँच गानें। आज है उनके चुने हुए तीसरे गीत की बारी। कल का गीत था ख़ुशरंग, आज उसके ठीक विपरित, यानी कि एक ग़मज़दा नग़मा। है तो ग़मज़दा लेकिन उतना ही मक़बूल और मशहूर जितना कि कोई भी दूसरा ख़ुशनुमा हिट गीत। आज हम सुनने जा रहे हैं तलत महमूद की मख़मली आवाज़ में फ़िल्म 'जहाँ आरा' का गीत "फिर वही शाम वही ग़म वही तन्हाई है, दिल को समझाने तेरी याद चली आई है"। तलत साहब के गाए सब से ज़्यादा हिट गीतों की फ़ेहरिस्त में शुमार होता है इस गीत का। राजेन्द्र कृष्ण के असरदार बोल और मदन मोहन का अमर संगीत। यह अफ़सोस की ही बात है दोस्तों कि मदन मोहन के संगीत वाली फ़िल्में बॉक्स ऒफ़िस पर ज़्यादा कामयाब नहीं हुआ करती थी। लेकिन उन फ़िल्मों का संगीत कुछ ऐसा रूहानी होता था कि ये फ़िल्में केवल अपने गीत संगीत की वजह से ही लोगों के दिलों में हमेशा के लिए बस जाती थी। 'जहाँ आरा' भी एक ऐसी ही फ़िल्म थी। मैने यह कहीं पढ़ा है, पता नहीं सच है

चुन चुन करती आई चिडिया...एक ऐसा गीत जो बच्चों बूढों सब के मन को भाये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 252 पू र्वी जी के अनुरोध पर कल हमने सुने थे संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद की एक बेहतरीन संगीत रचना। आज जो गीत हम सुनने जा रहे हैं वह भी एक कमचर्चित संगीतकार की रचना है। ये हैं दत्ताराम जी। इनके संगीत में हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुने हैं मुकेश की आवाज़ में फ़िल्म 'परवरिश' का गीत "आँसू भरी हैं ये जीवन की राहें"। और आज सुनिए पूर्वी जी के अनुरोध पर फ़िल्म 'अब दिल्ली दूर नहीं' का एक बच्चों वाला गीत "चुन चुन करती आई चिड़िया"। 'अब दिल्ली दूर नही' दत्ताराम की पहली संगीतबद्ध फ़िल्म थी, जो प्रदर्शित हुई सन् १९५७ में। दोस्तों, राज कपूर के फ़िल्मों का संगीत शंकर जयकिशन ही दिया करते थे। दत्ताराम उनके सहायक हुआ करते थे। तो फिर राज साहब ने कैसे और क्यों दत्ताराम को बतौर संगीतकार नियुक्त किया, इसके बारे में विस्तार से दत्ताराम जी ने अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत लोकप्रिय रेडियो कार्यक्रम 'संगीत के सितारों की महफ़िल' में बताया था, आप भी जानिए - " देखिए ऐसा है कि शंकर जयकिशन जहाँ भी जाते थे, हमेशा मैं साथ रहता था। लेकिन ए

मेरी भी इक मुमताज़ थी....मधुकर राजस्थानी के दर्द को अपनी आवाज़ दी मन्ना दा ने..

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५८ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शरद जी की पसंद की पहली नज़्म लेकर। शरद जी ने जिस नज़्म की फ़रमाईश की है, वह मुझे व्यक्तिगत तौर पर बेहद पसंद है या यूँ कहिए कि मेरे दिल के बेहद करीब है। इस नज़्म को महफ़िल में लाने के लिए मैं शरद जी का शुक्रिया अदा करता हूँ। यह तो हुई मेरी बात, अब मुझे "मैं" से "हम" पर आना होगा, क्योंकि महफ़िल का संचालन आवाज़ का प्रतिनिधि करता है ना कि कोई मैं। तो चलिए महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं और उस फ़नकार की बात करते हैं जिनके बारे में मोहम्मद रफ़ी साहब ने कभी यह कहा था: आप मेरे गाने सुनते हैं, मैं बस मन्ना डे के गाने सुनता हूँ। उसके बाद और कुछ सुनने की जरूरत नहीं होती। इन्हीं फ़नकार के बारे में प्रसिद्ध संगीतकार अनिल विश्वास यह ख्याल रखते थे: मन्ना डे हर वह गीत गा सकते हैं, जो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश ने गाये हो लेकिन इनमें कोई भी मन्ना डे के हर गीत को नही गा सकता है। सुनने में यह बात थोड़ी अतिशयोक्ति-सी लग सकती है, लेकिन अगर आप मन्ना दा के गाए गीतों को और उनके रेंज को देखेंगे तो कुछ भी अजीब नहीं लगेगा। मन्ना द

मौसम है आशिकाना, ये दिल कहीं से उनको ऐसे में ढूंढ लाना...आईये सज गयी है महफिल ओल्ड इस गोल्ड की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 251 दो स्तों, शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' जी के बाद एक लम्बे इंतेज़ार के बाद हमें मिली हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड पहेली प्रतियोगिता' के तीसरे विजेयता के रूप में पूर्वी जी। और आज से अगले पाँच दिनों तक हम सुनने जा रहे हैं पूर्वी जी के पसंद के पाँच सदाबहार नग़में। पूर्वी जी ने हमें कुल दस गानें चुन कर भेजे थे, जिनमें से हमने पाँच ऐसे गीतों को चुना है जिनकी फ़िल्मों का कोई भी गीत अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर नहीं बजा है। हमें पूरी उम्मीद है कि पूर्वी जी के पसंद ये गानें आप सभी बेहद एन्जॉय करेंगे, क्योंकि उनका भेजा हुआ हर एक गीत है गुज़रे ज़माने का सदाबहार नग़मा, जिन पर वक़्त का कोई भी असर नहीं चल पाया है। शुरुआत कर रहे हैं लता मंगेशकर के गाए फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' के गीत "मौसम है आशिक़ाना" से। वैसे तो 'पाक़ीज़ा' फ़िल्म का कोई भी गीत ताज़े हवा के झोंके की तरह है जो इतने सालों के बाद भी वही ताज़गी, वही ख़ुशबू लिए हुए है। इन मीठे धुनों को साज़ों से निकालकर फ़ज़ाओं में बिखेरने वाले जादूगर का नाम है ग़ुलाम मोहम्मद। जी हाँ,