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पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी...फाल्के सम्मान पाने के बाद पहली बार पधारे मन्ना दा ओल्ड इस गोल्ड पर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 221 स ब से पुराने संगीत की अगर हम बात करें तो वो है हमारा शास्त्रीय संगीत, जिसका उल्लेख हमें वेदों में मिलता है। चार वेदों में सामवेद में संगीत का व्यापक वर्णन मिलता है। सामवेद ऋग्वेद से निकला है और उसके जो श्लोक हैं उन्हे सामगान के रूप में गाया जाता था। फिर उससे 'जाती' बनी और फिर आगे चलकर 'राग' बनें। ऐसी मान्यता है कि ये अलग अलग राग हमारे अलग अलग 'चक्र' (उर्जाबिंदू) को प्रभावित करते हैं। ये अलग अलग राग आधार बनें शास्त्रीय संगीत का और युगों युगों से इस देश के सुरसाधक इस परम्परा को निरंतर आगे बढ़ाते चले जा रहे हैं, हमारी संस्कृति को सहेजते हुए बढ़े जा रहे हैं। शास्त्रीय संगीत के असर से हमारे फ़िल्म संगीतकार भी बच नहीं पाए हैं और इतिहास गवाह है कि जब भी संगीतकारों ने राग प्रधान गीतों की रचना की है, वे गानें कालजयी बन गए हैं। और ऐसी ही कुछ कालजयी राग प्रधान फ़िल्मी रचनाओं को संजोकर हम आप के लिए आज से अगले दस दिनों तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में ले आए हैं एक ख़ास शृंखला 'दस राग दस रंग'। जैसा कि शीर्षक से ही प्रतीत हो रहा है कि ये दस

पंचलाइट - रेणु

सुनो कहानी: फणीश्वर नाथ "रेणु" की "पंचलाइट" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने नितिन व्यास की आवाज़ में हरिशंकर परसाई की कहानी "बोर" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं हिंदी साहित्यकार पद्मश्री फणीश्वर नाथ "रेणु" की प्रसिद्ध आंचलिक कहानी " पंचलाइट ", जिसको स्वर दिया है कवि, आयोजक, गायक, व्यंग्यकार एवं रंगकर्मी शरद तैलंग ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 10 मिनट 2 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। अपने घर की ढिबरी को भी बिजली-बत्ती कहेंगे और दूसरों के पंचलैट को लालटेन। ~ फणीश्वर नाथ "रेणु" (1921-1977) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी गोधन ने एक बार मुनरी की और देखा। मुनरी की पलकें झुक गयीं। ( फणीश्वर नाथ "रेणु

अल्लाह भी है मल्लाह भी....लता के स्वरों में समायी है सारी खुदाई ..साथ में सलाम है अनिल बिश्वास दा को भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 220 ल ता मंगेशकर के गाए कुछ बेहद पुराने, भूले बिसरे, और दुर्लभ नग़मों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं इस ख़ास शृंखला 'मेरी आवाज़ ही पहचान है' की अंतिम कड़ी में। पिछले नौ दिनों आप ने नौ अलग अलग संगीतकारों की धुनों पर लता जी की सुरीली आवाज़ सुनी, आज जिस संगीतकार की रचना हम पेश करने जा रहे हैं वो एक ऐसे संगीतकार हैं जिन्हे फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के संगीतकारों का भीष्म पितामह कहा जाता है। आप हैं अनिल बिस्वास (विश्वास)। एक बार जब उन्हे किसी ने फ़िल्मी संगीतकारों का भीष्म पितामह कह कर संबोधित किया तो उन्होने उसे सुधारते हुए कहा था कि 'R.C. Boral is the father of film music directors, I am only the uncle'| यह सच ज़रूर है कि न्यु थियटर्स के आर. सी. बोराल, तिमिर बरन, पंकज मल्लिक, के. सी. डे जैसे संगीतकारों ने फ़िल्मों में सुगम संगीत की नींव रखी, लेकिन जब सुनहरे युग की बात चलती है तो उसमें अनिल बिस्वास का ही नाम सब से पहले ज़हन में आता है। ख़ैर, इस पर हम फिर कभी बहस करेंगे, आज ज़िक्र लता जी और अनिल दा का। अनिल दा उन संगीतकारों में से हैं जिन्होने लता

ये खेल होगा नहीं दुबारा...बड़ी हीं मासूमियत से समझा रहे हैं "निदा" और "जगजीत सिंह"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५० म हफ़िल-ए-गज़ल की जब हमने शुरूआत की थी, तब हमने सोचा भी नहीं था कि गज़लों का यह सफ़र ५०वीं कड़ी तक पहुँचेगा। लेकिन देखिए, देखते हीं देखते वह मुकाम भी हमने हासिल कर लिया। यह आप सबके प्यार और हौसला-आफ़ज़ाई के कारण हीं मुमकिन हो पाया है, नहीं तो हर बार कुछ नया लाना इतना आसान नहीं होता। उम्मीद है कि हम आपकी उम्मीदों पर खड़े उतर रहे हैं। हर बार आपके लिए कुछ नया लाने में हमारा भी बड़ा फ़ायदा है। न जाने ऐसे कितने नगीने हैं जो मिट्टी-तले दबे रहते हैं और उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए हम हर बार आपके सामने आते रहते हैं। आपने जिस तरह हमारा आज तक साथ दिया है, बस यही इल्तज़ा है कि आगे भी साथ बने रहिएगा। इसी दुआ के साथ पिछली कड़ी के अंकों का खुलासा करते हैं। तो हिसाब कुछ यूँ बनता है: सीमा जी: ४ अंक, शामिख जी: २ अंक और शरद जी: १ अंक। अब बारी है आज के प्रश्नों की| ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: हम आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब आज के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख मे

दर्द-ए-उल्फ़त छुपाऊँ कहाँ....लता ने किया एक मासूम सवाल शंकर जयकिशन के संगीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 219 गी तकार शैलेन्द्र, संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन और गायिका लता मंगेशकर की जब एक साथ बात चलती है तो इतने सारे मशहूर, हिट और शानदार गीत एक के बाद एक ज़हन में आते जाते हैं कि जिनका कोई अंत नहीं। चाहे राज कपूर की फ़िल्मों के गानें हों या किसी और फ़िल्मकार के, इस टीम ने 'बरसात' से जो सुरीली बरसात शुरु की थी उसकी मोतियों जैसी बूँदें हमें आज तक भीगो रही है। लेकिन ऐसे बेशुमार हिट गीतों के बीच बहुत से ऐसे गीत भी समय समय पर बने हैं जो उतनी ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हुए और इन हिट गीतों की चमक धमक में इनकी मंद ज्योति कहीं गुम हो गई, खो गई, लोगों ने भुला दिया, समय ने उन पर पर्दा डाल दिया। ऐसा ही एक गीत आज के अंक में सुनिए। फ़िल्म 'औरत' का यह गीत है "दर्द-ए-उल्फ़त छुपाऊँ कहाँ, दिल की दुनिया बसाऊँ कहाँ"। बड़ा ही ख़ुशरंग और ख़ुशमिज़ाज गीत है यह जिसमें है पहले पहले प्यार की बचैनी और मीठे मीठे दर्द का ज़िक्र है। मज़ेदार बात यह है कि बिल्कुल इसी तरह का गीत शंकर जयकिशन ने अपनी पहली ही फ़िल्म 'बरसात' में लता जी से गवाया था। याद है न आपको हसरत साहब का

मेक ए विश...कह रहे हैं अमिताभ...इस दिवाली मांग ही डालिए कुछ अपने जिन्नी से

ताजा सुर ताल (26) दोस्तों आज ताजा सुर ताल में मैं सजीव सारथी अकेला ही हूँ आपके स्वागत के लिए क्योंकि आपके प्रिय होस्ट सुजॉय दुर्गा पूजा की खुशियाँ अपने परिवार के साथ बांटने घर गए हुए है....खैर आज मैं जो गीत आपको सुनवाने जा रहा हूँ, वो एक "रैप" सोंग है, रैप यानी एक सधे हुए पेटर्न पर गीत की पंक्तियों को तेजी से बोलना, बरसों पहले अशोक कुमार ने फिल्म आशीर्वाद के लिए "रेलगाडी" गीत गाया था कुछ इसी अंदाज़ में, याद है न ?, पता नहीं उस ज़माने में इसे रैप ही कहते थे या कुछ और....पाश्चात्य संगीत की इस मशहूर संगीत परंपरा को हिन्दुस्तान में बाबा सहगल ने अपने "ठंडा ठंडा पानी" से लोकप्रिय बनाया..बाद में रहमान ने भी कुछ गीतों में रैप का इस्तेमाल किया....आजकल तो ये लगभग हर गीत का हिस्सा बन चूका है. आज कल लगभग हर दूसरे गीत हिप होप बनाने के लिए उसमें कुछ अंग्रेजी शब्दों का मायाजाल बुनकर उसे रैप शैली में गवा दिया जाता है. खैर हमने जो आज का गीत चुना है वो कोई मामूली रैप नहीं है..पूछिए क्यों ... जी हाँ, ये रैप कोई इंसान नहीं बल्कि एक जिन्नी का है, "जिन्नी" ? अरे आप जि

रात के राही थम न जाना....लता की पुकार, साहिर के शब्दों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 218 'मे री आवाज़ ही पहचान है' शृंखला की आज की कड़ी में लता जी के जिस दुर्लभ नग़मे की बारी है, उसके गीतकार और संगीतकार हैं साहिर लुधियानवी और सचिन देव बर्मन, जिन्होने एक साथ बहुत सारी फ़िल्मों के गानें बनाए हैं। और लगे हाथ आप को यह भी बता दें कि बहुत जल्द हम इस गीतकार- संगीतकार जोड़ी के गीतों से सजी एक पूरी की पूरी शृंखला आप की सेवा में प्रस्तुत करने जा रहे हैं। तो आज जिस गीत को हमने चुना है, या युं कहें कि आज के लिए जिस गीत को लता जी के अनन्य भक्त नागपुर निवासी अजय देशपाण्डे ने हमें चुन कर भेजा है, वह गीत है फ़िल्म 'बाबला' का, "रात के राही थक मत जाना, सुबह की मंज़िल दूर नहीं"। एक बहुत ही आशावादी गीत है जिसके हर एक शब्द में यही सीख दी गई है कि दुखों से इंसान को कभी घबराना नहीं चाहिए, हर रात के बाद सुबह को आना ही पड़ता है। इस तरह आशावादी रचनाएँ बहुत सारी यहाँ बनी हैं और जिनमें से बहुत सारे बेहद लोकप्रिय भी हुए हैं। लेकिन फ़िल्म 'बाबला' के इस गीत को बहुत ज़्यादा नहीं सुना गया है और समय के साथ साथ मानो इस गीत पर धूल सी जम गयी है। आ