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चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों....साहिर ने लिखा यह यादगार गीत.

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 180 श रद तैलंग जी के फ़रमाइशी गीतों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं उनकी पसंद के पाँचवे और अंतिम गीत पर, और साथ ही हम छू रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के १८०-वे अंक को। आज का गीत है निर्माता-निर्देशक बी. आर चोपड़ा की फ़िल्म 'गुमराह' का "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनो", जिसे महेन्द्र कपूर ने गाया है। इससे पहले भी हम ने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इसी फ़िल्म का एक और गीत आप को सुनवाया था महेन्द्र कपूर साहब का ही गाया हुआ, "आप आए तो ख़याल-ए-दिल-ए-नाशाद आया" । इस फ़िल्म के बारे में तमाम जानकारी आप उस आलेख में पढ़ सकते हैं। आज चलिए बात करते हैं महेन्द्र कपूर की। अभी पिछले ही साल २७ सितंबर के दिन महेन्द्र कपूर का देहावसान हो गया। वो एक ऐसे गायक रहे हैं जिनकी गायकी के कई अलग अलग आयाम हैं। एक तरफ़ अगर ख़ून को देश भक्ति के जुनून से गर्म कर देनेवाले देशभक्ति के गीत हैं, तो दूसरी तरफ़ शायराना अंदाज़ लिए नरम-ओ-नाज़ुक प्रेम गीत, एक तरफ़ जीवन दर्शन और आशावादी विचारों से ओत-प्रोत नग़में हैं तो दूसरी तरफ़ ग़मगीन टूटे दिल की सदा भी उनकी आ

रविवार सुबह की कॉफी और एक फीचर्ड एल्बम पर बात दीपाली "दिशा" के साथ

सफलता और शोहरत किसी उम्र की मोहताज नहीं होती. अगर हमारी मेहनत और प्रयास सच्चे व सही दिशा में हों तो व्यक्ति किसी भी उम्र में सफलता और शोहरत की बुलंदियों को छू सकता है. सोनू निगम एक ऐसी शख्सियत है जिन्होंने सफलता के कई पायदान पार किये हैं. उन्होंने अपने बहुमुखी व्यक्तित्व को प्रर्दशित किया है. गायन के साथ-साथ सोनू निगम ने अभिनय व माडलिंग भी की है. यद्यपि अभिनय में उन्हें अधिक सफलता नहीं मिली, किन्तु गायन के क्षेत्र में वह शिखर पर विराजित हैं. उन्होंने गायकी छोड़ी नहीं है. वो आज भी संगीतकारों की पहली पसंद हैं. उनकी आवाज में कशिश व गहराई है. वह कई बार गाने के मूड के हिसाब से अपनी आवाज में बदलाव भी लाते हैं जो उनके हरफनमौला गायक होने का परिचय देता है. अपनी पहली एल्बम 'तू' के जरिये वो युवा दिलों के सरताज बन गए थे. उसके बाद उनकी एल्बम 'दीवाना' और 'यादें' आयीं, जिनके गीतों और गायकी की छाप आज भी हमारे जहन में है. अगर सोनू निगम द्वारा गाये गीतों की सूची बनाएं तो पायेंगे कि उन्होंने अपने बेहतरीन अंदाज से सभी गीतों में जान डाल दी है. ऐसा लगता है कि वो गीत सोनू की आवाज के

कौन कहे इस ओर तू फिर आये न आये, मौसम बीता जाए... कैसे एक गीत समा गयी जीवन की तमाम सच्चाइयाँ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 179 दो स्तों, इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आप सुन रहे हैं शरद तैलंग जी के अनुरोध पर एक के बाद एक कुल पाँच गानें। तीन गानें हम सुन चुके हैं, आज है चौथे गीत की बारी। यह एक ऐसा गीत है जो जुड़ा हुआ है हमारी मिट्टी से। इस गीत को सुनते हुए मन कहीं सुदूर गाँव में पहुँच जाता है जहाँ पर सावन की पहली फुहार के आते ही किसान और उनके परिवार के सदस्य जी जान से लग जाते हैं बीज बुवाई के काम में। "धरती कहे पुकार के, बीज बिछा ले प्यार के, मौसम बीता जाए"। फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' का यह गीत मन्ना डे, लता मंगेशकर और साथियों की आवाज़ों में है जिसे लिखा है शैलेन्द्र ने और संगीतकार हैं सलिल चौधरी ने। इसी फ़िल्म का एक और समूह गीत "हरियाला सावन ढोल बजाता आया" हमने अपनी कड़ी नं. ९१ में सुनवाया था, और उसके साथ साथ इस फ़िल्म से जुड़ी तमाम जानकारियाँ भी हमने आप को दी थी, जिनका आज हम दोहराव नहीं करेंगे। सलिल दा की कुछ धुनें बहुत ही मीठी, नाज़ुक सी हुआ करती थी, कुछ धुनों में पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत की झलक मिलती थी, और उनके कुछ गानें ऐसे थे जिनमें झलकते थे क

बूढ़ी काकी - प्रेमचंद

सुनो कहानी: मुंशी प्रेमचंद की "बूढी काकी" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में मुंशी प्रेमचन्द की कहानी "कातिल" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द की मार्मिक कथा " बूढ़ी काकी ", जिसको स्वर दिया है नीलम मिश्रा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 12 मिनट 28 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) स्वतन्त्रता दिवस पर विशेष प्रस्तुति ( प्रेमचंद की "बूढ़ी काकी" से एक अंश ) बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। ख़ूब लाल-लाल, फूली-फूली, नरम-नरम होंगीं। रूपा ने भली-भाँति

तकदीर का फ़साना जाकर किसे सुनाएँ...संगीतकार रामलाल का यह गीत दिल चीर कर निकल जाता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 179 अ भी परसों आप ने संगीतकार वी. बल्सारा का स्वरबद्ध किया हुआ फ़िल्म 'विद्यापति' का गीत सुना था। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल अक्सर सज उठती है ऐसे ही कुछ कमचर्चित संगीतकार और गीतकारों के अविस्मरणीय गीत संगीत से। वी. बल्सारा के बाद आज भी हम एक ऐसे ही कमचर्चित संगीतकार की संगीत रचना लेकर उपस्थित हुए हैं। रामलाल चौधरी। संगीतकार रामलाल का ज़िक्र हमने इस शृंखला में कम से कम दो बार किया है, एक, फ़िल्म 'नवरंग' के गीत के वक़्त , जिसमें उन्होने शहनाई बजायी थी, और दूसरी बार फ़िल्म 'गीत गाया पत्थरों ने' के गीत में , जिसमें उनका संगीत था। उनके संगीत से सजी केवल दो ही फ़िल्मों ने सफलता की सुबह देखी, जिनमें से एक थी 'गीत गाया पत्थरों ने', और उनकी दूसरी मशहूर फ़िल्म थी 'सेहरा'। आज सुनिये इसी 'सेहरा' का एक बेहद मक़बूल गीत मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में - "तक़दीर का फ़साना जाकर किसे सुनायें, इस दिल में जल रही है अरमानों की चितायें". 'विद्यापति' और 'सेहरा' के इन दो गीतों में कम से कम तीन समानतायें हैं

आज जाने की जिद न करो......... महफ़िल-ए-गज़ल में एक बार फिर हाज़िर हैं फ़रीदा खानुम

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३८ १४ अगस्त को गोकुल-अष्टमी और १८ अगस्त को गुलज़ार साहब के जन्मदिवस के कारण आज की महफ़िल-ए-गज़ल पूरे डेढ हफ़्ते बाद संभव हो पाई है। कोई बात नहीं, हमारी इस महफ़िल का उद्देश्य भी तो यही है कि किसी न किसी विध भूले जा रहे संगीत को बढावा मिले। हाँ तो, डेढ हफ़्ते के ब्रेक से पहले हमने दिशा जी की पसंद की दो गज़लें सुनी थीं। आप सबको शायद यह याद हो कि अब तक हमने शरद जी की फ़ेहरिश्त से दो गज़लों का हीं आनंद लिया है। तो आज बारी है शरद जी की पसंद की अंतिम नज़्म की। आज हम जिस फ़नकारा की नज़्म को लेकर हाज़िर हुए हैं, उनकी एक गज़ल हमने पहले भी सुनी हुई है। जनाब "अतर नफ़ीस" की लिखी " वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया " को हमने महफ़िल-ए-गज़ल की २६वीं कड़ी में पेश किया था। उस कड़ी में हमने इन फ़नकारा की आज की नज़्म का भी ज़िक्र किया था और कहा था कि यह उनकी सबसे मक़बूल कलाम है। इन फ़नकारा के बारे में अपने ब्लाग सुख़नसाज़ पर श्री संजय पटेल जी कहते हैं कि ग़ज़ल गायकी की जो जागीरदारी मोहतरमा फ़रीदा ख़ानम को मिली है वह शीरीं भी है और पुरकशिश भी. वे जब गा रही हों तो दिल-दिमाग़ मे ए

अब के बरस भेज भैया को बाबुल....एक अमर गीत एक अमर फिल्म से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 178 श रद तैलंग जी के पसंद पर कल आप ने फ़िल्म 'विद्यापति' का गीत सुना था लता जी की आवाज़ में, आज सुनिए लता जी की बहन आशा जी की आवाज़ में फ़िल्म संगीत के सुनहरे युग का एक और सुनहरा नग़मा। ससुराल में ज़िंदगी बिता रही हर लड़की के दिल की आवाज़ है यह गीत "अब के बरस भेज भ‍इया को बाबुल सावन में लीजो बुलाए रे, लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ, दीजो संदेसा भिजाए रे"। हमारे देश के कई हिस्सों में यह रिवाज है कि सावन के महीने में बहू अपने मायके जाती हैं, ख़ास कर शादी के बाद पहले सावन में। इसी परम्परा को इन ख़ूबसूरत शब्दों में ढाल कर गीतकार शैलेन्द्र ने इस गीत को फ़िल्म संगीत का एक अनमोल नगीना बना दिया है। इस गीत को सुनते हुए हर शादी-शुदा लड़की का दिल भर आता है, बाबुल की यादें, अपने बचपन की यादें एक बार फिर से तर-ओ-ताज़ा हो जाती हैं उनके मन में। देश की हर बहू अपना बचपन देख पाती हैं इस गीत में। फ़िल्म 'बंदिनी' का यह गीत फ़िल्माया गया था नूतन पर। 'बंदिनी' सन् १९६३ की एक नायिका प्रधान फ़िल्म थी जिसका निर्माण व निर्देशन किया था बिमल राय ने। जरासंध