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"ऐसा कोई जिंदगी से वादा तो नहीं था..."- उस्ताद अमजद अली खान के संगीत का सतरंगी वादा

बात एक एल्बम की (८) फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - वादा फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - उस्ताद अमजद अली खान, गुलज़ार, रूप कुमार राठोड, साधना सरगम. "बात एक एल्बम की" का एक नया महीना है और हम हाज़िर हैं एक नयी एल्बम के साथ. इस माह की एल्बम में हैं चार दिग्गज फनकार, जो सभी के सभी अपने अपने क्षेत्र में महारत रखते हैं. जहाँ संगीतकार हों उस्ताद अमजद अली खान जैसे, गीतकार हों गुलज़ार साहब जैसे, गायक हों रूप कुमार राठोड और गायिका हों साधना सरगम जैसी तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि एल्बम किस स्तर की होगी. जी हाँ ये एल्बम है -"वादा". सच्चे और अच्छे संगीत का वादा ही तो है ये नायाब एल्बम जिसका एक एक गीत हमारा दावा है, आपके अन्तर्मन में कुछ यूं उतर जायेगा कि उसका खुमार उम्र भर नहीं उतरेगा. दरअसल इस पूरी टीम में जो नाम सबसे ज्यादा चौंकाता है वो निसंदेह उस्ताद अमजद अली खान साहब का ही है. अपने सरोद वादन से लगभग ४० सालों से भी अधिक समय से दुनिया भर के संगीत के कद्रदानों को मंत्रमुग्ध करने वाला ये महान फनकार एक व्यावसायिक एल्बम का हिस्सा बने, जरा विचित्र लगता है. पर खान साहब के क्या कहने, इतने

ये कैसी अजब दास्ताँ हो गयी है...छुपाते छुपाते बयाँ हो गयी है...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 99 क ल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हमने सुनी थी नूरजहाँ की आवाज़। आज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मे भी कल जैसी ही बात है क्यूंकि आज भी हम एक ऐसी 'सिंगिंग स्टार' की आवाज़ आप तक पहुँचा रहे हैं जो अपने ज़माने की सबसे महँगी अभिनेत्री हुआ करती थीं। ४० के दशक की इस मशहूर अदाकारा और गायिका का असर कुछ यूँ था कि उनकी एक झलक पाने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। एक बार इस अदाकारा की एक फ़िल्म का 'प्रिमीयर' का मौका था, सिनेमाघर के बाहर लोगों की ख़ासी भीड़ जमा हो गयी थी। तो जब ये अदाकारा अंदर जाने लगीं तो लोग उनसे हाथ मिलाने के लिए बेताब हो उठे। हालात बिगड़ते देख वहाँ पुलिस बुलायी गयी। भीड़ को सम्भालने के लिए लाठी-चार्ज भी करना पड़ा। इसके बाद से इस अदाकारा ने फ़िल्मों के 'प्रिमीयर' में जाना ही बंद कर दिया। इसी से इस अदाकारा के चाहनेवालों की दीवानगी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। अपनी ख़ूबसूरती, लाजवाब अभिनय और बेहद सुरीली आवाज़ वाली इस 'सिंगिंग स्टार' को हम और आप सुरैय्या के नाम से जानते हैं। ४० के दशक की इस लाजवाब 'सिंगिंग स्टार'

एक हीं बात ज़माने की किताबों में नहीं... महफ़िल-ए-ज़ाहिर और "फ़ाकिर"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१७ कु छ गज़लें ऐसी होती हैं,जिन्हें आप हर दिन सुनते हैं,हर पल सुनना चाहते हैं, और बस सुनते हीं नहीं, गुनते भी हैं,लेकिन आपको उस गज़ल के गज़लगो की कोई जानकारी नहीं होती। कई सारे लोग तो उस गज़ल के गायक को हीं "गज़ल" का रचयिता माने बैठे होते हैं। "जगजीत सिंह" साहब की ऐसी हीं एक गज़ल है- "वो कागज़ की कस्ती,वो बारिश का पानी"- मेरे मुताबिक हर किसी ने इस गज़ल को सुना होगा, मैंने भी हज़ारों बार सुना है। लेकिन इसके गज़लगो, इसके शायर का नाम मुझे तब पता चला, जब उस शायर ने अपनी अंतिम साँस ले ली। जिस तरह पिछले अंक में मैंने "खुमार" साहब के बारे में कहा था कि वे हमेशा "गुमनाम" हीं रहे, आज के शायर के बारे में भी मैं ऐसा हीं कुछ कहना चाहता हूँ। लेकिन हाँ ठहरिये, इतनी सख्त बात कहने की गुस्ताखी मैं आज नहीं करूँगा। दर-असल हर शायर का अपना प्रशंसक-वर्ग होता है, जिसके लिए वह शायर कभी "गुमनाम" नहीं होता। शायद ऐसे हीं एक प्रशंसक(नाम जानने के लिए पिछले अंक की टिप्पणियों को देखें) को मेरी बात बुरी लग गई। इसलिए आज के शायर के बारे में मैं

जवाँ है मोहब्बत हसीं है ज़माना...यादें है इस गीत में मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 98 आ ज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' बहुत ख़ास है क्योंकि आज हम इसमे एक ऐसी आवाज़ आप तक पहुँचा रहे हैं जो ४० के दशक मे घर घर गली गली गूँजा करती थी। १९४७ में देश के बँटवारे के बाद वो फनकारा पाक़िस्तान चली गयीं और पीछे छोड़ गयीं अपनी आवाज़ का वो जादू जिन्हे आज तक सुनते हुए हमारे कान नहीं थकते और ना ही उनकी आवाज़ को कोई भुला ही पाया है. लताजी के आने से पहले यही आवाज़ थी हमारे देश की धड़कन, जी हाँ, हम बात कर रहे हैं मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ की। नूरजहाँ की आवाज़ उस ज़माने मे इतनी लोकप्रिय थी कि उन दिनों हर उभरती गायिका उन्हे अपना आदर्श बनाकर पार्श्वगायन के क्षेत्र में क़दम रखती थीं। यहाँ तक कि अगर हम सुरकोकिला लताजी के शुरुआती दो चार फ़िल्मों के गानें सुनें तो उनमें भी नूरजहाँ का अंदाज़ साफ़ झलकता है। यह बेहद अफ़सोस की बात है हम भारतवासियों के लिए कि स्वाधीनता के बाद नूरजहाँ अपने पति शौकत अली के साथ पाक़िस्तान जा बसीं जिससे कि हमारी यहाँ की फ़िल्में उनकी आवाज़ के जादू से वंचित रह गयीं। कहते हैं कि कला की कोई सीमा नहीं होती और ना ही कोई सरहद इसे रोक पायी है। नूरजहाँ की

Y2K: पार्श्वगायन के नए दौर में प्रतिभाओं का अम्बार

भूमिका हिंदी फ़िल्म संगीत के हर दौर में कुछ निर्दिष्ट गायकों ने राज किया है और हर पीढ़ी में हम गिने चुने गायकों का नाम भी ले सकते हैं जो अपने दौर में पूरी तरह से छाये रहे, अपने दौर का जिन्होने प्रतिनिधित्व किया। लेकिन आज फ़िल्म संगीत का जो दौर चला है, उसमें एक दम से इतने सारे नये गायक आ गये हैं कि हिसाब रखना मुश्किल हो रहा है कि कौन सा गीत किस गायक ने गाया है। बहुत ही कम समय में इतने सारे गायकों के आ जाने से जहाँ एक तरफ़ प्रतियोगिता बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है, वहीं दूसरी तरफ़ नयी नयी आवाज़ों से फ़िल्म संगीत में एक नयी ताज़गी भी आयी है। कुछ भी हो, इतना ज़रूर साफ़ है कि इन बहुत सारी आवाज़ों में वही आवाज़ें बहुत आगे तक जा पायेंगी जिनमें कुछ अलग हटके बात हो! एक समय ऐसा था जब नये गायक पुराने ज़माने के दिग्गज गायकों की आवाज़ को अपनी गायिकी का आधार बनाकर इस क्षेत्र में क़दम रखते थे और सफलता भी हासिल करते थे, लेकिन आज उस तरह से बात बिल्कुल नहीं बनेगी। आज वही आवाज़ मशहूर है जो दूसरों से अलग है, जुदा है। यह एक अच्छा लक्षण है कि आज के युवा गायक शुरु से ही अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश कर रहे हैं। &q

तेरे ख्यालों में हम...तेरी ही बाहों में हम... डुबो देती है आशा अपनी आवाज़ में इस गीत के सुननेवालों को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 97 दो स्तों, अभी कुछ दिन पहले हमने आपको वी.शांताराम की फ़िल्म 'नवरंग' का गीत सुनवाया था " तू छूपी है कहाँ, मैं तड़पता यहाँ " और बताया था कि इस गीत को रामलाल चौधरी की शहनाई के लिए भी याद किया जाता है। आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' भी रामलाल के संगीत से जुड़ा हुआ है मगर बतौर शहनाई वादक नहीं बल्कि बतौर संगीतकार। रामलाल भले ही साज़िंदे और सहायक के रूप में ज़्यादा जाने जाते हैं, उन्होने दो-चार फ़िल्मों में संगीत भी दिया है, और उन्ही में से एक मशहूर फ़िल्म का एक गीत लेकर हम आज उपस्थित हुए हैं। इससे पहले कि आपको उस फ़िल्म और उस गीत के बारे में बतायें, रामलाल से जुड़ी कुछ बातें आपको बताना चाहेंगे। बतौर स्वतंत्र संगीतकार रामलाल को पहला मौका दिया था फ़िल्मकार पी. एल. संतोषी ने। साल था १९५० और फ़िल्म थी 'तांगावाला'। राज कपूर और वैजयंतीमाला अभिनीत इस फ़िल्म के कुल ६ गानें रामलाल बना चुके थे लेकिन दुर्भाग्यवश फ़िल्म आगे बनी नहीं। और रामलाल एक बार फिर फ़िल्म संगीत जगत में बतौर साज़िंदे बाँसुरी और शहनाई बजाने लगे। इसके बाद सन् १९५२ मे उनके हाथ एक ब

इस बार का कवि सम्मेलन रश्मि प्रभा के संग

सुनिए पॉडकास्टिंग के इस नए प्रयोग को रश्मि प्रभा नमस्कार! दोस्तो, हम एक फिर हाज़िर हैं इस माह के आपके अंतिम रविवार और अंतिम दिन को इंद्रधनुषी बनाने के लिए। जी हाँ, आपको भी इसका पूरे एक महीने से इंतज़ार होगा। तो इंतज़ार की घड़िया ख़त्म। सुबह की चाय पियें और साथ ही साथ हमारे इस पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का रस लेते रहें, जिसमें भावनाओं और अभिव्यक्तियों के विविध रंग समाहित हैं। सुबह की चाय के साथ ही क्यों, इसका आनंद शाम की शिकंजी के साथ भी लें। पिछले महीने हमें रश्मि प्रभा के रूप में साहित्य-सेवा की एक नई किरण मिलीं हैं। कविता-मंच पर ये कविताएँ तो लिख ही रही हैं, इस बार के कवि-सम्मेलन के संयोजन का दायित्व भी इन्हीं ने सम्हाला है। और आगे भी अपनी ओर से बेहतरीन प्रयास करते रहने का वचन दिया है। इस बार के कवि सम्मेलन की सबसे ख़ास बात यह है कि इस बार दुनिया के अलग-अलग कोनों से कुल 19 कवि हिस्सा ले रहे हैं। संचालिका को लेकर यह संख्या 20 हो जाती है। और यह इत्तेफाक ही है कि इस बार जहाँ 10 महिला कवयिता हैं, वहीं 10 पुरुष कवयिता। कम से कम इस स्तर पर रश्मि प्रभा स्त्री-पुरुष समानता के तत्व को मूर्त करने म