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सफल 'हुई' तेरी आराधना...शक्ति सामंत पर विशेष (भाग 1)

ज़िन्दगी की आख़िरी सच्चाई है मृत्यु। जो भी इस धरती पर आता है, उसे एक न एक दिन इस फ़ानी दुनिया को छोड़ कर जाना ही पड़ता है। लेकिन कुछ लोग यहाँ से जा कर भी नहीं जाते, हमारे दिलों में बसे रहते हैं, हमेशा हमेशा के लिए, और जिनकी यादें हमें रह रह कर याद आती हैं। अपनी कला और प्रतिभा के ज़रिये ऐसे लोग कुछ ऐसा अमिट छाप छोड़ जाते हैं इस दुनिया में कि जो मिटाये नहीं मिट सकते। उनका यश इतना अपार होता है कि सूरज चाँद की तरह जिनकी रोशनी युगों युगों तक, बल्कि अनंतकाल तक प्रकाशमान रहती है। ऐसे ही एक महान कलाकार, फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध निर्माता एवं निर्देशक शक्ति सामंत अब हमारे बीच नहीं रहे। गत ९ अप्रैल को मुंबई में ८३ वर्ष की आयु में उन्होने इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह कर अपनी अनंत यात्रा पर चले गये। लेकिन वो हमेशा जीवंत रहेंगे, हमारे दिलों में सदा राज करेंगे अपनी अनगिनत मशहूर फ़िल्मों और उन 'हिट' फ़िल्मों के सुमधुर गीतों के ज़रिये। मेरी तरफ़ से, 'आवाज़' की तरफ़ से, और 'आवाज़' के सभी पाठकों तथा श्रोताओं की तरफ़ से स्वर्गीय शक्ति सामंत को हम श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं। ग

सुनो कहानी: प्रेमचंद की 'मंदिर और मस्जिद'

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'मंदिर और मस्जिद' 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में ' मंटो की एक लघुकथा' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रेमचंद की अमर कहानी मंदिर और मस्जिद , जिसको स्वर दिया है लन्दन निवासी कवयित्री शन्नो अग्रवाल ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 28 मिनट और 12 सेकंड। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी इतना ही नहीं, उनके बगीचे में एक पंडित बारहों मॉस दुर्गा-पाठ भी किया करते थे. ( प्रेमचंद की 'मंदिर और मस्जिद' से एक अ

ठंडी हवा काली घटा आ ही गयी झूम के....गीता दत्त की पुकार पर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 48 आ ज के 'ओल्ड इस गोल्ड' में हम एक ऐसा गीत लेकर आए हैं जिसे सुन कर आप खुश हो जाएँगे. भाई, मुझे तो यह गीत बेहद पसंद है और जब भी कभी मैं इस गीत को सुन लेता हूँ तो दिल में एक खुशी की लहर सी दौड जाती है. आज की परेशानियाँ भरी ज़िंदगी में यह गीत कुछ देर के लिए ही सही लेकिन हमारे होंठों पे मुस्कान लाने में कोई कसर नहीं छोड़ता. ठंडी हवाओं और काली घटाओं पर बहुत सारे गाने आज तक बने हैं, लेकिन यह गीत भीड से अलग अपनी एक मज़बूत पहचान रखता है. मिस्टर & मिसिस 55 फिल्म का यह गीत ओपी नय्यर के संगीत और मजरूह के बोलों से सज़ा है. यूँ तो इस गीत के गायिकाओं में गीता दत्त और साथियों का नाम दर्ज किया गया है, लेकिन इस गीत में शामिल आवाज़ें अपने आप में कई राज़ छुपाये हुए है. इसमें कोई दोराय नहीं कि गीता दत्त की ही आवाज़ मुख्य रूप से सुनाई देती है, लेकिन गौर से अगर आप यह गीत सुने तो कम से कम दो और अलग आवाज़ें भी आप आसानी से महसूस कर सकते हैं, ख़ास कर गीत के शुरूआती मुखड़े में ही. गीत कुछ इस तरह से शुरू होता है... पहली आवाज़: ठंडी हवा दूसरी आवाज़: काली घटा तीसरी आवाज़: आ ही

नसीर और "फिराक" की बातें

दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा ने बहुत से कलाकार दिए है सिनेमा जगत को पर एक नाम जो इनमें सबसे अहम् है वो है नसीरूदीन शाह का. नसीर अदाकारी का आफताब है. अभिनय की ऐसी रेंज बहुत कम कलाकारों में देखने को मिलती है. जिस दौरान नसीर फिल्मों में आये, उस दौर में व्यवसायिक फिल्मों में अभिनय को कम और "स्टार वैल्यू" को अधिक तरजीह दी जाती थी पर ऐसा भी नहीं था कि सोचपूर्ण और अर्थवान फिल्मों के कद्रदान नहीं थे. यही वो दौर था जब कलात्मक फिल्में जिन्हें समान्तर फिल्मों ने भी अपने चरम को छुआ. श्याम बेनेगल, कुंदन शाह, केतन मेहता, सईद मिर्जा, मुज़फ्फ़र अली, प्रकाश झा, महेश भट्ट सरीखे निर्देशकों ने और नसीर, ओम् पूरी, शबाना आज़मी, और स्मिता पाटिल जैसे दिग्गज फनकारों ने सिनेमा को व्यवस्यिकता की अंधी दौड़ में गुम होने से बचा लिया. इनमें से नसीर ने अभिनय का एक लम्बा सफ़र तय किया है. उनकी सबसे ताजा फिल्म है - फिराक. आगे बढ़ें इससे पहले सुनिए इसी फिल्म से रेखा भारद्वाज की आवाज़ में दर्द की कसक- "मिर्च मसाला" में तानाशाह सूबेदार की भूमिका हो, या "पार" में नौरंगिया का जटिल किरदार हो,

आज की ताजा खबर... बरसों पुराना यह गीत आज के मीडिया राज में कहीं अधिक सार्थक है.

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 47 अ गर मैं आप से यह पूछूँ कि क्या आप ने "नन्हा मुन्ना राही हूँ, देश का सिपाही हूँ" गीत सुना है या नहीं, तो शायद ही आप में से किसी का जवाब नहीं में होगा. लेकिन अगर मैं आप से इस गीत की गायिका का नाम पूछूँ तो शायद आप में से कुछ लोग इनका नाम ना बता पाएँ. इस कालजयी देश भक्ति गीत को गाया था बाल गायिका शांति माथुर ने, और यह "सन ऑफ इंडिया" फिल्म का गाना है. ज़रा सोचिए कि केवल एक देशभक्ति गीत गाकर ही उन्होने अपनी ऐसी छाप छोडी है कि आज वो गीत ही उनकी पहचान बनकर रह गया है. आज हम 'ओल्ड इस गोल्ड' में यह गाना तो नहीं, लेकिन इसी फिल्म से शांति माथुर का ही गाया हुआ एक दूसरा गीत सुनवा रहे हैं. शांति माथुर का शुमार बेहद कमचर्चित गायिकाओं में होता है और उनके बारे में बहुत कम सुना और कहा गया है. दरअसल दो एक फिल्मों के अलावा इन्होने किसी फिल्म में नहीं गाया है और ना ही बडी होने के बाद फिल्मी गायन के क्षेत्र में वापस आईं हैं. अगर हम यह मानकर चलें कि 1962 की फिल्म सन ऑफ इंडिया के वक़्त उनकी उम्र 10 साल रही होगी, तो आज वो अपने 50 के दशक में होंगीं और हम उन

जां अपनी, जांनशीं अपनी तो फिर फ़िक्र-ए-जहां क्यों हो...बेगम अख्तर और आशा ताई एक साथ.

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०३ ग़ मे-हस्ती, ग़मे-बस्ती, ग़मे-रोजगार हूँ, ग़म की जमीं पर गुमशुदा एक शह्रयार हूँ। बात इतनी-सी है कि दिन जलाने के लिए सूरज को जलना हीं पड़ता है। अब फ़र्क इतना हीं है कि वह सूरज ता-उम्र,ता-क़यामत खुद को बुलंद रख सकता है, लेकिन एक अदना-सा-इंसान ऎसा कर सके, यह मुमकिन नहीं। जलना किसी की भी फितरत में नहीं होता, लेकिन कुछ की किस्मत हीं गर्म सुर्ख लोहे से लिखी जाती है, फिर वह जले नहीं तो और क्या करे। वहीं कुछ को अपनी आबरू आबाद रखने के लिए अपनी हस्ती को आग के सुपूर्द करना होता है। यारों, इश्क एक ऎसी हीं किस्मत है, जो नसीब से नसीब होती है, लेकिन जिनको भी नसीब होती है, उनकी हस्ती को मु्ज़्तरिब कर जाती है। जिस तरह सूरज जमीं के लिए जलता है, उसी तरह इश्क में डूबा शख़्स अपने महबूब या महबूबा के लिए सारे दर्द-औ-ग़म सहता रहता है। और ये दर्द-औ-ग़म उसे कहीं और से नहीं मिलते,बल्कि ये सारे के सारे इसी जहां के जहांपनाहों के पनाह से हीं उसकी झोली में आते हैं। सच हीं है कि: राह-ए-मोहब्बत के अगर मंजिल नहीं ग़म-औ-अज़ल, जान लो हाजी की किस्मत में नहीं ज़मज़म का जल। अपने जमाने के मशहूर शायर "

जो चला गया उसे भूल जा....मुकेश की आवाज़ में गूंजता दर्द

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 46 गा यक मुकेश ने सबसे ज़्यादा संगीतकार कल्याणजी आनंदजी और शंकर जयकिशन के लिए लोकप्रिय गीत गाए हैं, और कई गीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए भी. संगीतकार नौशाद के मनपसंद गायक थे मोहम्मद रफ़ी जिनसे उन्होने अपने सबसे ज़्यादा गाने गवाए. लेकिन कुछ गीत ऐसे भी हैं नौशाद साहब के जिन्हे मुकेश ने गाए हैं. एक ऐसी ही फिल्म है "साथी" जिसमें मुकेश ने कई गीत गाए. इन्ही में से एक गीत आज हम आप को सुनवा रहे हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' में. फिल्म "साथी" आई थी सन 1968 में. दक्षिण के निर्माता वीनस कृष्णमूर्ती की यह फिल्म थी जिसके लिए उन्होने नौशाद और मजरूह सुल्तानपुरी को गीत संगीत का भार सौंपा गया. इस फिल्म में सबसे लोकप्रिय गीत लताजी ने गाए - "मेरे जीवन साथी कली थी मैं तो प्यासी", "यह कौन आया रोशन हो गयी महफ़िल" और "मैं तो प्यार से तेरे पिया माँग सजाउंगी". मुकेश और सुमन कल्याणपुर का गाया "मेरा प्यार भी तू है यह बहार भी तू है" भी सदाबहार नग्मों में शामिल होता है. लेकिन इस फिल्म में मुकेश की आवाज़ में 3 गाने ऐसे भी हैं जिन्ह