Skip to main content

Posts

अनमोल बना रहने को कब टूटा कंचन...महादेवी वर्मा को आवाज़ का नमन

छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में महादेवी वर्मा एक हैं !इनका जन्म उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में एक संपन्न कला -प्रेमी परिवार में सन् १९०७ में होली के दिन हुआ !महादेवी जी अपने परिवार में लगभग २०० वर्ष बाद पैदा होने वाली लड़की थी! इसलिए उनके जन्म पर सबको बहुत प्रसन्नता हुई !अपने संस्मरण `मेरे बचपन के दिन' में उन्होंने लिखा है कि,"मैं उत्पन्न हुई तो मेरी बड़ी खातिर हुई और मुझे वह सब नहीं सहन करना पड़ा जो अन्य लड़कियों को सहना पड़ता है !"इनके बाबा (पिता)दुर्गा के भक्त थे तथा फ़ारसी और उर्दू जानते थे !इनकी माता जी जबलपुर कि थीं तथा हिंदी पढ़ी लिखी थीं !वे पूजा पाठ बहुत करती थी !माताजी ने इन्हें पंचतंत्र पढना सिखाया था तथा बाबा इन्हें विदुषी बनाना चाहते थे !इनका मानना है कि बाबा की पढ़ाने की इच्छा और विरासत में मिले सांस्कृतिक आचरण ने ही इन्हें लेखन की प्रवर्ति की ओर अग्रसर किया !इनकी आरंभिक शिक्षा इंदौर में हुई !माता के प्रभाव ने इनके ह्रदय में भक्ति -भावना के अंकुर को जन्म दिया !मात्र ९ वर्ष की उम्र में ये विवाह -बंधन में बांध गयीं थीं !विवाह के उपरांत भी इनका अध्ययन चलता रह

रात के हमसफ़र थक के घर को चले....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 45 श क्ति सामंता एक ऐसे फिल्मकार थे जिन्हे हमेशा यह मालूम होता था कि लोग किस तरह की फिल्म देखना पसंद करते हैं. और यही वजह थी कि उनकी ज़्यादातर फिल्में सफल रहीं. 1964 में शम्मी कपूर और शर्मिला टैगोर को लेकर "कश्मीर की कली" बनाने के बाद वो इन दोनो को लेकर एक ऐसी फिल्म का निर्माण करना चाहते थे जो किसी विदेशी शहर की पृष्ठभूमि पर आधारित हो. शक्ति बाबू ने पैरिस को चुना और अपने फिल्म का शीर्षक "अन इवनिंग इन पैरिस" रखने का निश्चय किया. एक मुलाक़ात में उन्होने कहा था कि इस फिल्म की कहानी में कोई ख़ास बात नहीं थी. लेकिन दोस्तों, किसी साधारण कहानी को लेकर ऐसी सफल फिल्म बनाना भी तो एक ख़ास बात ही है. फिल्म की कहानी के अनुसार इस फिल्म का संगीत भी पाश्चात्य रंग में रंगा हुआ होना था. और उस ज़माने में पाश्चात्य 'ऑर्केस्ट्रेशन' के लिए शंकर जयकिशन का नाम सबसे उपर आता था. बस, फिर क्या था! शक्ति सामंता ने इस फिल्म के संगीत के लिए शंकर जयकिशन को नियुक्त किया, और इस जोडी के साथ साथ गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी भी शामिल हो गये. यूँ तो इस फिल्म के ज़्याद

मैं और मेरा साया - भूपेन दा का एक नायाब एल्बम.

बात एक एल्बम की # ०१ फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - भूपेन हजारिका. फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - मैं और मेरा साया, - भूपेन हजारिका (गीत अनुवादन - गुलज़ार) दोस्तों आज बात एक ऐसी शख्सियत की हो रही है जिनके बारे में कुछ कहने में ढेरों मुश्किलों से साक्षत्कार होना पड़ता है. इस एक शख्स में कई शख्सियत समायी हुई है ।बुद्धिजीवी संगीतकार, उत्कृष्ट गायक, सवेदनशील कवि, अभिनेता, लेखक, निर्देशक, समाज सेवक और न जाने कितने रूप. दोस्तों मै दादा साहेब फाल्के सम्मान से सम्मानित डॉक्टर भूपेन हजारिका के बारे में बात कर रहा हूँ .जब भी हिन्दी सिने जगत में लोकसंगीत की बात आएगी तो भूपेन दा के का नाम शीर्ष पर रहेगा. उन्होंने अपने संगीत के जरिये आसाम की मिट्टी की सोंधी खुश्बू कायनात में घोल दी है. बचपन में पिता शंकर देव का उपदेश ज्यादातर गेय रूप में प्राप्त होता था. उन्ही दिनों उनके मन में संगीत ने अपना घर बना लिया और वे ज्योति प्रसाद अग्रवाल, विष्णु प्रसाद शर्मा और फणी शर्मा जैसे संगीतविदों के संपर्क में आकर लोकगीत की तालीम लेने लगे। भूपेन दा के आवाज़ में वह बंजारापन है जो उस्तादों से लेकर आम जन -जन को अपने गिर

मुखड़े पे गेसू आ गए आधे इधर आधे उधर...किशोर कुमार की मीठी शिकायत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 44 दो स्तों, कुछ दिन पहले 'ओल्ड इस गोल्ड' में हमने आपको किशोर कुमार का गाया और सी रामचंद्र का संगीतबद्ध किया हुआ फिल्म "आशा" का मशहूर गीत सुनवाया था "ईना मीना डीका". यह गीत किशोर और सी रामचंद्र की जोडी का शायद सबसे लोकप्रिय गीत रहा है. यूँ तो इस गायक - संगीतकार की जोडी ने साथ साथ बहुत ज़्यादा काम नहीं किया, लेकिन एक और ऐसी फिल्म है जिसमें इन दोनो ने अपने अपने हुनर के जलवे दिखाए, और वो फिल्म है "पायल की झंकार". आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में एक बार फिर से किशोर कुमार और सी रामचंद्र को सलाम करते हुए आप की खिदमत में हम लेकर आए हैं पायल की झंकार फिल्म का एक बडा ही अनूठा सा गीत जिसे आपने बहुत दिनों से शायद सुना नहीं होगा. क़मर जलालाबादी ने इस गीत को लिखा था. सन 1966 में बनी फिल्म "पायल की झंकार" के मुख्य कलाकार थे किशोर कुमार, राजश्री और ज्योति लक्ष्मी. इसी शीर्षक से राजश्री प्रोडक्शन ने 1980 में एक फिल्म बनाई थी, और 1980 की इस फिल्म में गायिका अलका याग्निक ने अपना पहला हिन्दी फिल्मी गीत गाया था. बहरहाल 1980 से हम वाप

आबिदा और नुसरत एक साथ...महफिल-ए-ग़ज़ल में

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०२ उ नकी नज़र का दोष ना मेरे हुनर का दोष, पाने को मुझको हो चला है इश्क सरफ़रोश। इश्क वो बला है जो कब किस दिशा से आए, किसी को पता नहीं होता। इश्क पर न जाने कितनी हीं तहरीरें लिखी जा चुकी हैं, लेकिन इश्क को क्या कोई भी अब तक जान पाया है। पहली नज़र में हीं कोई किसी को कैसे भा जाता है, कोई किसी के लिए जान तक की बाजी क्यों लगा देता है और तो और इश्क के लिए कोई खुद की हस्ती तक को दाँव पर लगा देता है। आखिर ऎसा क्यों है? अगर इश्क के असर पर गौर किया जाए तो यह बात सभी मानेंगे कि इश्क इंसान में बदलाव ला देता है। इंसान खुद के बनाए रस्तों पर चलने लगता है और खुद के बनाए इन्हीं रस्तों पर खुदा मिलते हैं। कहते भी हैं कि "जो इश्क की मर्जी वही रब की मर्जी " । तो फिर ऎसा क्यों है कि इन खुदा के बंदों से कायनात की दुश्मनी ठन जाती है। तवारीख़ गवाह है कि जिसने भी इश्क की निगेहबानी की है, उसके हिस्से में संग(पत्थर) हीं आए हैं। सरफ़रोश इश्क इंसान को सरफ़रोश बना कर हीं छोड़ता है,वहीं दूसरी ओर खुदा के रसूल हीं खुदा के शाहकार को पाप का नाम देने लगते हैं: संग-दिल जहां मुझसे भले हीं अलहदा

निगाहें मिलाने को जी चाहता है...एक श्रेष्ठ फ़िल्मी कव्वाली

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 43 ज हाँ तक फिल्मी क़व्वालियों का सवाल है, तो फिल्म संगीत में क़व्वाली को लोकप्रिय बनाने में संगीतकार रोशन का महत्वपूर्ण और सराहनीय योगदान रहा है. यूँ तो उनसे पहले भी फिल्मों में कई क़व्वालियाँ आईं, लेकिन उनमें फिल्मी रंग की ज़रा कमी सी थी जिसकी वजह से वो आम जनता में लोकप्रिय तो हुए लेकिन वो मुकाम हासिल ना कर सके जो दूसरे साधारण गीतों ने किये. रोशन ने क़व्वालियों में वो फिल्मी अंदाज़, वो फिल्मी रंग भरा जो सुननेवालों के दिलों पर ऐसा चढा कि आज तक उतरने का नाम नहीं लेता. हुआ यूँ कि एक बार रोशन ने पाकिस्तान में एक क़व्वाली सुन ली "यह इश्क़ इश्क़ है". यह उन्हे इतनी पसंद आई कि अनुमति लेकर उन्होने इस क़व्वाली को अपनी अगली फिल्म "बरसात की रात" में शामिल कर लिया. यह क़व्वाली इतना लोकप्रिय हुई कि अगली फिल्म "दिल ही तो है" में निर्माता ने उनसे एक और ऐसी ही क़व्वाली की माँग कर बैठे. और एक बार फिर से रोशन ने अपने इस हुनर का जलवा बिखेरा "निगाहें मिलाने को जी चाहता है" जैसी क़व्वाली बनाकर. जी हाँ, आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में सुनिए यह

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (1)

सुनिए १९४९ में आयी फिल्म "बाज़ार" से लता के कुछ दुर्लभ गीत रविवार की अलसाई सुबह का आनंद और बढ़ जाता है जब सुबह सुबह की कॉफी के साथ कुछ ऐसे दुर्लभ गीत सुनने को मिल जाएँ जिसे कहीं गाहे बगाहे सुना तो था, पर फिर कभी सुनने का मौका नहीं मिला - एक पुराना मौसम लौटा , यादों की पुरवाई भी, ऐसा तो कम ही होता है, वो भी हो तन्हाई भी... चलिए आपका परिचय कराएँ आवाज़ के एक संगीत प्रेमी से. अजय देशपांडे जी नागपुर महाराष्ट्र में रहते हैं, आवाज़ के नियमित श्रोता हैं और जबरदस्त संगीत प्रेमी हैं. लता मंगेशकर इनकी सबसे प्रिय गायिका है, और रोशन साहब को ये संगीतकारों में अव्व्वल मानते हैं. मानें या न मानें इनके पास १९३५ से लेकर १९६० तक के लगभग ८००० गीतों का संकलन उपलब्ध है, जाहिर है इनमें से अधिकतर लता जी के गाये हुए हैं. आवाज़ के श्रोताओं के साथ आज वो बंटाना चाहते हैं १९४९ में आई फिल्म "बाज़ार" से लता और रफी के गाये कुछ बेहद मधुर गीत. फिल्म "बाज़ार" में संगीत था श्याम सुंदर का, दरअसल १९४९ का वर्ष श्याम सुंदर के लिए सर्वश्रेष्ठ रहा, "बाज़ार" के आलावा "लाहौर" म