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आपको देख कर देखता रह गया...- जगजीत की गायिकी को शिशिर का सलाम

अभी कुछ दिनों पहले हमने आपको सुनवाया था शिशिर पारखी की रेशमी आवाज़ में जिगर मुरादाबादी का कलाम. जैसा कि हमने आपको बताया था कि शिशिर इन दिनों अपने अफ्रीका दौरे पर हैं जहाँ वो अपनी ग़ज़लों से श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर रहे हैं. पर वहां भी वो प्रतिदिन आवाज़ को पढना नहीं भूलते. बीते सप्ताह नारोबी (दक्षिण अफ्रीका) में हुए एक कंसर्ट में उन्होंने जगजीत सिंह साहब की एक खूबसूरत ग़ज़ल को अपनी आवाज़ दी जिसकी रिकॉर्डिंग आज हम आपके लिए लेकर आये हैं. जगजीत की ये ग़ज़ल अपने समय में बेहद मशहूर हुई थी और आज भी इसे सुनकर मन मचल उठता है. कुछ शेर तो इस ग़ज़ल में वाकई जोरदार हैं. बानगी देखिये - उसकी आँखों से कैसे छलकने लगा, मेरे होंठों पे जो माज़रा रह गया.... और ऐसे बिछडे सभी रात के मोड़ पर, आखिरी हमसफ़र रास्ता रह गया... गौरतलब है कि अभी पिछले सप्ताह ही आवाज़ पर अनीता कुमार ने जगजीत सिंह पर दो विशेष आलेख प्रस्तुत किये थे, आज सुनिए शिशिर पारखी की आवाज़ में मूल रूप से जगजीत की गाई ये ग़ज़ल -

अपने जीवन की उलझन को कैसे मैं सुलझाऊं...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 32 दो स्तों, क्या आप ने कभी सोचा है कि हिन्दी फिल्म संगीत के इस लोकप्रियता का कारण क्या है? क्यूँ यह इतना लोकप्रिय माध्यम है मनोरंजन का? मुझे ऐसा लगता है कि फिल्म संगीत आम लोगों का संगीत है, उनकी ज़ुबान है, उनके जीवन से ही जुडा हुआ है, उनके जीवन की ही कहानी का बयान करते हैं. ज़िंदगी का ऐसा कोई पहलू नहीं जिससे फिल्म संगीत वाक़िफ़ ना हो, ऐसा कोई जज़्बात या भाव नहीं जिससे फिल्म संगीत अंजान रह गया हो. और यही वजह है कि लोग फिल्म संगीत को सर-आँखों पर बिठाते हैं, उन्हे अपने सुख दुख का साथी मानते हैं. सिर्फ़ खुशी, दर्द, प्यार मोहब्बत, और जुदाई ही फिल्म संगीत का आधार नहीं है, बल्कि समय समय पर हमारे फिल्मकारों ने ऐसे ऐसे 'सिचुयेशन्स' अपने फिल्मों में पैदा किये हैं जिनपर गीतकारों ने भी अपनी पूरी लगन और ताक़त से जानदार और शानदार गीत लिखे हैं. किसी के ज़िंदगी में जब कोई उलझन आ जाती है, जब अपने ही पराए बन जाते हैं, तो बाहरवालों से भला क्या कहा जाए! तो दिल से शायद कुछ ऐसी ही पुकार निकलती है कि "अपने जीवन की उलझन को कैसे मैं सुलझाऊं, अपनों ने जो दर्द दिए हैं कैसे

ए आर रहमान और ढेरों युवा संगीत कर्मियों के जोश को समर्पित एक गीत

ए आर रहमान का ऑस्कर जीतना पूरे भारत के युवा संगीत कर्मियों के लिए एक अनूठी प्रेरणा बन गया है. पहले हमारे संगीत योद्धा जो अब तक फिल्म फेयर या रास्ट्रीय पुरस्कारों के सपने सजाते थे अब उनमें साहस आ गया है कि वो बड़े अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों के भी ख्वाब देख पा रहे हैं. उनमें अब ये यकीन भर गया है कि अब उनका मंच एक "ग्लोबल औडिएंस" का है और उनके यानी भारतीय अंदाज़ के संगीत के श्रोता और कद्रदान देश विदेश में फैले भारतीय ही नहीं बल्कि वो विदेशी श्रोता भी हैं जो अब तक भारतीय विशेषकर लोकप्रिय भारतीय फिल्म और गैर फ़िल्मी संगीत से जी चुराते थे. "It is being an interesting Journey till now. I have come across criticism, flattery, highs and lows" - A.R. Rahman. ए आर के इसी वक्तव्य से प्रेरित होकर आवाज़ के एक संगीत कर्मी प्रदीप पाठक ने एक गीत रचा, प्रदीप पाठक इन्टरनेट पर ही मिले संगीतकार सागर पाटिल ने जब इसे पढ़ा तो वो उसे स्वरबद्ध करने के लिए प्रेरित हुए. पुनीत देसाई ने इसे अपनी आवाज़ दी और इस तरह मात्र इंटरनेटिया प्रयासों से तैयार हुआ संगीत के बादशाह ए आर रहमान को स

सुन मेरे बन्धू रे, सुन मेरे मितवा....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 31 कि सी सुदूर अनजाने गाँव की धरती से गुज़रती हुई नदी, उसकी कलकल करती धारा, दूर दिखाई देती है एक नाव, और कानो में गूंजने लगते हैं उस नाव पर बैठे किसी मांझी के सुर. अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए वो अपनी ही धुन में गाता चला जाता है. दोस्तों, शहरों में अपने 'कॉंक्रीट' के 'अपार्टमेंट' में रहकर शायद हम ऐसे दृश्य का नज़ारा ना कर सके, लेकिन एक गीत ऐसा है जिसे सुनकर आप उसी नज़ारे को ज़रूर महसूस कर पाएँगे, वही नदी, वही नाव और उसी मांझी की तस्वीर आपकी आँखों के सामने आ जाएँगे, यह हमारा विश्वास है. और वही गीत लेकर आज हम हाज़िर हुए हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' की इस महफ़िल में. भटियाली संगीत, यानी कि बंगाल के नाविकों का संगीत. नाव चलाते वक़्त वो जिस अंदाज़ में और सुर में गाते हैं उसी को भटियाली संगीत कहा जाता है. और बंगाल के लोक संगीत के इसी अंदाज़ में सचिन देव बर्मन ने इस क़दर महारत हासिल की है कि उनकी आवाज़ में इस तरह का गीत जैसे जीवंत कर देता है उसी मांझी को हमारी आँखों के सामने. 1959 में फिल्म "सुजाता" में बर्मन दादा ने ऐसा ही एक गीत गाया था.

'स्माइल पिंकी' वाले डॉ॰ सुबोध सिंह का इंटरव्यू

सुनिए हज़ारों बाल-जीवन में स्माइल फूँकने वाले सुबोध का साक्षात्कार वर्ष २००९ भारतीय फिल्म इतिहास के लिए बहुत गौरवशाली रहा। ऑस्कर की धूम इस बार जितनी भारत में मची, उतनी शायद ही किसी अन्य देश में मची हो। मुख्यधारा की फिल्म और वृत्तचित्र दोनों ही वर्गों में भारतीय पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों ने अपनी रौनक दिखाई। स्लमडॉग मिलिनेयर की जय हुई और स्माइल पिंकी भी मुस्कुराई। और उसकी इस मुस्कान को पूरी दुनिया ने महसूस किया। मीडिया में 'जय हो' का बहुत शोर रहा। कलमवीरों ने अपनी-अपनी कलम की ताकत से इसके खिलाफ मोर्चा सम्हाला। हर तरफ यही गुहार थी कि 'स्माइल पिंकी' की मुस्कान की कीमत मोतियों से भी महँगी है। हमें अफसोस है कि यह सोना भारतीय नहीं सँजो पा रहे हैं। कलमकारों की यह चोट हमें भी लगातार मिलती रही। इसलिए हिन्द-युग्म की नीलम मिश्रा ने डॉ॰ सुबोध सिंह का टेलीफोनिक साक्षात्कार लिया और उनकी तपस्या की 'स्माइल' को mp3 में सदा के लिए कैद कर लिया। ये वही डॉ॰ सुबोध हैं जो महज ४५ मिनट से दो घंटे के ऑपरेशन में 'जन्मजात कटे होंठ और तालु' (क्लेफ्ट लिप) से ग्रसित बच्चों की जिंदगियाँ

पिया पिया न लागे मोरा जिया...आजा चोरी चोरी....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 30 दो स्तों, कुछ गीत ऐसे होते हैं जो केवल एक मुख्य साज़ पर आधारित होते हैं. उदाहरण के तौर पर कश्मीर की कली का गाना "है दुनिया उसी की ज़माना उसी का" केवल 'सेक्साफोन' पर आधारित है. इस गीत के संगीतकार थे ओपी नय्यर. नय्यर साहब ने ऐसे ही कुछ और गीतों में भी सिर्फ़ एक मुख्य साज़ का इस्तेमाल किया है. उनके संगीत की खासियत भी यही थी की वो '7-पीस ऑर्केस्ट्रा' से उपर नहीं जाते थे. इसी तरह का एक गीत था फिल्म "फागुन" में जिसमें केवल बाँसुरी का मुख्य रूप से इस्तेमाल हुआ. फिल्म फागुन के सभी गीतों में बाँसुरी सुनाई पड्ती है जिन्हे बजाया था उस ज़माने के मशहूर बाँसुरी वादक सुमंत राज ने. तो आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में आप सुनने जा रहे हैं फिल्म फागुन का वही गीत जिसमें है सुमंत राज की मधुर बाँसुरी की तानें, ओपी नय्यर का दिलकश संगीत, और आशा भोंसले की मनमोहक आवाज़. और अब इस फिल्म के गीत संगीत से जुडी कुछ बातें हो जाए? यह फिल्म बनी थी सन 1958 में. बिभूति मित्रा द्वारा निर्मित एवं निर्देशित इस फिल्म में भारत भूषण और मधुबाला ने मुख्य किरदार निभाए.

क्या नील नितिन मुकेश में भी हैं गायिकी के गुण ?

सप्ताह की संगीत सुर्खियाँ (14) आ देखें ज़रा किसमें कितना है दम - नील की चुनौती गायिकी के सरताज रहे मुकेश के सुपुत्र नितिन मुकेश ने भी गायिकी में ठीक ठाक मुकाम हासिल किया, पर बहुत अधिक कामियाब नहीं रह पाए तो उनके बेटे और सदाबहार मुकेश के पोते नील ने अभिनय का रास्ता चुना, "जोंनी गद्दार" में अपने शानदार अभिनय से नील ने एक लम्बी पारी की उम्मीद जगाई है. अब उनकी आने वाली नयी त्रिल्लर फिल्म "आ देखें ज़रा" में नील मात्र अभिनय नहीं कर रहे हैं, बल्कि अपने खानदान की परंपरा निभाते हुए उन्होंने इस फिल्म का शीर्षक गीत भी खुद ही गाया है, जो कि वास्तव में एक पुराने गीत "आ देखें ज़रा किस में कितना है दम" का नया वर्ज़न है. नील इस गीत के माध्यम से आर डी बर्मन और किशोर दा को अपनी श्रद्धांजली देना चाहते हैं. नील के दामन में इस वक़्त आदित्य चोपडा की "न्यू यार्क", मधुर भंडारकर की "जेल" और सुधीर मिश्रा की "तेरा क्या होगा जोंनी" जैसी फिल्में हैं. देखना ये होगा कि क्या इनमें से किसी फिल्म में भी श्रोताओं को उनकी गायिकी का नमूना देखने को मिलेगा. भारत