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खिलखिलाती याद, मुस्कुराती याद, बिगड़ी हुई सी वो चिढ़ाती याद

दूसरे सत्र के २४वें गीत का विश्वव्यापी उद्घाटन हिन्द-युग्म के १०वें गीत ' खुशमिज़ाज मिट्टी ' के बोलों ने आवाज़ के श्रोताओं पर सर चढ़कर बोला। यह ज़ादू किया था गौरव सोलंकी के गीत ने। गौरव सोलंकी जो हिन्द-युग्म के दूसरे यूनिकवि और पाठकों के सबसे प्रिय कवि भी हैं। आज हम जो २४वाँ गीत 'चाँद का आँगन' लेकर आये हैं, उसके बोल भी गौरव ने लिखे हैं। गीत को स्वरबद्ध किया है ग्वालियर निवासी कुमार आदित्य विक्रम ने। कुमार आदित्य विक्रम की आवाज़ में हमने इन्हीं के कवि पिता डॉ॰ महेन्द्र भटनागर की कविता का पॉडकास्ट प्रसारित किया था, तब ही आवाज़ की टीम ने यह जान लिया था कि इस संगीतकार-गायक के पास कविताओं को कम्पोज़ करने का हुनर है। इसलिए हमने सबसे पहले हमने इन्हें गौरव सोलंकी की कविता 'चाँद कला आँगन' कम्पोज करने के लिए दी। आइए सुनते हैं यह गीत- कुमार आदित्य गौरव सोलंकी When Hind-Yugm released its this session 10th song 'Khushmizaz Mitti' , the lyrics of this song had rocked. This magic was of Hind-Yugm's famous writer and poet Gaurav Solanki's creation. Now this

आम आदमी की रगों में दौड़ता एक कवि प्रदीप

11 दिसंबर को इनकी 10वीं पुण्यतिथि पर विशेष। कविता, गीत या फिर लेखन की कोई और विधा हो, वो तभी मुकम्मल होती है जब वो सभी सरहदें लांघ कर एक देश से दूसरे देश और दूसरे देश से तीसरे देश तक जा पहुंचे। यद्यपि ऐसे रचनाकारों की गिनती बहुत कम है, लेकिन उन रचनाकारों में एक अग्रणी नाम प्रख्यात कवि और गीतकार प्रदीप का आता है। मध्य प्रदेश में जन्मा यह कवि 11 दिसंबर 1998 को हमें छोड़कर चला गया तो सबकी आंखें नम तो हुई लेकिन प्रदीप की रचनाएँ हर देशवासी और साहित्यप्रेमी की रगों में दौड़ती रही और यह रवानगी का सफर निरंतर चलते रहने वाला है। उनकी रचनाएं उस समय भी देशवासियों में वही जोश भर रही थी जब ताज पर कुछ आतंकियों ने खूनी खेल खेला था, जो जोश आज़ादी के समय अंग्रेज़ों के खिलाफ प्रदीप की रचनाओं ने भरा था। प्रदीप के कुछ मशहूर गीत आज हिमालय की चोटी (क़िस्मत) ऐ मेरे वतन के लोगो आओ बच्चे तुम्हें दिखाएँ (जागृति) हम लाये हैं तूफान से(जागृति) साबरमती के संत तूने (जागृति) ऊपर गगन विशाल (मशाल) कितना बदल गया इंसान (नास्तिक) छोटी सी उम्र में लिखने का शौक प्रदीप को ऐसा चढ़ा कि उनका गीत "हिमालय की चोटी से

एक प्यार का नग्मा है...कुछ यादें जो साथ रह गई...

सितम्बर ३, १९४० को गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में जन्में प्यारेलाल (लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जोड़ी के) का बचपन बेहद संघर्षभरा रहा. उनका माँ का देहांत छोटी उम्र में ही हो गया था. उनके पिता पंडित रामप्रसाद जी ट्रम्पेट बजाते थे और चाहते थे कि प्यारेलाल वोयलिन सीखे. पिता के आर्थिक हालात ठीक नही थे, वे घर घर जाते थे जब भी कहीं उन्हें बजाने का मौका मिलता था और साथ में प्यारे को भी ले जाते. उनका मासूम चेहरा सबको आकर्षित करता था. एक बार पंडित जी उन्हें लता जी के घर लेकर गए. लता जी प्यारे के वोयलिन वादन से इतनी खुश हुई कि उन्होंने प्यारे को ५०० रुपए इनाम में दिए जो उस जमाने में बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी. वो घंटों वोयलिन का रीयाज़ करते. अपनी मेहनत के दम पर उन्हें मुंबई के रंजीत स्टूडियो के ओर्केस्ट्रा में नौकरी मिल गई जहाँ उन्हें ८५ रुपए मासिक वेतन मिलता था. अब उनके परिवार का पालन इन्हीं पैसों से होने लगा. उन्होंने एक रात्रि स्कूल में सातवें ग्रेड की पढाई के लिए दाखिला लिया पर ३ रुपये की मासिक फीस उठा पाने की असमर्थता के चलते छोड़ना पड़ा. मुश्किल हालातों ने भी उनके हौसले कम नही किए, वो बहुत महत्वकांक्षी थे

वो जब याद आए बहुत याद आए...

जब सोनू निगम ने जलाए गीतों के दीप एल पी के लिए हिन्दी फ़िल्म संगीत के सबसे सफलतम संगीत जोड़ी के लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल का एक साधारण स्तर से उठ कर इतने बड़े मुकाम तक पहुँचने की दास्तान भी कम दिलचस्प नही है. दोनों लगभग १०-१२ साल के रहे होंगे जब मंगेशकर परिवार द्वारा बच्चों के लिए चलाये जाने वाले संगीत संस्थान, सुरील कला केन्द्र में वो पहली बार एक दूसरे के करीब आए (हालांकि वो एक स्टूडियो में पहले भी मिल चुके थे). दरअसल लक्ष्मीकांत को एक कंसर्ट में मँडोलिन बजाते देख प्रभावित हुई लता दी ने ही उन्हें इस संस्था में दाखिल करवाया था. वहीँ प्यारेलाल ने अपने गुरु पंडित राम प्रसाद शर्मा से trumpet और गोवा के अन्थोनी गोंसाल्विस (जी हाँ ये वही हैं जिनके लिए उन्होंने फ़िल्म अमर अकबर एंथोनी का वो यादगार गीत समर्पित किया था) से वोयालिन बजाना सीखा वो भी मात्र ८ साल की उम्र में. वोयालिन के लिए उनका जनून इस हद तक था कि वो दिन में ८ से १२ घंटे इसका रियाज़ करते थे. दोनों बहुत जल्दी दोस्त बन गए दोनों का जनून संगीत था और दोनों के पारिवारिक और वित्तीय हालात भी लगभग एक जैसे थे. लता जी ने उन्हें नौशाद साहब, एस

लक्ष्मीकांत प्यारेलाल से लक्ष्मी प्यारे..और आज के एल पी तक...एक सुनहरा अध्याय

३७ लंबे वर्षों तक श्रोताओं को दीवाना बनाकर रखने वाले इस संगीत जोड़ी को अचानक ही हाशिये पर कर दिया गया. आखिर ऐसा क्यों हुआ. ५०० से भी अधिक फिल्में, अनगिनत सुपरहिट गीत, पर फ़िर भी संगीत कंपनियों ने और मिडिया ने उन्हें नई पीढी के सामने उस रूप में नही रखा जिस रूप में कुछ अन्य संगीतकारों को रखा गया. गायक महेंद्र कपूर ने एक बार इस मुद्दे पर अपनी राय कुछ यूँ रखी थी- "उनका संगीत पूरी तरह से भारतीय था, जहाँ लाइव वाद्यों का भरपूर प्रयोग होता था. चूँकि उनके अधिकतर गीत मेलोडी प्रधान हैं उनका रीमिक्स किया जाना बेहद मुश्किल है और संगीत कंपनियाँ अपने फायदे के लिए केवल उन्हीं को "मार्केट" करती हैं जिनके गीतों में ये "खूबी" होती है." ये बात काफ़ी हद तक सही प्रतीत होती है. पर अगर हम बात करें हिट्स की तो किसी भी सच्चे हिन्दी फ़िल्म संगीत के प्रेमी को जो थोड़ा बहुत भी बीते सालों पर अपनी नज़र डालने की जेहमत करें वो बेझिझक एल पी के बारे में यह कह सकेगा - "बॉस" कौन था मालूम है जी... चलिए इस बात को कुछ तथ्यों के आधार पर परखें - हिन्दी फिल्मों कि स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर न

निर्माता-निर्देशकों के लिए सफलता की गैरंटी था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत

बात होती है सदी के नायक की, नायिका की, पर अगर हम बात करें बीती सदी के सबसे सफलतम संगीतकार की, तो बिना शक जो नाम जेहन में आता है वो है - संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का. १९६३ में फ़िल्म "पारसमणी" से शुरू हुआ संगीत सफर बिना रुके चला अगले चार दशकों तक. बदलते समय के साथ ख़ुद को बदलकर हर पीढी के मिजाज़ को ध्यान में रख ये संगीत के महारथी चलते रहे अनथक और लिखते रहे निरंतर कमियाबी की नयी इबारतें. पल पल रंग बदलती, हर नए शुक्रवार नए रूप में ढलती फ़िल्म इंडस्ट्री में इतने लंबे समय तक चोटी पर अपनी जगह बनाये रखने की ये मिसाल लगभग असंभव सी ही प्रतीत होती है. और किस संगीतकार की झोली में आपको मिलेंगी इतनी विविधता. शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत, लोक गीतों में ढले ठेठ भारतीय गीत, पाश्चात्य संगीत में बसे गीत, भजन, मुजरा, डिस्को -जैसा मूड वैसा संगीत, और वो भी सरल, सुमधुर, "कैची" और "क्लास". परफेक्शन ऐसा कि कोई ढूंढें भी तो कोई कमी न मिले. आम आदमी की जुबान पर तो उनके गीत यूँ चढ़ जाते थे जैसे बस उन्हीं के मन की धुन हो कोई. मेलोडी ही उनके गीतों की आत्मा रही. सहज धुन में स

कलाकार की कोई पार्टी नही होती - दलेर मेहंदी

सप्ताह की संगीत सुर्खियाँ (६) टेलंट शो कितने कारगर एक ज़माने में हुए एक बड़ी "प्रतिभा खोज" के फलस्वरूप हमें मिले थे महेंद्र कपूर, सुरेश वाडकर जिनका हमने पिछले दिनों आवाज़ पर जिक्र किया था वो भी इसी रास्ते से फ़िल्म इंडस्ट्री में आए. १९९६ में "मेरी आवाज़ सुनो" की विजेता थी हम सब की प्रिय सुनिधी चौहान. इसी प्रतियोगिता में दूसरे स्थान पर रही वैशाली सावंत मानती है कि टेलंट शो मात्र आपको दुनिया के सामने प्रस्तुत कर देते हैं असली संघर्ष तो उसके बाद ही शुरू होता है. ख़ुद वैशाली को सात साल लगे प्रतियोगिता के बाद "आइका दाजिबा" तक का सफर तय करने में. रॉक ऑन ने गायन की शुरुआत करने वाली गायिका केरालिसा मोंटेरियो भी मानती हैं कि "आज भी बहुत से नए कलाकार पारंपरिक तरीके से शुरुआत करना पसंद करते हैं. अनुभव आपको इसी से मिलता है कि आप संगीतकारों से मिलें, बात करें और गानों के बनने की प्रक्रिया और उसका मर्म समझें. अक्सर इन प्रतियोगिताओं के विजेता ये मान बैठते हैं कि बस अब मंजिल मिल गई. पर ऐसा नही होता. एक बार शो खत्म होने के बाद उन्हें राह दिखाने वाला कोई नही होता." ज