Skip to main content

Posts

एक गीत उन सब के नाम जो आतंक के ख़िलाफ़ खड़े होने की हिम्मत रखते हैं...

दूसरे सत्र के २३ वें गीत का विश्वव्यापी उदघाटन आज पिछले ७-८ दिनों में हमने क्या क्या नही देखा. देश की व्यवसायिक राजधानी पर आतंकी हमला, बंधक बने देशी-विदेशी नागरिक, खौफ का नया चेहरा लेकर सर उठाता आतंकवाद, स्तब्ध और सहमा हुआ आम आदमी, एक तरफ़ बेसुराग अंधेरों में स्वार्थ की रोटियां सेकते हमारे कर्णधार तो दूसरी तरफ़ अपनी जान पर खेल कर आतंकियों से लोहा लेते हमारे जांबाज़ देशभक्तों की फौज. इन सब अव्यवस्थाओं के बीच भी कुछ ऐसा हुआ जिसने बुझती उम्मीदों को एक नई रोशनी दे दी. इस राष्ट्रीय आपदा में जैसे पूरा देश, जिसे चंद स्वार्थी राजनीतिज्ञों ने टुकड़े टुकड़े करने में कोई कसर नही छोडी थी, फ़िर से एक जुट हो गया. जातवाद, प्रांतवाद, धरम और भाषा के नाम पर देश को बांटने वाले देश के अंदरूनी दुश्मनों को पार्श्व में धकेलते हुए पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण, हिंदू मुस्लिम, अमीर गरीब, सब की संवेदनायें जैसे एक मत हो गई. एक बेहद अनचाही परिस्थिति से गुजरकर ही सही पर ये क्या कम है की एक सोये हुए देश की अवाम फ़िर से जागृत हो गई. ये हमला सिर्फ़ मुंबई या हिंदुस्तान पर नही है, समस्त इंसानियत के दामन पर है. मानवता

सुनिए सलिल दा के अन्तिम संगीत रचनायों में से एक, फ़िल्म "स्वामी विवेकानंद" के गीत

पिछले दिनों सलिल दा पे लिखी हमारी पोस्ट के जवाब में हमारे एक नियमित श्रोता ने हमसे गुजारिश की सलिल दा के अन्तिम दिनों में की गई फिल्मों में से एक "स्वामी विवेकानंद" के गीतों को उपलब्ध करवाने की. सलिल दा के अन्तिम दिनों में किए गए कामों की बहुत कम चर्चा हुई है. स्वामी के जीवन पर आधारित इस फ़िल्म में सलिल दा ने ८ गीत स्वरबद्ध किए. ख़ुद स्वामी के लिखे कुछ गीत हैं इसमें तो कबीर, जयदेव और सूरदास के बोलों को भी स्वरों का जामा पहनाया है सलिल दा ने.दो गीत गुलज़ार साहब ने लिखे हैं जिसमें के जे येसुदास का गाया बेहद खूबसूरत "चलो मन" भी शामिल है. गुलज़ार के ही लिखे एक और गीत "जाना है जाना है..." को अंतरा चौधरी ने अपनी आवाज़ दी है. अंतरा की आवाज़ में बहुत कम हिन्दी गीत सुनने को मिले हैं, इस वजह से भी ये गीत हमें बेहद दुर्लभ लगा. एक और विशेष बात इस फ़िल्म के बारे में ये है कि सलिल दा अपनी हर फ़िल्म का जिसमें भी वो संगीत देते थे, पार्श्व संगीत भी वो ख़ुद ही रचते थे. पर इस फ़िल्म के मुक्कमल होने से पहले ही दा हम सब को छोड़ कर चले गए. विजय भास्कर राव ने इस फ़िल्म का पार्श्व सं

सांझ ढले गगन तले हम कितने एकाकी...- सुरेश वाडकर

१९५४ में जन्में सुरेश वाडकर ने संगीत सीखना शुरू किया जब वो मात्र १० वर्ष के थे. पंडित जयलाल वसंत थे उनके गुरु. कहते हैं उनके पिता ने उनका नाम सुरेश (सुर+इश) इसलिए रखा क्योंकि वो अपने इस पुत्र को बहुत बड़ा गायक देखना चाहते थे. २० वर्ष की आयु में उन्होंने एक संगीत प्रतियोगिता "सुर श्रृंगार" में भाग लिया जहाँ बतौर निर्णायक मौजूद थे संगीतकार जयदेव और हमारे दादू रविन्द्र जैन साहब. सुरेश की आवाज़ से निर्णायक इतने प्रभावित हुए कि उन्हें फिल्मों में प्ले बैक का पक्का आश्वासन मिला दोनों ही महान संगीतकारों से, जयदेव जी ने उनसे फ़िल्म "गमन" का "सीने में जलन" गीत गवाया तो दादू ने उनसे "विष्टि पड़े टापुर टुपुर" गवाया फ़िल्म "पहेली" में. "पहेली" का गीत पहले आया और फ़िर "गमन" के गीत ने सब को मजबूर कर दिया कि यह मानने पर कि इंडस्ट्री में एक बेहद प्रतिभशाली गायक का आगमन हो चुका है. उनकी आवाज़ और प्रतिभा से प्रभावित लता जी ने उन्हें बड़े संगीतकारों से मिलवाया. लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने दिया उन्हें वो "बड़ा' ब्रेक, जब उन्होंने लता