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फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – ६

स्वरगोष्ठी – ९५ में आज श्रृंगार रस से अभिसिंचित ठुमरी- ‘बाजूबन्द खुल खुल जाय...’ ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ की कड़ियों में आप सुन रहे हैं, कुछ ऐसी पारम्परिक ठुमरियाँ, जिन्हें फिल्मों में पूरे आन, बान और शान के साथ शामिल किया गया। इस श्रृंखला में आप कुछ ऐसी ही पारम्परिक ठुमरियाँ उनके फिल्मी रूप के साथ सुन रहे हैं। आज के अंक में हम प्रस्तुत करने जा रहे हैं, भैरवी की एक बेहद लोकप्रिय ठुमरी- ‘बाजूबन्द खुल खुल जाय...’। आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करते हुए, मैं कृष्णमोहन मिश्र, आरम्भ करता हूँ, ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ श्रृंखला का नया अंक। ठु मरी भारतीय संगीत की वह रसपूर्ण शैली है, जिसमें स्वर और साहित्य का समान महत्त्व होता है। यह भावप्रधान और चपल चाल वाला गीत है। मुख्यतः यह श्रृंगार प्रधान गीत होता है; जिसमें लौकिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार का श्रृंगार उपस्थित होता है। इसीलिए ठुमरी में लोकगीत जैसी कोमल शब्दावली और अपेक्षाकृत हलके रागों का ही प्रयोग होता है। अधिकतर ठुमरियों क

फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – ५

स्वरगोष्ठी – ९४ में आज ‘कौन गली गयो श्याम...’ : श्रृंगार और भक्ति का अनूठा समागम ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ की आज पाँचवीं कड़ी है। इस श्रृंखला में हम आपके लिए कुछ ऐसी पारम्परिक ठुमरियाँ प्रस्तुत कर रहे हैं, जिन्हें फिल्मों में भी शामिल किया गया। ऐसी ठुमरियों का पारम्परिक और फिल्मी, दोनों रूप आप सुन रहे हैं। आज के अंक में हम प्रस्तुत करने जा रहे हैं, खमाज की एक बेहद लोकप्रिय ठुमरी- ‘कौन गली गयो श्याम...’। आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करते हुए, मैं कृष्णमोहन मिश्र, आरम्भ करता हूँ, ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ श्रृंखला का नया अंक। ह मारी आज की पारम्परिक ठुमरी राग खमाज की है, जिसके स्थायी के बोल हैं- ‘कौन गली गयो श्याम...’ । इस ठुमरी को कई गायक-गायिकाओं ने गाया है। इनमें से आज के अंक में हम विदुषी रसूलन बाई, डॉ. प्रभा अत्रे, पण्डित छन्नूलाल मिश्र और विदुषी परवीन सुलताना के स्वरों में यह ठुमरी प्रस्तुत करेंगे। पिछले अंक में भी हमने रसूलन बाई के स्वर में एक अन्य ठुमरी प्रस्तु

फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – ३

स्वरगोष्ठी – ९२ में आज  मन्ना डे ने गाया उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ का दादरा ‘बनाओ बतियाँ चलो काहे को झूठी...’   ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के एक नए अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला में हम कुछ ऐसी ठुमरियों पर चर्चा कर रहे हैं, जिन्हें स्वयं मूल गायक-गायिका ने अथवा किसी फिल्मी पार्श्वगायक-गायिका ने फिल्म में भी गाया है। पिछले दो अंकों में हमने आपसे क्रमशः उस्ताद अब्दुल करीम खाँ और बेगम अख्तर की गायी ठुमरियों के फिल्मी प्रयोग पर चर्चा की थी। आज के अंक में हम ‘आफ़ताब-ए-मौसिकी’ के खिताब से नवाज़े गए उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ के व्यक्तित्व पर चर्चा करेंगे। साथ ही उनके गाये एक दादरा- “बनाओ बतियाँ चलो काहे को झूठी...” और उसके फिल्मी प्रयोग का भी उल्लेख करेंगे। उ न्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक से लेकर पिछली शताब्दी के मध्यकाल तक के जिन संगीतज्ञों की गणना हम शिखर-पुरुष के रूप में करते हैं, उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ उन्ही में से एक थे। ध्रुवपद-धमार, खयाल-तराना, ठुमरी-दादरा,

फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – २

     स्वरगोष्ठी – ९१ में आज  बेगम अख्तर की ९९वें जन्मदिवस पर स्वरांजलि ‘भर भर आईं मोरी अँखियाँ पिया बिन...’ रस, रंग और भाव की सतरंगी छटा बिखेरती ठुमरी पर केन्द्रित लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के एक नए अंक में कृष्णमोहन मिश्र का अभिवादन स्वीकार कीजिए। ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी इस श्रृंखला के आज के अंक में हम ठुमरी और गजल की साम्राज्ञी बेगम अख्तर को उनके ९९वें जन्मदिन पर स्मरण कर रहे हैं। आज इस अवसर पर बेगम साहिबा की गायी ठुमरी और ग़ज़ल से हम उन्हें स्वरांजलि अर्पित करते हैं। श्रृं गार और भक्ति रस से सराबोर ठुमरी और गजल शैली की अप्रतिम गायिका बेगम अख्तर का जन्म ७ अक्तूबर, १९१४ उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद नामक एक छोटे से नगर (तत्कालीन अवध) में एक कट्टर मुस्लिम परिवार में हुआ था। परिवार में किसी भी सदस्य को न तो संगीत से अभिरुचि थी और न किसी को संगीत सीखना-सिखाना पसन्द था। परन्तु अख्तरी (बचपन में उन्हें इसी नाम से पुकारा जाता था) को तो मधुर कण्ठ और संगीत के प्रति अनुराग जन्मजात उपहार के रूप में प्राप्त था। एक बार सुविख्य

फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी

स्वरगोष्ठी – ९० में आज   ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’   ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ मैं, कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों के बीच उपस्थित हूँ और आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, आज से हम आरम्भ कर रहे हैं, एक नई लघु श्रृंखला- ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’। शीर्षक से आपको यह अनुमान हो ही गया होगा कि इस श्रृंखला में हम आपके लिए कुछ ऐसी पारम्परिक ठुमरियाँ प्रस्तुत करने जा रहे हैं, जिन्हें भारतीय फिल्मों में शामिल किया गया। फिल्मों का हिस्सा बन कर इन ठुमरियों को इतनी लोकप्रियता मिली कि लोग मूल पारम्परिक ठुमरी को प्रायः भूल गए। इस श्रृंखला में हम आपके लिए उप-शास्त्रीय संगीत की इस मनमोहक विधा के पारम्परिक स्वरूप के साथ-साथ फिल्मी स्वरूप भी प्रस्तुत करेंगे।  ल घु श्रृंखला- ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के आज के पहले अंक का राग है, झिंझोटी और ठुमरी है- ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’ । परन्तु इस ठुमरी पर चर्चा से पहले ठुमरी शैली पर थोड़ी चर्चा आवश्यक है। ठुमरी भारतीय संगीत की रस, रंग और भाव से परिपूर्ण शैली है, जिसे उन

संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला : पं. श्रीकुमार मिश्र से बातचीत

स्वरगोष्ठी – ८८ में आज संगीत के सौ रंग बिखेरती सारंगी ‘स्व रगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ, मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आपकी गोष्ठी में उपस्थित हूँ और आप सब संगीत-प्रेमियों का स्वागत करता हूँ। मित्रों, यह ‘स्वरगोष्ठी’ स्तम्भ का सौभाग्य रहा है कि इसे आरम्भ से ही संगीत-साधकों, संगीत-शिक्षकों और संगीत-प्रेमियों का मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा। हमारे एक ऐसे ही मार्गदर्शक हैं जाने-माने इसराज और मयूर वीणा वादक और शिक्षक पं. श्रीकुमार मिश्र। पिछले दिनों उनकी कक्षा में मैं आकस्मिक रूप से जब पहुँचा तो आश्चर्यचकित रह गया। लगभग अप्रचलित इन गज-वाद्यों को सीखने के लिए कुल ९ विद्यार्थी उस कक्षा में उपस्थित थे, जिनमें ५ बालिकाएँ थीं। श्रीकुमार जी इन बच्चों को एक सरल सी तान का अभ्यास करा रहे थे। मैंने संगीत के उन विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों की सराहना की और श्रीकुमार जी से गज-तंत्र वाद्यों के बारे में ‘स्वरगोष्ठी’ के लिए कुछ बातचीत करने का अनुरोध किया, जिसे उन्होने सहर्ष स्वीकार कर लिया। आज के अंक में हम इस बातचीत के सम्पादित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। कृष्णमोहन : श्रीकुमार जी

विदुषी प्रभा अत्रे : ८१वें जन्मदिवस पर स्वराभिनन्दन

स्वरगोष्ठी – ८७ में आज 'जागूँ मैं सारी रैना बलमा...' पिछले छह दशक की अवधि में भारतीय संगीत जगत की किसी ऐसी कलासाधिका का नाम लेना हो, जिन्होने संगीत-चिन्तन, मंच-प्रस्तुतीकरण, शिक्षण, पुस्तक-लेखन, शोध आदि सभी क्षेत्रों में पूरी दक्षता के साथ संगीत के शिखर को स्पर्श किया है, तो वह एक नाम विदुषी (डॉ.) प्रभा अत्रे का ही है। आश्चर्य होता है कि उनके व्यक्तित्व के साथ इतने सारे उच्चकोटि के गुणों का समावेश कैसे हो जाता है। आज की ‘स्वरगोष्ठी’ में हम विदुषी प्रभा अत्रे को उनके ८१वें जन्मदिवस के अवसर पर उन्हें शत-शत बधाई और शुभकामनाएँ देते हैं। इसके साथ ही आज के अंक में हम आपको उनके स्वर में कुछ मनमोहक रचनाएँ भी सुनवाएँगे। व र्तमान में प्रभा जी अकेली महिला कलासाधिका हैं, जो किराना घराने की गायकी का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। उनके शैक्षिक पृष्ठभूमि में विज्ञान, विधि और संगीत शास्त्र की त्रिवेणी प्रवाहमान है। प्रभा जी का जन्म महाराष्ट्र के पुणे शहर में १३सितम्बर, १९३२ को हुआ था। उनकी माँ इन्दिराबाई और पिता आबासाहेब बालिकाओं को उच्च शिक्षा दिलाने के पक्षधर थे। पारिवारिक संस्