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भारत में ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड की शुरुआत

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 59 यूं तो ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड के बारे में हम सभी को जानकारी है, लेकिन ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड की सटीक परिभाषा क्या है? विकिपीडिआ में इसकी परिभाषा कुछ इस तरह से दी गई है - "A gramophone record, also known as a phonograph record, is an analogue sound storage medium consisting of a flat disc with an inscribed modulated spiral groove starting near the periphery and ending near the center of the disc." ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड के कई प्रकार हैं जैसे कि एल.पी रेकॉर्ड (LP, 33, or 33-1/3 RPM), ई.पी रेकॉर्ड (EP, 16-2/3 RPM), 45 RPM रेकॉर्ड और 78 RPM रेकॉर्ड। 78 RPM रेकॉर्ड वह रेकॉर्ड है जो प्रति मिनट ७८ बार अपनी धूरी पर घूमती है। एल.पी का अर्थ है 'लॉंग प्ले' तथा ई.पी का अर्थ है 'एक्स्टेण्डेड प्ले'। एल.पी, 16 और 45 RPM रेकॉर्डों का निर्माण पॉलीविनाइल क्लोराइड (PVC) से होता था, जिस वजह से इन्हें विनाइल रेकॉर्ड भी कहते हैं। 'सोसायटी ऑफ़ इण्डियन रेकॉर्ड कलेक्टर्स मुंबई' के सुरेश चंदावरकर नें बहुत अच्छी तरह से भारत में ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड के विकास

करलो जितना सितम कर सको तुम...शमशाद जी का गाया अंतिम फ़िल्मी गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 740/2011/180 पा र्श्वगायिका शमशाद बेगम पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे' की अंतिम कड़ी लेकर हम हाज़िर हैं। आज शमशाद बेगम मुंबई के पवई में हीरानंदानी कॉम्प्लेक्स में अपनी बेटी उषा रात्रा और उषा की पति के साथ रहती हैं, मीडिया से दूर, अपने चाहने वालों से दूर। शमशाद जी अपने पति गणपत लाल बट्टो के १९५५ में मृत्यु के बाद से ही अपनी बेटी के साथ रहती हैं। अपने रूढ़ीवादी पिता को दिये वादे के मुताबिक उन्होंने पहले के तीन दशकों में किसी को अपनी तसवीर खींचने नहीं दी। रेकॉर्डिंग् स्टुडिओ भी वो बुर्खे में जाया करती थीं। भले ही उनके लाखों फ़ैन थे, लेकिन इंडस्ट्री के चंद लोगों को ही मालूम था कि वो दिखती कैसी हैं। कभी उन्होंने प्रेस या मीडिआ को इंटरव्यू नहीं दिया। बस उनकी आवाज़ और उनके गाये हुए गीत ही उनकी पहचान बनी रही। और हम भी यही समझते हैं कि यही सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। शमशाद जी नें अपना पहला स्टेज शो पचास साल की उम्र में पेश किया। अपना पहला फ़ोटो भी 'टाइम्स ऑफ़ इण्डिया' को इसी दौरान खींचने दिया। अभी कुछ समय पहले मीडिआ

भीगा भीगा प्यार का समां....भीगे भीगे मौसम में सुनिए ये युगल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 740/2011/180 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों जारी है सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका शमशाद बेगम पर केन्द्रित लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे'। आज इस शृंखला की नवी कड़ी में प्रस्तुत है शमशाद जी का गाया एक युगल गीत। अब तक आपनें उनके गाये हुए एकल गीत सुनें, पर आज वो आवाज़ मिला रही हैं रफ़ी साहब के साथ। यूं तो तलत महमूद और मुकेश के साथ भी शमशाद जी गा चुकी हैं, पर किशोर कुमार के साथ उन्होंने बहुत से मज़ाइया गीत गाये हैं, और उनके सब से ज़्यादा युगल गीत रफ़ी साहब के साथ हैं। आज की कड़ी के लिए हमने जिस रफ़ी-शमशाद डुएट को चुना है, वह है साल १९६० की फ़िल्म 'सावन' का रिमझिम सावन बरसाता हुआ "भीगा भीगा प्यार का समा, बता दे तुझे जाना है कहाँ"। संगीतकार हैं हंसराज बहल। नय्यर साहब के संगीत की थोड़ी बहुत झलक मिलती है इस गीत में, शायद घोड़ा-गाड़ी रीदम की वजह से। और यह भी सच है कि नय्यर साहब से पहले पंकज मल्लिक और नौशाद साहब इस तरह के रीदम का प्रयोग अपने गीतों में कर चुके थे। क्योंकि नय्यर साहब नें इस रीदम पर सब से ज़्यादा गानें कम्पोज़ किये, इसलिये यह र

कहाँ चले हो जी प्यार में दीवाना करके...अपनी आवाज़ से दीवाना करती शमशाद बेगम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 739/2011/179 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! शमशाद बेगम के गाये गीतों पर केन्द्रित इस लघु शृंखला में आइए आज एक बार फिर से रुख़ करते हैं कमल शर्मा द्वारा ली गई साक्षात्कार की तरफ़ और पढ़ा जाये उसी साक्षात्कार से कुछ और अंश। कमल जी - मुंबई में आने के बाद यहाँ आपकी पहली फ़िल्म कौन सी थी? शमशाद जी - पहली फ़िल्म महबूब साहब का किया, 'तक़दीर', वो लाहौर गये थे। 'तक़दीर' पिक्चर के लिए मुझे बूक किया था। वहाँ उनकी हीरोइन थी, उनका ससुराल भी वहीं था। वो तो नहीं आईं, महबूब साहब मेरे घर आए और कहा कि तुम मेरे साथ चलो। मेरे बाबा आने नहीं देते थे। वो कहते थे इधर ही ठीक है, तुम क्या इतनी दूर बम्बई जाओगी? दो दो साल शक्ल देखने को नहीं मिलेंगे। महबूब साहब नें कहा कि अरे समुंदर में जाने दो उसको। उन्होंने बाबा से कहा कि मिया, आप ग़लत समझ रहे हैं, इसको जाने दीजिए। अब इसका नाम इतना है कि जाने दो इसे, आप नें सोचा भी नहीं होगा कितनी बड़ी इंडस्ट्री है। उनके कहने पर बाबा नें कहा कि अच्छा जाने देते हैं। फिर 'तक़दीर' पिक्चर बन

पी के घर आज प्यारी दुल्हन....एक विदाई गीत शमशाद के स्वरों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 738/2011/178 पा र्श्वगायिका शमशाद बेगम पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे' की सातवीं कड़ी में आप सब का स्वागत है। नय्यर साहब के दो गीत सुनने के बाद आज एक बार फिर बारी नौशाद साहब की। १९५७ में नौशाद साहब की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही 'मदर इण्डिया'। इस फ़िल्म में शमशाद बेगम के गाये दो एकल गीतों नें फ़िल्म के अन्य गीतों के साथ साथ ख़ूब धूम मचाई। इनमें से एक तो है मशहूर होली गीत "होली आयी रे कन्हाई रंग छलके सुना दे ज़रा बांसुरी", जिसे हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पिछले साल सुनवाया था, और इस साल भी होली के अवसर पर शकील बदायूनी के बेटे जावेद बदायूनी से की गई बातचीत पर केन्द्रित 'शनिवार विशेष' में सुनवाया था। शमशाद जी का गाया 'मदर इण्डिया' का दूसरा गीत था विदाई गीत "पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली, रोये माता पिता उनकी दुनिया चली"। बड़ा ही दिल को छू लेने वाला विदाई गीत है यह। शमशाद बेगम के गाये मस्ती भरे गीतों को हमने ज़्यादा सुना है। लेकिन कुछ गीत उनके ऐसे भी हैं जो सीरियस

रात रंगीली गाये रे....एक अलग भाव का गीत शमशाद का गाया

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 736/2011/176 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के एक और नई सप्ताह में आप सभी का मैं, सुजॉय चटर्जी, स्वागत करता हूँ। इन दिनों इस स्तंभ में जारी है फ़िल्म जगत की सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका शमशाद बेगम के गाये गीतों से सुसज्जित लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे'। पाँच गीत आपनें सुनें, पाँच गीत अभी और सुनने वाले हैं। पिछले हफ़्ते यह शृंखला आकर रुकी थी नय्यर साहब की धुन पर फ़िल्म 'सी.आइ.डी' के गीत पर। नय्यर साहब के साथ शमशाद जी की पारी इतनी सफल रही है कि केवल एक गीत सुनवाकर हम आगे नहीं बढ़ सकते। इसलिए आज के अंक में भी है धूम नय्यर-शमशाद के जोड़ी की। 'दास्तान-ए-नय्यर' सीरीज़ में जब नय्यर सहाब से शमशाद बेगम के बारे में ये पूछा गया था - कमल शर्मा: शमशाद जी से आप किस तरह से मिले? ओ.पी. नय्यर: शमशाद जी को क्योंकि मैं लाहौर से ही जानता हूँ, रेडियो से। वो मेरे से ४-५ साल बड़ी हैं, तो बच्चा था मैं उनके आगे, और मैं उनको बहुत पहले से, पेशावर में, पश्तो गाने गाया करती थीं। फिर रेडियो लाहौर में आ गईं। बड़ी ख़ुलूस, बहुत प्यार करने वाली ईमोशनल औरत है। कमल शर्मा: क्या ख

कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना...शोखियों में डूबा एक नशीला गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 735/2011/175 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में शमशाद बेगम की खनकती आवाज़ इन दिनों गूंज रही है उन्हीं को समर्पित लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे' में। आज हम जिस संगीतकार की रचना सुनवाने जा रहे हैं, उन्होंने भी शमशाद बेगम को एक से एक लाजवाब गीत दिए, और उनकी आवाज़ को 'टेम्पल बेल वॉयस' की उपाधि देने वाले ये संगीतकार थे ओ. पी. नय्यर। नय्यर साहब के अनुसार दो गायिकाएँ जिनकी आवाज़ ऑरिजिनल आवाज़ें हैं, वे हैं गीता दत्त और शमशाद बेगम। दोस्तों, विविध भारती पर नय्यर साहब की एक लम्बी साक्षात्कार प्रसारित हुआ था 'दास्तान-ए-नय्यर' शीर्षक से। उस साक्षात्कार में कई कई बार शमशाद जी का ज़िक्र छिड़ा था। आज और अगली कड़ी में हम उसी साक्षात्कार के चुने हुए अंशों को पेश करेंगे जिनमें नय्यर साहब शमशाद जी के बारे में बताते हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या वो अपना पहला पॉपुलर गीत "प्रीतम आन मिलो" को मानते हैं, तो नय्यर साहब का जवाब था, ""कभी आर कभी पार लागा तीर-ए-नज़र", 'आर-पार' का पहला सुपरहिट गाना शमशाद जी का"। शमशाद बेगम के गाये ग

शरमाये काहे, घबराये काहे, सुन मेरे राजा...नशीली अंदाज़ और चुलबुलापन शमशाद की आवाज़ का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 734/2011/174 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार! आज 'ईद-उल-फितर' का पाक़ मौका है। इस मौक़े पर मैं, अपनी तरफ़ से, और पूरे 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से आप सभी को दिली मुबारक़बाद देता हूँ। यह त्योहार आप सब के जीवन में ढेरों ख़ुशियाँ लेकर आएँ, यही परवर दिगारे आलम से दरख्वास्त है। एक तरफ़ ईद की ख़ुशियाँ हों, और दूसरी तरफ़ हो शमशाद बेगम की खनकती आवाज़ का जादू, तो फिर जैसे सोने पे सुहागा वाली बात है, क्यों है न? तो चलिए 'बूझ मेरा क्या नाव रे' शृंखला की चौथी कड़ी शुरु की जाए। दोस्तों, आजकल फ़िल्मों में आइटम नंबर का बड़ा चलन हो गया है। शायद ही कोई ऐसी फ़िल्म बनती है जिसमें इस तरह का गीत न हो। लेकिन यह परम्परा आज की नहीं है, बल्कि पचास के दशक से ही चली आ रही है। आज जिस तरह से कुछ निर्दिष्ट गायिकाओं से आइटम सॉंग गवाये जाते हैं, उस ज़माने में भी वही हाल था। और उन दिनों इस जौनर में शीर्ष स्थान शमशाद बेग़म का था। बहुत सी फ़िल्में ऐसी बनीं, जिनमें मुख्य नायिका का पार्श्वगायन किसी और गायिका नें किया, जबकि शमशाद बेगम से

ना बोल पी पी मोरे अंगना, ओ पंछी जा रे जा...एक अंदाज़ ये भी शमशाद का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 733/2011/173 श मशाद बेगम के गाये गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे' की आज है तीसरी कड़ी। कुछ वर्ष पहले वरिष्ठ उद्‍घोषक कमल शर्मा के नेतृत्व में विविध भारती की टीम पहुँची थी शमशाद जी के पवई के घर में, और उनसे लम्बी बातचीत की थी। उसी बातचीत का पहला अंश कल हमनें पेश किया था, आइए आज उसी जगह से बातचीत के कुछ और अंश पढ़ें। शमशाद जी: मैंने मास्टरजी (ग़ुलाम हैदर) से फिर कहा कि दूसरा गाना गाऊँ? उन्होंने कहा कि नहीं, इतना ठीक है। फिर १२ गानों का ऐग्रीमेण्ट हो गया, हर गाने के लिए १२ रुपये। मास्टरजी नें उन लोगों से कहा कि इस लड़की को वो सब फ़ैसिलिटीज़ दो जो सब बड़े आर्टिस्टों को देते हो। उस ज़माने में ६ महीनों का कॉनट्रैक्ट हुआ करता था, ६ महीने बाद फिर रेकॉर्डिंग् वाले आ जाते थे। सुबह १० से शाम ५ बजे तक हम रिहर्सल किया करते म्युज़िशियन्स के साथ, मास्टरजी भी रहते थे। आप हैरान होंगे कि उन्हीं के गाने गा गा कर मैं आर्टिस्ट बनी हूँ। कमल जी: आप में भी लगन रही होगी? शमशाद जी - मास्टर ग़ुलाम हैदर साहब कहा करते थे कि इस लड़की में ग

काहे कोयल शोर मचाये रे....एक और खनकता गीत शमशाद की आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 732/2011/172 'बू झ मेरा क्या नाव रे' - पार्श्वगायिका शमशाद बेगम पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की दूसरी कड़ी में आपका स्वागत है। जैसा कि कल हमने वादा किया था कि शमशाद जी के बचपन और शुरुआती दौर के बारे में हम विस्तार से चर्चा करेंगे, तो आइए आज प्रस्तुत है विविध भारती द्वारा ली गई एक साक्षात्कार के अंश। शमशाद जी से बातचीत कर रहे हैं वरिष्ठ उद्‍घोषक श्री कमल शर्मा: शमशाद जी: मेरे को गाना नहीं सिखाया किसी ने, ग्रामोफ़ोन पर सुन सुन कर मैंने सीखा। मेरे घरवाले ने एक पैसा नहीं खर्च किया। लड़कों का ही फ़िल्मों में गाना बजाना अच्छा नहीं माना जाता था, लड़कियों की क्या बात थी! मैं गाने लगती घर में तो सब चुप करा देते थे कि क्या हर वक़्त चैं चैं करती रहती है! कमल जी: शमशाद जी, आपनें किस उम्र से गाना शुरु किया था? शमशाद जी - आठ साल से गाना शुरु किया, जब से होश आया तभी से गाती थी। कमल जी - आप जिस स्कूल में पढ़ती थीं, वहाँ आपके म्युज़िक टीचर ने आपका हौसला बढ़ाया होगा? शमशाद जी - उन्होंने कहा कि आवाज़ अच्छी है, पर घरवालों ने इस तरफ़ ध्यान नहीं दिया

फिर मत कहना कि सिस्टम ख़राब है...

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 55 ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नम्स्कार! दोस्तों, अभी इसी हफ़्ते हमनें अपने देश की आज़ादी का ६५-वाँ वर्षगांठ मनाया। हम अक्सर इस बात पर ख़ुश होते हैं कि विदेशी ताक़तों नें जब भी हम पर आक्रमण किया या जब भी हमें ग़ुलाम बनाने की कोशिशें की, तो हर बार हमनें अपने आप को आज़ाद किया, दुश्मनों की धज्जियाँ उड़ाईं। पर 'स्वाधीनता दिवस' की ख़ुशियाँ मनाते हुए या कारगिल विजय पर नाज़ करते हुए हम यह अक्सर भूल जाते हैं कि हम अब भी ग़ुलाम हैं हमारी सरज़मीन पर ही पनपने वाले भष्टाचार के। क्या आप यह जानते हैं कि अंग्रेज़ों नें २०० साल में इस देश को इतना नहीं लूटा जितना इस देश के भ्रष्टाचारियों ने इन ६४ सालों में लूट लिया। इन दिनों देश के हर शहर में, हर गाँव में, हर कस्बे में एक नई क्रान्ति की लहर आई है जिसकी चर्चा हर ज़बान पर है। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' के ज़रिए हम आप तक पहुँचाना चाहते हैं एक अपील। "अगर हम अपनी प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष करने को तैयार नहीं है तो हम आज़ादी के हकदार भी नहीं है। देश सेवा एक क़ुर्बा

झंकारो झंकारो झंकारो अग्निवीणा....कवि प्रदीप के शब्दों से निकलती आग

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 725/2011/165 भा रत नें हमेशा अमन और सदभाव का राह चुनी है। हमनें कभी किसी को नहीं ललकारा। हज़ारों सालों का हमारा इतिहास गवाह है कि हमनें किसी पर पहले वार नहीं किया। जंग लड़ना हमारी फ़ितरत नहीं। ख़ून बहाना हमारा धर्म नहीं। लेकिन जब दुश्मनों नें हमारी इस धरती को अपवित्र करने की कोशिश की है, हम पर ज़ुल्म करने की कोशिश की है, तो हमने भी अपनी मर्यादा और सम्मान की रक्षा की है। न चाहते हुए भी बंसी के बदले बंदूक थामे हैं हम प्रेम-पुजारियों नें। अंग्रेज़ी सरकार नें 200 वर्ष तक इस देश पर राज किया। 1857 से ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ आवाज़ उठनी शुरु हुई थी, और 90 वर्ष की कड़ी तपस्या और असंख्य बलिदानों के बाद 1947 में ब्रिटिश राज से इस देश को मुक्ति मिली। भारत के स्वाधीनता संग्राम के प्रमुख सेनानियों में एक महत्वपूर्ण नाम है नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का। उनके वीरता की कहानियाँ हम जानते हैं, और उन पर एकाधिक फ़िल्में भी बन चुकी हैं। ऐसी ही एक फ़िल्म आई थी 'नेताजी सुभाषचन्द्र बोस' और इस फ़िल्म में एक जोश पैदा कर देने वाला गीत था हेमन्त कुमार, सबिता चौधरी और साथियों की आवाज़ों म

जननी जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है....भारत व्यास के शब्दों में मातृभूमि का जयगान

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 721/2011/161 स नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों का हार्दिक स्वागत है इस नए सप्ताह में। दोस्तों, कल है 15 अगस्त, इस देश का एक बेहद अहम दिन। 200 वर्ष की ग़ुलामी के बाद इसी दिन 1947 में हमें आज़ादी मिली थी। पर इस आज़ादी को प्राप्त करने के लिए न जाने कितने प्राण न्योछावर हुए, न जाने कितनी औरतें विधवा हुईं, न जाने कितने गोद उजड़ गए, और न जाने कितने बच्चे अनाथ हो गए। अपने देश की ख़ातिर प्राणों की आहुति देने वाले अमर शहीदों को समर्पित करते हुए प्रस्तुत है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'वतन के तराने'। देशभक्ति गीतों की इस शृंखला को हम सजा रहे हैं दस अलग-अलग ऐसे गीतकारों की लिखी हुई देशभक्ति की रचनाओं से जिनमें स्तुति है जननी जन्मभूमि की, वंदनवार है इस शस्य श्यामला धरा की, राष्ट्रीय स्वाभिमान की, देश के गौरव की। ये वो अमर गानें हैं दोस्तों, जो गाथा सुनाते हैं उन अमर महर्षियों की जिन्होंने न्योछावर कर दिये अपने प्राण इस देश पर, अपनी मातृभूमि पर। "मातृभूमि के लिए जो करता अपने रक्त का दान, उसका जीवन देवतूल्य है उसका जन्म महान"।

रेडियो और रेशम की डोरी

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 54 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नम्स्कार! आज रक्षाबंधन है। भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को मनाता यह त्योहार आप सभी के जीवन में ख़ुशियाँ लेकर आये, यह हमारी शुभकामना है। आप सभी को इस पावन पर्व रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ। आज के इस शनिवार विशेषांक में मैं अपने ही जीवन के का अनुभव आप सभी के साथ बाँटने जा रहा हूँ जो शायद आज के दिन के लिए बहुत सटीक है। किसी नें ठीक ही कहा है कि कुछ रिश्तों को नाम नहीं दिया जा सकता। ये रिश्ते न तो ख़ून के रिश्ते हैं, न ही दोस्ती के, और न ही प्रेम-संबंध के। ये रिश्ते बस यूं ही बन जाया करते हैं। मेरा भी एक ऐसा ही रिश्ता बना है रेडियो की तीन उद्‍घोषिकाओं के साथ, जिनकी आवाज़ें मैं करीब २७-२८ सालों से सुनता चला आ रहा हूँ, पर जिनसे मिलने का मौका अभी पिछले वर्ष ही हुआ। इस रिश्ते की शुरुआत शायद तब हुई जब मैं बस चार साल का था। मेरी माँ स्कूल टीचर हुआ करती थीं जिस वजह से मैं और मेरा बड़ा भाई दोपहर को घर पर अकेले ही होते थे। ८० के दशक के उन शुरुआती सालों में मनोरंजन का एकमात्र ज़रिया रेडियो ही हु

आगे भी जाने न तू....जब बदलती है जिंदगी एक पल में रूप अनेक तो क्यों न जी लें पल पल को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 720/2011/160 स जीव सारथी के लिखे कविता-संग्रह ' एक पल की उम्र लेकर ' पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इसी शीर्षक से लघु शृंखला की आज दसवीं और अंतिम कड़ी है। आज जिस कविता को हम प्रस्तुत करने जा रहे हैं, वह इस पुस्तक की शीर्षक कविता है 'एक पल की उम्र लेकर'। आइए इस कविता का रसस्वादन करें... सुबह के पन्नों पर पायी शाम की ही दास्ताँ एक पल की उम्र लेकर जब मिला था कारवाँ वक्त तो फिर चल दिया एक नई बहार को बीता मौसम ढल गया और सूखे पत्ते झर गए चलते-चलते मंज़िलों के रास्ते भी थक गए तब कहीं वो मोड़ जो छूटे थे किसी मुकाम पर आज फिर से खुल गए, नए क़दमों, नई मंज़िलों के लिए मुझको था ये भरम कि है मुझी से सब रोशनाँ मैं अगर जो बुझ गया तो फिर कहाँ ये बिजलियाँ एक नासमझ इतरा रहा था एक पल की उम्र लेकर। ज़िंदगी की कितनी बड़ी सच्चाई कही गई है इस कविता में। जीवन क्षण-भंगुर है, फिर भी इस बात से बेख़बर रहते हैं हम, और जैसे एक माया-जाल से घिरे रहते हैं हमेशा। सांसारिक सुख-सम्पत्ति में उलझे रहते हैं, कभी लालच में फँस जाते हैं तो कभी झूठी शान दिखा बैठते हैं। कल किसी नें न

फिर किसी शाख ने फेंकी छाँव....और "बहुत देर तक" महकती रही तनहाईयाँ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 719/2011/159 'ए ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी चाहने वालों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! जैसा कि इन दिनों इस स्तंभ में आप आनंद ले रहे हैं सजीव सारथी की लिखी कविताओं और उन कविताओं पर आधारित फ़िल्मी रचनाओं की लघु शृंखला ' एक पल की उम्र लेकर ' में। आज नवी कड़ी के लिए हमने चुनी है कविता ' बहुत देर तक '। बहुत देर तक यूँ ही तकता रहा मैं परिंदों के उड़ते हुए काफ़िलों को बहुत देर तक यूँ ही सुनता रहा मैं सरकते हुए वक़्त की आहटों को बहुत देर तक डाल के सूखे पत्ते भरते रहे रंग आँखों में मेरे बहुत देर तक शाम की डूबी किरणें मिटाती रही ज़िंदगी के अंधेरे बहुत देर तक मेरा माँझी मुझको बचाता रहा भँवर से उलझनों की बहुत देर तक वो उदासी को थामे बैठा रहा दहलीज़ पे धड़कनों की बहुत देर तक उसके जाने के बाद भी ओढ़े रहा मैं उसकी परछाई को बहुत देर तक उसके अहसास ने सहारा दिया मेरी तन्हाई को। इस कविता में कवि के अंदर की तन्हाई, उसके अकेलेपन का पता चलता है। कभी कभी ज़िंदगी यूं करवट लेती है कि जब हमारा साथी हमसे बिछड़ जाता है। हम लाख कोशिश करें उसके दामन को अपनी ओर खींचे

आपकी याद आती रही...."अलाव" में जलते दिल की कराह

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 718/2011/158 'ए क पल की उम्र लेकर ' - सजीव सारथी की लिखी कविताओं की इस शीर्षक से किताब में से चुनकर १० कविताओं पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की आठवीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। हमें आशा है कि अब तक इस शृंखला में प्रस्तुत कविताओं और गीतों का आपने भरपूर स्वाद चखा होगा। आज की कविता है ' अलाव '। तुम्हारी याद शबनम रात भर बरसती रही सर्द ठंडी रात थी मैं अलाव में जलता रहा सूखा बदन सुलगता रहा रूह तपती रही तुम्हारी याद शबनम रात भर बरसती रही शायद ये आख़िरी रात थी तुमसे ख़्वाबों में मिलने की जलकर ख़ाक हो गया हूँ बुझकर राख़ हो गया हूँ अब न रहेंगे ख़्वाब न याद न जज़्बात ही कोई इस सर्द ठंडी रात में इस अलाव में एक दिल भी बुझ गया है। बाहर सावन की फुहारें हैं, पर दिल में आग जल रही है। कमरे के कोने में दीये की लौ थरथरा रही है। पर ये लौ दीये की है या ग़म की समझ नहीं आ रहा। बाहर पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, सब रिमझिम फुहारों में नृत्य कर रहे हैं, और यह क्या, मैं तो बिल्कुल सूखा हूँ अब तक। काश मैं भी अपने उस प्रिय जन के साथ भीग पाती! पर यह क्या, वह ल