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‘गरजत बरसत भीजत आई लो...’ : SWARGOSHTHI – 177 : Raag Gaud Malhar

स्वरगोष्ठी – 177 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 3 : राग गौड़ मल्हार '...सावन आइलों लाल चुनरिया देहों मंगाय...'    ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के एक और सुहाने, हरियाले और रिमझिम फुहारों से युक्त अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र उपस्थित हूँ। इस मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की दूसरी कड़ी में एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन है। मित्रों, इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं पर चर्चा करेंगे। इसके साथ ही सम्बन्धित राग के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी प्रस्तुत कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत मल्हार अंग के सभी राग पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में समर्थ हैं। आम तौर पर इन रागों का गायन-वादन वर्षा ऋतु में अधिक किया जाता है। इसके साथ ही कुछ ऐसे सार्वकालिक राग भी हैं जो स्वतंत्र रूप से अथवा मल्हार अंग के मेल से भ

फूल गेंदवा ना मारो... - रसूलन बाई के श्रृंगार रस में हास्य रस का रंग भरते मन्ना डे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 695/2011/135 "ओ ल्ड इज गोल्ड" पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की आज की इस नई कड़ी में कृष्णमोहन मिश्र की ओर से आप सभी पाठकों / श्रोताओं का स्वागत है| कल के अंक में हमने पूरब अंग ठुमरी की अप्रतिम गायिका रसूलन बाई के कृतित्व से आपका परिचय कराया था| आज हम पूरब अंग की ठुमरी पर चर्चा जारी रखते हुए एक ऐसे व्यक्तित्व से परिचय प्राप्त करेंगे, जिन्हें ठुमरी की "बनारसी शैली के प्रवर्तक" के रूप में मान्यता दी गई है| ठुमरी के इस शिखर-पुरुष का नाम है जगदीप मिश्र| इनका जन्म आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) के एक कथक परिवार में हुआ था| संगीत के संस्कार उन्हें अपने संगीतजीवी परिवार से ही मिले| बाद में इनका परिवार वाराणसी आकर बस गया| जगदीप जी, भैया गणपत राव के समकालीन थे और उन्ही के समान ठुमरी गायन में बोलों के बनाव अर्थात बोलों में निहित भावों को स्वरों की सहायता से अभिव्यक्त करने के पक्ष में थे| वाराणसी के संगीत परिवेश के जानकार और ठुमरी गायक रामू जी (रामप्रसाद मिश्र) के अनुसार मौजुद्दीन खाँ ने प्रारम्भ में जगदीप मिश्र को सुन-सुन कर ही ठुमरी गाना सीखा थ

लागा चुनरी में दाग छुपाऊं कैसे....देखिये कैसे लौकिक और अलौकिक स्वरों के बीच उतरते डूबते मन्ना दा बाँध ले जाते हैं हमारा मन भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 648/2010/348 'अ पने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' - मन्ना डे को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस शृंखला की आठवीं कड़ी में मैं, कृष्णमोहन मिश्र आप सभी का स्वागत करता हूँ। शंकर-जयकिशन और अनिल विश्वास के अलावा एक और अत्यन्त सफल संगीतकार थे, जो मन्ना डे की प्रतिभा के कायल थे।| उस संगीतकार का नाम था- रोशनलाल नागरथ, जिन्हें फिल्म संगीत के क्षेत्र में रोशन के नाम से खूब ख्याति मिली थी। अभिनेता राकेश रोशन और संगीतकार राजेश रोशन उनके पुत्र हैं तथा अभिनेता ऋतिक रोशन पौत्र हैं। रोशन जी की संगीत शिक्षा लखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय (वर्तमान में विश्वविद्यालय) से हुई थी। उन दिनों महाविद्यालय के प्रधानाचार्य डा. श्रीकृष्ण नारायण रातनजनकर थे। रोशन जी डा. रातनजनकर के प्रिय शिष्य थे। संगीत शिक्षा पूर्ण हो जाने के बाद रोशन ने दिल्ली रेडियो स्टेशन में दिलरुबा (एक लुप्तप्राय गज-तंत्र वाद्य) वादक की नौकरी की। उनका फ़िल्मी सफ़र 1948 में केदार शर्मा की फिल्म 'नेकी और बदी' से आरम्भ हुआ, किन्तु शुरुआती फिल्मे कुछ खास चली नहीं। मन्ना डे से रोशन का साथ 1957 की

ई मेल के बहाने यादों के खजाने - जब बचपन जवानी और बुढापा सिमट गया था एक गीत में...हमारी श्रोता अनीता जी के लिए

'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' आपके मनपसंद स्तंभ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ही एक साप्ताहिक विशेषांक है, जिसमें हम आप ही के ईमेल शामिल भी करते हैं और अगर आपने किसी गीत की फ़रमाइश की है तो उसे भी हम इसमें सुनवाते हैं। आज हम दो एक नहीं बल्कि दो दो ईमेल शामिल कर रहे हैं। पहला ईमेल हमें भेजा है ख़ानसाब ख़ान ने। ये लिखते हैं ... आदाब, 'मजलिस-ए-क़व्वाली' की महफ़िल वाक़ई बहुत बहुत शानदार और जानदार थी। या युं कहें कि आपकी ये अदायगी हमें उस दौर के गानों का और ज़्यादा दीवाना बना गई। आप इतनी गम्भीरता से अपनी प्रस्तुति देते हैं कि हम आख़िर उसमें खो ही जाते हैं। और आपको शुक्रिया कहने के लिए ई-मेल कर ही देते हैं। 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' की क़व्वाली "अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में" मुझे सब से ज़्यादा पसंद आई। मेरी पसंद तो आप ने मेरी बिना फ़रमाइश के ही पूरी कर दी। इसके लिए 'आवाज़' की पूरी टीम को तहे दिल से बहुत बहुत धन्यवाद! ख़ानसाब, बहुत बहुत शुक्रिया आपका। आप समय समय पर इस तरह के ई-मेल भेज कर हमारा हौसला अफ़ज़ाई करते रहते हैं। यकीन मानिए, ये हमारे ल

ई मेल के बहाने यादों के खजाने (१०) - ऐसीच हूँ मैं कहकर इंदु जी जीत लेती हैं सबका दिल

'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। "आज है २ अक्तुबर का दिन, आज का दिन है बड़ा महान, आज के दिन दो फूल खिले हैं, जिनसे महका हिंदुस्तान, नाम एक का बापू गांधी और एक लाल बहादुर है, एक का नारा अमन एक का जय जवान जय किसान"। समूचे 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और महान नेता लाल बहादुर शास्त्री को उनकी जयंती पर स्नेह नमन अर्पित करते हुए आज का यह अंक शुरु कर रहे हैं। 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने', दोस्तों, यह 'आवाज़' का एक ऐसा साप्ताहिक स्तंभ है जिसमें हम आप ही की बातें करते हैं जो आप ने हमें ईमेल के माध्यम से लिख भेजा है। यह सिलसिला पिछले १० हफ़्तों से जारी है और हर हफ़्ते हम आप ही में से किसी दोस्त के ईमेल को शामिल कर आपके भेजे हुए यादों को पूरी दुनिया के साथ बाँट रहे हैं। आज के अंक के लिए हम चुन लाये हैं हमारी प्यारी इंदु जी का ईमेल और उनकी पसंद का एक निहायती ख़ूबसूरत गीत। आइए अब आगे का हाल इंदु जी से ही जानें। ********************************************************** कुछ बड़े प्यारे गाने हैं, ज

पड़े बरखा फुहार, करे जियरा पुकार....इंदु जी और पाबला जी के जीवन से जुड़ा एक खास गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 403/2010/103 'प संद अपनी अपनी' के तहत इन दिनों आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन रहे हैं अपनी ही पसंद के गानें। आज बारी है इंदु जी के फ़रमाइश की। वैसे भए इस गीत की फ़रमाइश इंदु जी ने लिख भेजी है, लेकिन इस गीत के चुनाव के पीछे हमारे अति परिचित पाबला जी का भी योगदान है। तो हम इस गीत को इन दोनों की मिली जुली फ़रमाइश ही मान लेते हैं। यह गीत है फ़िल्म 'दूज का चांद' का "पड़े बरखा फुहार, करे जियरा पुकार, दुख जाने ना हमार, बैरन रुत बरसात की"। लता मंगेशकर की आवाज़, साहिर लुधियानवी के बोल और रोशन का संगीत। इसे संयोग ही हम कहेंगे कि पिछले तीन दिनों से हम जो फ़रमाइशी गीत सुन रहे हैं वो सभी साहिर साहब के ही लिखे हुए हैं। फ़िल्म 'दूज का चांद' के इस गीत को चुनने के पीछे जो विशेष कारण है उसे हम आप सब के साथ बाँटना चाहेंगे। पाबला जी की बेटी जब बहुत छोटी थी, तो किसी बिमारी की वजह से वो कई दिनों तक अवचेतन रही। किसी भी तरीके से कुछ हो नहीं पा रहा था। ऐसे में कहीं से जब यह गीत गूंजा तो उनकी बेटी ने रेस्पॊण्ड किया और उसकी चेतना वापस आई और फिर धीरे ध

गरजत बरसात सावन आयो री....सुन कर इस गीत को जैसे बिन बादल बारिश में भीग जाता है मन

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 395/2010/95 भा रतीय शास्त्रीय संगीत की यह विशिष्टता रही है कि हर मौसम, हर ऋतु के हिसाब से इसे गाया जा सकता है। तो ज़ाहिर है कि सावन पर भी कई राग प्रचलित होंगे। मल्हार, मेघ, मेघ मल्हार, मियाँ की मल्हार, गौर मल्हार इन्ही रागों में से एक है। आज 'सखी सहेली' शृंखला के अंतरगत हमने जिस युगल गीत को चुना है, वह आधारित है राग गौर मल्हार पर। "गरजत बरसत सावन आयो रे", फ़िल्म 'बरसात की रात' का यह गीत है जिसे सुमन कल्याणपुर और कमल बारोट ने गाया है। साहिर लुधियानवी के बोल और रोशन साहब की तर्ज़। इसी राग पर वसंत देसाई ने भी फ़िल्म 'आशीर्वाद' में एक गाना बनाया था "झिर झिर बरसे सावनी अखियाँ, सांवरिया घर आ"। 'बरसात की रात' रोशन साहब के करीयर की एक महत्वपूर्ण फ़िल्म साबित हुई। इस फ़िल्म के हर एक गीत में कुछ ना कुछ अलग बात थी। और क्यों ना हो जब फ़िल्म की कहानी ही एक क़व्वाली प्रतियोगिता के इर्द गिर्द घूम रही हो। ज़ाहिर है कि इस फ़िल्म में कई क़व्वालियाँ थीं जैसे कि "ना तो कारवाँ की तलाश है", "निगाह-ए-नाज़ के मारों का

सलामे हसरत कबूल कर लो...इस गीत में सुधा मल्होत्रा की आवाज़ का कोई सानी नहीं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 334/2010/34 फ़ि ल्म संगीत के कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं को याद करने का सिलसिला जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की विशेष लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' के तहत। ये कमचर्चित गायिकाएँ फ़िल्म संगीत के मैदान के वो खिलाड़ी हैं जिन्होने बहुत ज़्यादा लम्बी पारी तो नहीं खेली, पर अपनी छोटी सी पारी में ही कुछ ऐसे सदाबहार गानें हमें दे गए हैं कि जिन्हे हम आज भी याद करते हैं, गुनगुनाते हैं, हमारे सुख दुख के साथी बने हुए हैं। यह हमारी बदकिस्मती ही है कि अत्यंत प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी ये कलाकार चर्चा में कम ही रहे, प्रसिद्धी इन्हे कम ही मिली, और आज की पीढ़ी के लिए तो इनकी यादें दिन ब दिन धुंधली होती जा रही हैं। पर अपने कुछ चुनिंदा गीतों से अपनी अमिट छाप छोड़ जाने वाली ये गायिकाएँ सुधी श्रोताओं के दिलों पर हमेशा राज करती रहेंगी। आज एक ऐसी ही प्रतिभा संपन्न गायिका का ज़िक्र इस मंच पर। आप हैं सुधा मल्होत्रा। जी हाँ, वही सुधा मल्होत्रा जिन्होने 'नरसी भगत' में "दर्शन दो घनश्याम", 'दीदी' में "तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको", 'क

बहुत दिया देने वाले ने तुझको, आँचल ही न समाये तो क्या कीजै...कह तो दिया सब कुछ शैलेन्द्र ने और हम क्या कहें...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 284 फ़ि ल्म संगीत के ख़ज़ाने में ऐसे अनगिनत लोकप्रिय गानें हैं जिन्होने बहुत जल्द लोकप्रियता तो हासिल कर ली, लेकिन एक समय के पश्चात कहीं अंधेरे में खो से गए। लेकिन समय समय पर कुछ ऐसे भी गानें बनें हैं जो जीवन की मह्त्वपूर्ण पहलुओं से हमें अवगत करवाते है। जीवन दर्शन और हमारे अस्तित्व के पीछे जो छुपे राज़ और फ़लसफ़ा हैं, उन्हे उजागर किया गया है ऐसे गीतों के माध्यम से। और इस तरह के गीत कभी भी अंधेरे में गुम नहीं हो सकते, बल्कि ये तो हमेशा हमारे साथ चलते हैं हमारे मार्गदर्शक बनकर। ये गीत किसी स्थान काल या पात्र के लिए नहीं होते, बल्कि हर युग में हर इंसान के लिए उतने ही सार्थक और लाभदायक होते हैं। गीतकार शैलेन्द्र एक ऐसे गीतकार रहे हैं जिन्होने इस तरह के दार्शनिक गीतों में जैसे जान डाल दी है। उनके लिखे सीधे सरल और हल्के फुल्के गीतों में भी ग़ौर करें तो कोई ना कोई दर्शन सामने आ ही जाता है। और कुछ गानें तो हैं ही पूरी तरह से दार्शनिक। आज हमने एक ऐसा ही गाना चुना है जिसे सुनकर हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी है उनसे हम क्यों नहीं संतुष्ट रहते? क्यो

छुपालो यूं दिल में प्यार मेरे कि जैसे मंदिर में लौ दिए की...हर सुर पवित्र हर शब्द पाक

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 222 रा ग यमन एक ऐसा राग है जिसकी उंगली थाम हर संगीत विद्यार्थी शास्त्रीय संगीत सीखने के मैदान में उतरता है। इसके पीछे भी कारण है। राग यमन के असंख्य रूप हैं, कई नज़रिए हैं। यमन के मूल रूप को आधार बना कर बहुत से राग रागिनियाँ बनाई जा सकती है। यह राग मौका देती है संगीतज्ञों को नए नए प्रयोग करने के लिए, संगीत के नए नए आविष्कार करने के लिए। आज भी शास्त्रीय संगीत के गुरु अपने छात्रों को सब से पहले राग यमन पर दक्षता हासिल करने की सलाह दिया करते हैं क्योंकि एक बार यमन सिद्धहस्थ हो जाए तो बाक़ी के राग बड़ी आसानी से रप्त हो जाएँगे। वो कहते हैं ना कि "एक साधे सब साधे", बस वही बात है, एक बार यमन को मुट्ठी में कर लिया तो आप इस सुर संसार पर राज कर सकते हैं। जैसा कि अभी हमने आपको बताया कि राग यमन के बहुत सारे रूप हैं, तो उनमें एक महत्वपूर्ण है राग यमन कल्याण। आज 'दस राग दस रंग' में इसी राग की बारी। इस राग पर फ़िल्मों में असंख्य गीत बने हैं, जिनमें से एक बेहद सुरीला और उत्कृष्ट गीत हम चुन कर लाए हैं। यह गीत फ़िल्म 'ममता' का है, जिसे रोशन के संगीत में

मुस्कुराहट तेरे होंठों की मेरा सिंगार है....लता जी का हँसता हुआ चेहरा संगीत प्रेमियों के लिए ईश्वर का प्यार है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 216 आ ज २८ सितंबर का दिन फ़िल्म संगीत के लिए एक बेहद ख़ास दिन है। क्यों शायद बताने की ज़रूरत नहीं। लता जी को ईश्वर दीर्घायु करें, उन्हे उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें, लता जी के जन्मदिन पर हम तह-ए-दिल से उन्हे मुबारक़बाद देते हैं। आज है साल २००९। आज से ८० साल पहले १९२९ को लता जी का जन्म हुआ था मध्य प्रदेश के इंदौर में। दोस्तों आज मौका है लता जी के जन्मदिन का, तो क्यों ना आज हम उन्ही से जानें उनकी जनम के बारे में। एक बार अमीन सायानी ने लता जी का एक इंटरव्यू लिया जिसमें उन्होने लता जी को कई 'कॊन्ट्रोवर्शियल' सवालों के जाल से घेर लिया था, लेकिन लता जी हर बार जाल को चीरते हुए बाहर निकल आईं थीं। उन सवालों में से एक सवाल यह भी था - "कुछ लोगों का ख़याल है कि कुछ सस्पेन्स सा आप ने क्रीएट किया हुआ है कि आप कहाँ पैदा हुईं थीं। कुछ कहते हैं गोवा में पैदा हुईं थीं, कुछ कहते हैं धुले में, कुछ इंदौर में, तो कुछ कहीं और का बताते हैं। तो आप बताइए कि आप कहाँ पैदा हुईं थीं?" लता जी का बेझिझक जवाब था - "नहीं, इसमें कोई सस्पेन्स नहीं है अमीन भाई, मेरा जनम इंदौर

संसार से भागे फिरते हो...साहिर और रोशन ने रचा वो गीत जिसने सवाल उठाये बेहद सार्थक

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 205 औ र आज बारी आ गई है स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' जी के पसंद का पाँचवा गीत सुनने की। हम इसे उनकी पसंद का अंतिम गीत नहीं कहेंगे क्योंकि वो आगे भी पहेली प्रतियोगिता को ज़रूर जीतेंगी और हमें अपने पसंद के और सुरीले गानें सुनवाएँगी, ऐसा हम उनसे उम्मीद रखते हैं। बहरहाल आइए बात की जाए आज के गीत की। आज का गीत है फ़िल्म 'चित्रलेखा' से लता जी का गाया हुआ, "संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पायोगे"। इस फ़िल्म का लता जी का ही गाया हुआ एक दूसरा गीत "सखी री मेरा मन उलझे तन डोले" हम आप को सुनवा चुके हैं और उस गीत के साथ साथ 'चित्रलेखा' की कहानी और फ़िल्म से जुड़ी तमाम बातें भी बता चुके हैं। साहिर लुधियानवी की गीत रचनायों को सुरों में ढाला था संगीतकार रोशन ने, और यह फ़िल्म रोशन के संगीत यात्रा की एक उल्लेखनीय फ़िल्म रही है। इस फ़िल्म में रोशन ने अपनी तरफ़ से यह साबित कर दिखाया कि शास्त्रीय संगीत पर आधारित गानें भी लोकप्रिय गीतों की तालिका में शामिल किए जा सकते हैं। लता जी के गाए इन दो गीतों के अलावा इस फ़िल्म के दूसरे मशहूर गा

ना ना ना रे ना ना ...हाथ ना लगाना... दो अलग अंदाज़ ओ आवाज़ की गायिकाओं का सुंदर मेल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 95 आ म तौर पर फ़िल्मी युगल गीत में एक गायक और एक गायिका की आवाज़ें हुआ करती हैं। लेकिन समय समय पर कुछ ऐसे युगल गीत भी बने हैं जिन्हे या तो दो गायकों ने गाये हैं या फिर दो गायिकाओं ने, और इनमें से बहुत सारे गानें बेहद कामयाब भी हुए हैं। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक ऐसा ही 'फ़िमेल डुएट' प्रस्तुत है। फ़िल्म संगीत के इतिहास मे अगर झाँका जाए तो हम पाते हैं कि ऐसी बहुत सारी फ़िल्में हैं जिनमें लता मंगेशकर ने नायिका का पार्श्वगायन किया है जब कि कुछ थोड़े से कमचर्चित गायिकाओं ने दूसरी चरित्र अभिनेत्रियों या फिर नायिका की सहेलियों, या फिर किसी जलसे या मुजरे के लिए अपनी आवाज़ें दी हैं। यह भी एक ऐसा ही गीत है जिसे दो बड़े ही अनोखी गायिकाओं ने गाया है। यह गीत है १९६३ की फ़िल्म ताजमहल का जिसे गाया है सुमन कल्याणपुर और मीनू पुरुषोत्तम ने। यूँ तो इस मशहूर फ़िल्म के बहुत से गीत बहुत ही कामयाब हुए, ख़ास कर लता-रफ़ी के गाए "जो वादा किया" और "पाँव छू लेने दो", और दूसरे कुछ गीत भी प्रसिद्ध हुए। उस दृष्टि से सुमन और मीनू का गाया यह गीत ज़रा कम सुना

देखती ही रहो आज दर्पण ना तुम, प्यार का यह महूरत निकल जाएगा...नीरज का लिखा एक प्रेम गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 89 यूँ तो फ़िल्मी गीतकारों का एक अलग ही जहाँ है, उनकी अलग पहचान है, उनकी अलग अलग खासियत है, लेकिन फ़िल्म संगीत के इतिहास में अगर झाँका जाये तो हम पाते हैं कि समय समय पर कई साहित्य से जुड़े शायर और कवियों ने इस क्षेत्र में अपने हाथ आज़माये हैं। इन साहित्यकारों ने फ़िल्मों में बहुत कम काम किया है लेकिन जो भी किया है उसके लिए अच्छे फ़िल्म संगीत के चाहनेवाले उनके हमेशा क़द्रदान रहेंगे। इन्हे फ़िल्मी गीतों में पाना हमारा सौभाग्य है, फ़िल्म संगीत का सौभाग्य है। अगर हिंदी के साहित्यकारों की बात करें तो कवि प्रदीप, पंडित नरेन्द्र शर्मा, विरेन्द्र मिश्र, बाल कवि बैरागी, महादेवी वर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, अमृता प्रीतम, और डा. हरिवंशराय बच्चन के साथ साथ कवि गोपालदास 'नीरज' जैसे साहित्यकारों के क़दम फ़िल्म जगत पर पड़े हैं। जी हाँ, कवि गोपाल दास 'नीरज', जिन्होने फ़िल्मों में नीरज के नाम से एक से एक 'हिट' गीत लिखे हैं। उन्होने सबसे ज़्यादा काम सचिन देव बर्मन के साथ किया है, जैसे कि शर्मिली, प्रेम पुजारी, गैम्बलर, तेरे मेरे सपने, आदि फ़िल्मों में। संगीत

सखी री मेरा मन उलझे तन डोले....रोशन साहब का लाजवाब संगीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 88 दो स्तों, अगर आपको याद हो तो कुछ रोज़ पहले हमने आपको 'आम्रपाली' फ़िल्म का एक गीत सुनवाया था और साथ ही आम्रपाली की कहानी भी सुनाई थी। आम्रपाली की तरह एक और नृत्यांगना हमारे देश में हुईं हैं चित्रलेखा। आज इन्ही का ज़िक्र 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। चित्रलेखा सम्राट चंद्रगुप्त के समय की राज नर्तकी थीं। चंद्रगुप्त का एक दोस्त बीजगुप्त हुआ करता था जो चित्रलेखा को देखते ही उससे प्यार कर बैठा। वह चित्रलेखा के प्यार में इस क़दर खो गया कि उसके लिए सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो गया। चित्रलेखा भी उससे प्यार करने लगी। लेकिन बीजगुप्त का विवाह यशोधरा से तय हो चुका था। यशोधरा के पिता को जब बीजगुप्त और चित्रलेखा की प्रेम कहानी का पता चला तो वो योगी कुमारगिरि के पास गये और उनसे विनती की, कि वो चित्रलेखा को बीजगुप्त से मिलने जुलने को मना करें। योगी कुमारगिरि चित्रलेखा को उसके दायित्वों और कर्तव्यों की याद दिलाते हैं लेकिन चित्रलेखा योगी महाराज की बातों को हँसकर अनसुना कर देती हैं। लेकिन आगे चलकर एक दिन चित्रलेखा को अपनी ग़लतियों का अहसास हो जाता है। आईने में अपने

सागर मिले कौन से जल में....जीवन की तमाम सच्चाइयां समेटे है ये छोटा सा गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 85 जी वन दर्शन पर आधारित गीतों की जब बात चलती है तो गीतकार इंदीवर का नाम झट से ज़हन में आ जाता है। यूँ तो संगीतकार जोड़ी कल्याणजी - आनंदजी के साथ इन्होने बहुत सारे ऐसे गीत लिखे हैं, लेकिन आज हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में उनके लिखे जिस दार्शनिक गीत को आप तक पहुँचा रहे हैं वो संगीतकार रोशन की धुन पर लिखा गया था। मुकेश और साथियों की आवाज़ों में यह गीत है फ़िल्म 'अनोखी रात' का - "ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में कोई जाने ना". १९६८ में प्रदर्शित यह फ़िल्म रोशन की अंतिम फ़िल्म थी। इसी फ़िल्म के गीतों के साथ रोशन की संगीत यात्रा और साथ ही उनकी जीवन यात्रा भी अचानक समाप्त हो गई थी १९६७, १६ नवंबर के दिन। अचानक दिल का दौरा पड़ने से उनका अकाल निधन हो गया। इसे भाग्य का परिहास ही कहिए या फिर काल की क्रूरता कि जीवन की इसी क्षणभंगुरता को साकार किया था रोशन साहब के इस गीत ने, और यही गीत उनकी आख़िरी गीत बनकर रह गया. ऐसा लगा जैसे उनका यह गीत उन्होने अपने आप पर ही सच साबित करके दिखाया। इंदीवर ने जो भाव इस गीत में साकार किया है