Skip to main content

Posts

Showing posts with the label old is gold

बहारों ने जिसे छेड़ा है....वही तराना ज्ञानदत्त का रचा साजे दिल बना राज कपूर का

१९४९ में प्रदर्शित फिल्म ‘सुनहरे दिन’ का निर्माण जगत पिक्चर्स ने किया था, जिसके निर्देशक सतीश निगम थे। फिल्म में राज कपूर की भूमिका एक रेडियो गायक की थी। अपने श्रोताओं के बीच यह गायक चरित्र बेहद लोकप्रिय है। इस फिल्म का संगीत वर्तमान में लगभग विस्मृत संगीतकार ज्ञानदत्त ने दिया था।

आई गोरी राधिका, ब्रज में बलखाती...नीनू मजूमदार की धुन और राज कपूर की स्मरण शक्ति

१९७८ में राज कपूर द्वारा निर्मित-निर्देशित फिल्म ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म का एक गीत ‘यशोमति मैया से बोले नन्दलाला...’ बेहद लोकप्रिय पहले भी था और आज भी है। इसके गीतकार नरेन्द्र शर्मा और संगीतकार लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल थे। इस सुमधुर गीत की धुन के लिए लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल को भरपूर श्रेय दिया गया था। बहुत कम लोगों का ध्यान इस तथ्य की ओर गया होगा कि इस मोहक गीत की धुन के कारक स्वयं राज कपूर ही थे।

जिन्दा हूँ इस तरह...राज कपूर के पहले संगीत निर्देशक राम गांगुली ने रचा था ये दर्द भरा नग्मा

राज कपूर के फिल्म-निर्माण की लालसा का आरम्भ फिल्म ‘आग’ से हुआ था, जिसके संगीतकार राम गांगुली थे। दरअसल यह पहली फिल्म राज कपूर के भावी फिल्मी जीवन का एक घोषणा-पत्र था। ठीक उसी प्रकार, जैसे लोकतन्त्र में चुनाव लड़ने वाला प्रत्याशी अपने दल का घोषणा-पत्र जनता के सामने प्रस्तुत करता है। ‘आग’ में जो मुद्दे लिये गए थे, बाद की फिल्मों में उन्हीं मुद्दों का विस्तार था, और ‘आग’ की चरम परिणति ‘मेरा नाम जोकर’ में हम देखते हैं।

एक राधा एक मीरा, दोनों ने श्याम को चाहा...दादु की दिव्य चेतना में कायम रहे उनकी संगीत साधना

टी.पी. साहब ने ज़िक्र किया कि दादु, राज साहब को गाना सुनाओ। यह गीत मैंने 'जीवन' फ़िल्म के लिए लिखा था, 'राजश्री' वालों के लिए। दो ऐसे गीत हैं जो दूसरी फ़िल्म में आ गए, उसमें से एक है 'अखियों के झरोखों से' का टाइटल सॉंग, सिप्पी साहब के लिए लिखा था जो 'घर' फ़िल्म बना रहे थे, लेकिन वो कुछ ऐसी बात हो गई कि उनके डिरेक्टर को पसन्द नहीं आया, उनको गाना ठंडा लगा। तो मैंने राज बाबू को सुना दिया तो उन्होंने यह टाइटल रख लिया। फिर सिप्पी साहब ने वही गाना माँगा मुझसे, मैंने कहा कि अब तो मैंने गाना दे दिया किसी को। बाद में ज़रा वो नाख़ुश भी हो गए थे। तो यह गाना 'जीवन' फ़िल्म के लिए, प्रशान्त नन्दा जी डिरेक्ट करने वाले थे, उसके लिए "एक राधा एक मीरा" लिखा था मैंने। तो राज साहब वहाँ बैठे थे। तो यह गाना जब सुनाया तो राज साहब ने दिव्या से पूछा कि यह गीत किसी को दिया तो नहीं? मैंने कहा कि नहीं, दिया तो नहीं! राज साहब तीन दिन थे और तीनो दिन वो मुझसे यह गाना सुनते रहे। और टी.पी. भाईसाहब से सवा रुपय लिया और मुझे देकर कहा कि आज से यह गाना मेरा हो गया, मुझे दे द

सांची कहे तोरे आवन से हमरे....याद आया ये मासूम सा गीत दादु के संगीत से संवरा

आज के अंक में हम आपको सुनवा रहे हैं फिर एक बार 'राजश्री' और 'रवीन्द्र जैन की जोड़ी की एक और ज़बरदस्त हिट फ़िल्म 'नदिया के पार' (१९८२) का गीत जसपाल सिंह की आवाज़ में। बोल हैं "सांची कहे तोरे आवन से हमरे अंगना में आये बहार भौजी"। फ़िल्म का पार्श्व ग्रामीण था, इसलिए फ़िल्म के गीतों में संगीत भी भोजपुरी शैली के थे। पर जब 'राजश्री' ने ९० के दशक में इसी फ़िल्म का शहरी रूपान्तर कर 'हम आपके हैं कौन' के रूप में पेश किया, तब इसी गीत का शहरी रूप बन गया "धिकताना धिकताना धिकताना, भाभी तुम ख़ुशियों का ख़ज़ाना"।

ऐ मेरे उदास मन चल दोनों कहीं दूर चलें...येसुदास ने अपने सबसे बेहतरीन गीत गाये दादु के लिए

एक दिन बासु भट्टाचार्य जी ने येसुदास को लाकर कहा कि यह लड़का गाएगा, इसे सुन लो। हम लोग अमोल पालेकर के लिए एक नई आवाज़ की तलाश कर रहे थे, तो येसुदास जी की आवाज़ उन पर बिल्कुल फ़िट हो गई, बहुत ही अच्छे गुणी कलाकार हैं। और यह जो गाना है न, "जब दीप जले आना", इसकी धुन मैंने पहले कलकत्ते में तैयार किया था एक नाटक के लिए, 'मृच्छ कटिका'। इसके बाद हम तो चल पड़े, मंज़िल की जिसको धुन हो, उसे कारवाँ से क्या!" दोस्तों, इसी बात पर येसुदास का गाया फ़िल्म 'मान अभिमान' का वह गीत यकायक याद आ गया, जिसके बोल हैं "ऐ मेरे उदास मन चल दोनों कहीं दूर चलें, मेरे हमदम, तेरी मंज़िल, ये नहीं ये नहीं कोई और है

एक दिन तुम बहुत बड़े बनोगे...और दिल से बहुत बड़े बने दादु हमारे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 797/2011/237 'मे रे सुर में सुर मिला ले' शृंखला की सातवीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। रवीन्द्र जैन के लिखे और स्वरबद्ध किए गीतों की इस शृंखला में आइए आज आपको बतायें कि दादु को बम्बई में पहला मौका किस तरह से मिला। " झुनझुनवाला जी नें मुझे कहा कि तुम अभी थोड़ा धैर्य रखो, यहाँ बैठ के काम करो, अपने घर में जगह दी, और काम करता रहा, उनको धुनें बना बना के सुनाता था, उन्होंने एक फ़िल्म प्लैन की 'लोरी', जिसके लिए हम बम्बई गानें रेकॉर्ड करने आए थे, जिसका मुकेश जी नें दो गानें गाये। मुकेश जी का एक गाना मैं आपको सुनाता हूँ, जो कुछ मैं कलकत्ते से यहाँ लेके आया था - "दुख तेरा हो कि दुख मेरा हो, दुख की परिभाषा एक है, आँसू तेरे हों कि आँसू मेरे हों, आँसू की भाषा एक है "।"

ले तो आए हो हमें सपनों के गाँव में...दादू की धुनों पर खूब सजी हेमलता की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 796/2011/236 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी संगीत-रसिकों को सुजॉय चटर्जी और सजीव सारथी का प्यार भरा नमस्कार! आज रविवार, छुट्टी का यह दिन आपनें हँसी-ख़ुशी मनाया होगा, ऐसी हम उम्मीद करते हैं। और अब शाम ढल चुकी है भारत में, कल से नए सप्ताह का शुभारम्भ होने जा रहा है, फिर से ज़िन्दगी रफ़्तार पकड़ लेगी, दफ़्तर के कामों में, दैनन्दिन जीवन के उलझनों में फिर एक बार हम डूब जाएंगे। इन सब से अगर हमें कोई बचा सकता है तो वह है सुरीला संगीत। और इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जो शृंखला चल रही है वह भी बड़ा ही सुरीला है, क्योंकि जिन कलाकार पर यह शृंखला केन्द्रित है, वो बहुत ज़्यादा सुरीले हैं, स्तरीय हैं। रवीन्द्र जैन के लिखे और स्वरबद्ध किए गीतों से सजी शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' की आज है छठी कड़ी।

मिलिए २३-वर्षीय फ़िल्मकार हर्ष पटेल से

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 69 ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष' में मैं, सुजॉय चटर्जी, आप सभी का फिर एक बार स्वागत करता हूँ। दोस्तों, आज हम आपकी मुलाक़ात करवाने जा रहे हैं एक ऐसे फ़िल्म-मेकर से जिनकी आयु है केवल २३ वर्ष। ज़्यादा भूमिका न देते हुए आइए मिलें हर्ष पटेल से और उन्हीं से विस्तार में जाने उनके जीवन और फ़िल्म-मेकिंग् के बारे में। सुजॉय - हर्ष, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'आवाज़' पर। यह साहित्य, संगीत और सिनेमा से जुड़ी एक ई-पत्रिका है, इसलिए हमने आपको इस मंच पर निमंत्रण दिया और आपको धन्यवाद देता हूँ हमारे निमंत्रण को स्वीकार करने के लिए। हर्ष - आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद!

साथी रे, भूल न जाना मेरा प्यार....कोई कैसे भूल सकता है दादु के संगीत योगदान को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 795/2011/235 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, इन दिनों आप आनन्द ले रहे हैं सुरीले संगीतकार व अर्थपूर्ण गीतों के गीतकार रवीन्द्र जैन पर केन्द्रित लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' का। आज पाँचवीं कड़ी में हम आपको बताने जा रहे हैं रवीन्द्र जैन का हिन्दी फ़िल्म जगत में आगमन कैसे हुआ। ४० के दशक के अन्त और ५० के दशक के शुरुआती सालों में अलीगढ़ में रहते हुए ही रवीन्द्र जैन के अन्दर संगीत का बीजारोपण हो चुका था। वो गोष्ठियों में जाया करते, मुशायरों में जाया करते। उनमें शायर इक़बाल उनके अच्छे दोस्त थे। उनका एक और दोस्त था निसार जो रफ़ी, मुकेश और तमाम गायकों के गीत उन्हीं के अंदाज़ में गाया करते थे। इस तरह से वो शामें बड़ी हसीन हुआ करती थीं। कभी बाग में, कभी रेस्तोरां में, देर रात तक महफ़िलें चला करतीं और रवीन्द्र जैन उनमें हारमोनियम बजाया करते गीतों के साथ। अन्ताक्षरी में जब कोई अटक जाता तो वो तुरन्त गीत बता दिया करते। ६० के दशक में रवीन्द्र जैन कलकत्ता आ गए। वहाँ पर नामचीन फ़िल्मकार हृतिक घटक से उनकी मुलाकात हुई जिन्होंने उन्हें सुन कर यह कहा था कि वे ब

अकेला चल चला चल...मंजिल की पुकार सुनाता ये गीत दादु का रचा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 794/2011/234 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी साथियों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार और स्वागत है आप सभी का रवीन्द्र जैन के लिखे और स्वरबद्ध किए गीतों से सजी लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' की चौथी कड़ी में। आइए एक बार फिर रुख़ करते हैं विविध भारती के उसी साक्षात्कार की ओर जिसमें दादु बता रहे हैं अपने शुरुआती दिनों के बारे में। पिछली कड़ी में ज़िक्र आया था दादु के बड़े भाई डी. के. जैन का, जिनका रवीन्द्र जैन के जीवन में बड़ा महत्व है, आइए आज वहीं से बात को आगे बढ़ाते हैं। " भाईसाहब साहित्य कर रहे थे उन दिनों, उन्होंने डी.लिट किया, जैन ऑथर्स ऑफ़ फ़्रेन्च पे काम कर रहे थे, तो किताबें रहती थी उनके रूम में ढेर सारी, तो मैं वहीं बैठा रहता था उनके पास, उनको कहता था कि थोड़ा ज़ोर-ज़ोर से पढ़ें ताकि मैं अपने अन्दर समेट सकूँ उन रचनाओं को, उस साहित्य को सहेज के रख सकूँ। आप जो भी आज सुनते हैं वो सारा वहीं से अनुप्रेरीत है। और अलीगढ़ में मेरे ज़्यादातर दोस्त मुस्लिम रहे, मेरे घर के पास ही मोहल्ला है, उपर कोर्ट, दिन वहीं गुज़रता था, मेरे बचपन की एक बान्धवी मेरे

तू जो मेरे सुर में सुर मिला दे...दादु के इस मनुहार को भला कौन इनकार कर पाये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 793/2011/233 "तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले, संग गा ले, तो ज़िन्दगी हो जाये सफल"। यह बात किसी और के लिए सटीक हो न हो, रवीन्द्र जैन के लिए १००% सही है क्योंकि उनके सुरों में जिन जिन नवोदित गायक गायिकाओं नें सुर मिलाया, उन्हें प्रसिद्धि मिली, उन्हें यश प्राप्त हुआ, उनका करीयर चल पड़ा। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार सुजॉय चटर्जी का और इन दिनों इस स्तंभ में जारी है लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' जिसमें आप सुन रहे हैं गीतकार-संगीतकार रवीन्द्र जैन की फ़िल्मी रचनाएँ और जान रहे हैं उनके जीवन की दास्तान उनकी ही ज़ुबानी विविध भारती की शृंखला 'उजाले उनकी यादों के' के सौजन्य से। कल की कड़ी में आपने जाना कि किस तरह से जन्म से ही उनकी आँखों की रोशनी जाती रही और इस कमी को ध्यान में रखते हुए उनके पिताजी नें उन्हें गीत-संगीत की तरफ़ प्रोत्साहित किया। अब आगे की कहानी दादु की ज़ुबानी - " तो यहाँ अलीगढ़ में नाटकों में मास्टर जी. एल. जैन संगीत निर्देशन किया करते थे, आर्य-जैन समाज के, और उन्होंने सबसे पहले जो ग़ज़ल मुझे सिखाई थी,

श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम....दादु का ये गीत कितना सकून भरा है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 792/2011/232 गी तकार-संगीतकार-गायक रवीन्द्र जैन पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' की दूसरी कड़ी में आप सभी का फिर एक बार हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, जैसा कि कल हमने कहा था कि रवीन्द्र जैन की दास्तान शुरु से हम आपको बताएंगे, तो आज की कड़ी में पढ़िए उनके जीवन के शुरुआती दिनों का हाल दादु के ही शब्दों में (सौजन्य: उजाले उनकी यादों के, विविध भारती)। जब दादु से यह पूछा गया कि वो अपने बचपन के दिनों के बारे में बताएँ, तो उनका जवाब था - " बचपन तो अभी गया नहीं है, क्योंकि जहाँ तक ज्ञान का सम्बंध है, आदमी हमेशा बच्चा ही रहता है, यह मैं मानता हूँ। उम्र में भले ही हमने बचपन खो दिया हो, लेकिन ज्ञान में अभी बच्चे हैं। तो अलीगढ़ में थे मेरे माता-पिता, अलीगढ़ से ही जन्म मुझको मिला, अलीगढ़ में ही हो गया था शुरु ये गीत और संगीत का सिलसिला। डॉ. मोहनलाल, जो मेरे पिताश्री के कन्टेम्पोररी थे, मेरे पिताजी का नाम पंडित इन्द्रमणि ज्ञान प्रसाद जी, तो मोहनलाल जी नें जन्म के दिन ही आँखों का छोटा सा एक ऑपरेशन किया, उन्होंने आँखें खोल

हर हसीं चीज़ का मैं तलबगार हूँ...कहता हुआ आया वो सुरों का सौदागर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 791/2011/231 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी रसिक श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! दोस्तों, ७० के दशक के मध्य भाग से फ़िल्म-संगीत में व्यवसायिक्ता सर चढ़ कर बोलने लग पड़ी थी। धुनों में मिठास कम और शोर-शराबा ज़्यादा होने लगा। गीतों के बोल भी अर्थपूर्ण कम और चलताऊ क़िस्म के होने लगे थे। गीतकार और संगीतकार को न चाहते हुए भी कई बंधनों में बंध कर काम करने पड़ते थे। लेकिन तमाम पाबन्दियों के बावजूद कुछ कलाकार ऐसे भी हुए जिन्होंने कभी हालात के दबाव में आकर अपने उसूलों और कला के साथ समझौता नहीं किया। भले इन कलाकारों नें फ़िल्में रिजेक्ट कर दीं, पर अपनी कला का सौदा नहीं किया। ७० के दशक के मध्य भाग में एक ऐसे ही सुर-साधक का फ़िल्म जगत में आगमन हुआ था जो न केवल एक उत्कृष्ट संगीतकार हुए, बल्कि एक बहुत अच्छे काव्यात्मक गीतकार और एक सुरीले गायक भी हैं। यही नहीं, यह लाजवाब कलाकार पौराणिक विषयों के बहुत अच्छे ज्ञाता भी हैं। फ़िल्म-संगीत के गिरते स्तर के दौर में अपनी रुचिकर रचनाओं से इसके स्तर को ऊँचा बनाये रखने में उल्लेखनीय योगदान देने वाले इस श्रद्धेय कलाकार क

काहे मेरे राजा तुझे निन्दिया न आए...शृंखला की अंतिम लोरी कुमार सानु की आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 790/2011/230 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! आज इस स्तंभ में प्रस्तुत है लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' का अन्तिम अंक। अब तक इस शृंखला में आपने जिन गायकों की गाई लोरियाँ सुनी, वो थे चितलकर, तलत महमूद, हेमन्त कुमार, मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, किशोर कुमार, येसुदास और तलत अज़ीज़। आज इस शृंखला का समापन हम करने जा रहे हैं गायक कुमार सानू की आवाज़ से, और साथ मे हैं अनुराधा पौडवाल। १९९१ की फ़िल्म 'जान की कसम' की यह लोरी है "सो जा चुप हो जा...काहे मेरे राजा तुझे निन्दिया न आए, डैडी तेरा जागे तुझे लोरियाँ सुनाये"। जावेद रियाज़ निर्मित व सुशील मलिक निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे कृष्णा, साथी गांगुली, सुरेश ओबेरोय प्रमुख। फ़िल्म में संगीत था नदीम श्रवण का और गीत लिखे समीर नें। दोस्तों, यह वह दौर था कि जब टी-सीरीज़, नदीम श्रवण, समीर, अनुराधा पौडवाल की टीम पूरी तरह से फ़िल्म-संगीत के मैदान में छायी हुई थी, और एक के बाद एक म्युज़िकल फ़िल्में बनती चली जा रही थीं। गुलशन कुमार की हत्या के बाद ही जाकर यह दौर ख़त्म हुई औ

घर के उजियारे सो जा रे....याद है "डैडी" की ये लोरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 789/2011/229 'चं दन का पलना, रेशम की डोरी' - पुरुष गायकों की गाई फ़िल्मी लोरियों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की नवी कड़ी में आप सभी का मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ फिर एक बार स्वागत करता हूँ। आज की कड़ी के लिए हमनें जिस गीत को चुना है वह है १९८९ की फ़िल्म 'डैडी' का। फ़िल्म की कहानी पिता-पुत्री के रिश्ते की कहानी है। यह कहानी है पूजा की जिसे जवान होने पर पता चलता है कि उसका पिता ज़िन्दा है, जो एक शराबी है। पूजा किस तरह से उनकी ज़िन्दगी को बदलती है, कैसे शराब से उसे मुक्त करवाती है, यही है इस फ़िल्म की कहानी। बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी है इस फ़िल्म की। पूजा को उसके नाना-नानी पाल-पोस कर बड़ा करते हैं और उसे अपनी मम्मी-डैडी के बारे में कुछ भी मालूम नहीं। उसके नाना, कान्ताप्रसाद के अनुसार उसके डैडी की मृत्यु हो चुकी है। पर जब पूजा बड़ी होती है तब उसे टेलीफ़ोन कॉल्स आने लगते हैं जो केवल 'आइ लव यू' कह कर कॉल काट देता है। कान्ताप्रसाद को जब आनन्द नामक कॉलर का पता चलता है तो उसे पिटवा देते हैं और पूजा से न मिलने

ज़िन्दगी महक जाती है....जब सुरीली आवाज़ को येसुदास की और हो लोरी का वात्सल्य

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 788/2011/228 न मस्कार दोस्तों! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आजकल आप आनन्द ले रहे हैं पुरुष गायकों द्वारा गाई हुई फ़िल्मी लोरियों की, और शृंखला है 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी'। किसी भी बच्चे के सर से माँ और बाप में से किसी का भी अगर साया उठ जाये, तो वह बच्चा बड़ा ही अभागा होता है। माँ का प्यार एक तरह का होता है, और पिता का प्यार दूसरी तरह का। दोनों की समान अहमियत होती है बच्चे के विकास में। लेकिन हर बच्चा तो किस्मतवाला नहीं होता न! किसी को माँ नसीब नहीं होता तो किसी को पिता। माँ के अभाव में पिता को पिता और माँ, दोनों की भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं। ऐसी सिचुएशन कई बार हमारी फ़िल्मों में भी देखी गई है। आज हम जिस गीत को सुनने जा रहे हैं उसकी कहानी भी इसी तरह की है। गोविंदा पर फ़िल्माई यह लोरी है 'हत्या' फ़िल्म की - "ज़िन्दगी महक जाती है, हर नज़र बहक जाती है, न जाने किस बगिया का फूल है तू मेरे प्यारे, आ रा रो आ रा रो"। गायक हैं येसुदास और साथ में आवाज़ लता जी की है जो उस मातृहीन बच्चे के सपने में उसकी माँ की भूमिका में गाती हैं। दोस्तों, येसुद

आ री आजा, निन्दिया तू ले चल कहीं....बाल दिवस पर किशोर दा लाये एक मीठी लोरी बच्चों के लिए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 787/2011/227 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी नियमित व अनियमित श्रोता-पाठकों को हमारा सप्रेम नमस्कार! आज १४ नवंबर है, भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु का जन्मदिन, जिसे हम सब 'बाल-दिवस' के रूप में मनाते हैं। संयोग देखिए कि इन दिनों हम जिस शृंखला को प्रस्तुत कर रहे हैं, उसका भी बच्चों के साथ ही ज़्यादा ताल्लुख़ है। पुरुष गायकों द्वारा गाई हुई फ़िल्मी लोरियों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' की सातवीं कड़ी में आज हम लेकर आये हैं किशोर कुमार की आवाज़ में फ़िल्म 'कुवारा बाप' की लोरी "आ री आजा, निन्दिया तू ले चल कहीं, उड़नखटोले में, दूर, दूर, दूर, यहाँ से दूर"। साथ में लता जी की आवाज़ भी शामिल है। जहाँ किशोर दा की आवाज़ सजी है महमूद पर, लता जी नें एक बालकलाकार का पार्श्वगायन किया है। फ़िल्म के संगीतकार थे राजेश रोशन और इस लोरी को लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी। १९७४ में बनी 'कुंवारा बाप' के नायक थे महमूद। फ़िल्म के शीर्षक से ज़ाहिर है कि महमूद नें इसमें कुंवारे बाप की भू

लल्ला लल्ला लोरी....जब सुनाने की नौबत आये तो यही लोरी बरबस होंठों पे आये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 786/2011/226 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और नई सप्ताह के साथ हम उपस्थित हैं, मैं सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ, आप सभी का इस सुरीले सफ़र में फिर एक बार स्वागत करते हैं। आमतौर पर बच्चों के साथ माँ के रिश्ते को ज़्यादा अहमियत दी जाती है, फ़िल्मों में भी माँ और बच्चे के रिश्ते को ज़्यादा साकार किया गया है। पर कई फ़िल्में ऐसी भी बनीं जिनमें पिता-पुत्र या पिता-पुत्री के सम्बंध को पर्दे पर साकार किया गया। ऐसी कई फ़िल्मों में पिता द्वारा गाई लोरियाँ भी रखी गईं, हालाँकि संख्या में ये बहुत कम हैं। पर इन लोरियों के माध्यम से गीतकारों नें वो सब जज़्बात, वो सब मनोभाव भरें जो एक पिता के मन में होता है अपने बच्चे के लिए। ऐसी ही कुछ लाजवाब पुरुष लोरियों को लेकर इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी', जिसमें आप दस लोरियाँ सुन रहे हैं दस अलग अलग गायकों के गाये हुए। अब तक आपनें चितलकर, तलत महमूद, हेमन्त कुमार, मन्ना डे और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ें सुनी। और ये लोरियाँ केवल पाँच अलग गायक ही नहीं, बल्कि पाँच अल

आज कल में ढल गया....रफ़ी साहब की आवाज़ में लोरी का वात्सल्य

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 785/2011/225 न मस्कार! 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' की पाँचवी कड़ी में आज आवाज़ रफ़ी साहब की। दोस्तों, रफ़ी साहब और लोरी का जब साथ-साथ ज़िक्र हो तो सबसे पहले जो दो गीत याद आते हैं वो हैं फ़िल्म 'ब्रह्मचारी' का "मैं गाऊँ तुम सो जाओ" और फ़िल्म 'बेटी-बेटे' का "आज कल में ढल गया दिन हुआ तमाम"। दोनों ही मास्टरपीसेस हैं अपनी अपनी जगह और मज़े की बात तो यह है कि दोनों ही शैलेन्द्र नें लिखे हैं और संगीत दिया है शंकर जयकिशन नें। बस इतना ज़रूर है कि 'ब्रह्मचारी' के गीत को व्यवसायिक कामयाबी ज़्यादा मिली, जबकि स्तर की बात करें तो 'बेटी-बेटे' का गीत ज़्यादा बेहतर लगता है। मैं बड़ा परेशान हो गया कि इन दोनों में से किस लोरी को चुना जाये, अन्त में "आज कल में ढल गया" के पक्ष में ही मन बना लिया। इस लोरी की सब से ख़ास बात यह है कि इसमें रफ़ी साहब नें हर एक शब्द में जान डाल दी है, आत्मा डाल दी है। और एस.जे. के ऑरकेस्ट्रेशन की भी क्या तारीफ़ करें! और शैलेन्द्र का काव्य, उफ़! गायक, गीतकार, और संगीतकार, तीनों के टीमवर