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हटो काहे को झूठी बनाओ बतियाँ...मेलोडी और हास्य के मिश्रण वाले ऐसे गीत अब लगभग लुप्त हो चुके हैं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 649/2010/349 म न्ना डे के गीतों की चर्चा महमूद के बिना अधूरी रहेगी। हास्य अभिनेता महमूद नें रुपहले परदे पर बहुतेरे गीत गाये, जिन्हें मन्ना डे ने ही स्वर दिया। एक समय ऐसा लगता था, मानो मन्ना डे, महमूद की आवाज़ बन चुके हैं। परन्तु बात ऐसी थी नहीं। इसका स्पष्टीकरण फिल्म "पड़ोसन" के प्रदर्शन के बाद स्वयं महमूद ने दिया था। पत्रकारों के प्रश्न के उत्तर में महमूद ने कहा था -"मन्ना डे साहब को मेरी नहीं बल्कि मुझे उनकी ज़रुरत होती है। उनके गाये गानों पर स्वतः ही अच्छा अभिनय मैं कर पाता हूँ। महमूद के इस कथन में शत-प्रतिशत सच्चाई थी। यह तो निर्विवाद है कि उन दिनों शास्त्रीय स्पर्श लिये गानों और हास्य मिश्रित गानों के लिए मन्ना डे के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था। उस दौर के प्रायः सभी हास्य अभिनेताओं के लिए मन्ना डे ने पार्श्वगायन किया था। 1961 में एक फिल्म आई थी "करोड़पति', जिसमें किशोर कुमार नायक थे। किशोर कुमार उन दिनों गायक के रूप में कम, अभिनेता बनने के लिए अधिक प्रयत्न कर रहे थे। फिल्म में संगीत शंकर-जयकिशन का था। मन्ना डे नें उस फिल्म में हास

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है....मीर ने दी चिंगारी तो मजरूह साहब ने बात कर दी आम इश्क वाली

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 557/2010/257 'ए क मैं और एक तू' - फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के सदाबहार युगल गीतों से सजी इस लघु शृंखला में आज बारी ७० के दशक की। आज का यह अंक हम समर्पित कर रहे हैं १८-वीं शताब्दी के मशहूर शायर मीर तक़ी मीर के नाम। जी हाँ, उनकी लिखी हुई एक मशहूर ग़ज़ल से प्रेरीत होकर मजरूह सुल्तानपुरी ने यह गीत लिखा था - "पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है, जाने ना जाने गुल ही ना जाने बाग़ तो सारा जाने है"। यह पूरा मुखड़ा मीर के उस ग़ज़ल का पहला शेर है। आगे गीत के तीन अंतरे मजरूह साहब ने ख़ुद लिखे हैं। इन्हे आप गीत को सुनते हुए जान ही लेंगे, लेकिन क्या आप जानना नहीं चाहेंगे कि मीर के उस ग़ज़ल के बाक़ी शेर कौन कौन से थे? लीजिए हम यहाँ पेश कर रहे हैं उस पुराने ग़ज़ल के कुल ७ शेर। पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है, जाने ना जाने गुल ही ना जाने बाग़ तो सारा जाने है। आगे उस मुतकब्बर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं, कब मौजूद ख़ुदा को वो मग़रूर ख़ुद-आरा जाने है। आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में, जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उसके अपना वारा जाने है। चारा

आसमां के नीचे हम आज अपने पीछे, प्यार का जहाँ बसा के चले...लता और किशोर दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 555/2010/255 फ़ि ल्म संगीत के सुनहरे दौर के कुछ सदाबहार युगल गीतों से सज रही है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल इन दिनों। ये वो प्यार भरे तराने हैं, जिन्हे प्यार करने वाले दिल दशकों से गुनगुनाते चले आए हैं। ये गानें इतने पुराने होते हुए भी पुराने नहीं लगते। तभी तो इन्हे हम कहते हैं 'सदाबहार नग़में'। इन प्यार भरे गीतों ने वो कदमों के निशान छोड़े हैं कि जो मिटाए नहीं मिटते। आज इस 'एक मैं और एक तू' शृंखला में हमने एक ऐसे ही गीत को चुना है जिसने भी अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है। लता मंगेशकर और किशोर कुमार की सदाबहार जोड़ी का यह सदाबहार नग़मा है फ़िल्म 'ज्वेल थीफ़' का - "आसमाँ के नीचे, हम आज अपने पीछे, प्यार का जहाँ बसाके चले, क़दम के निशाँ बनाते चले"। मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस गीत को दादा बर्मन ने स्वरबद्ध किया था। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के शुरुआती दिनों में, बल्कि युं कहें कि कड़ी नं - ६ में हमने आपको इस फ़िल्म का " रुलाके गया सपना मेरा " सुनवाया था, और इस फ़िल्म की जानकारी भी दी थी। आज इस युगल गीत के फ़िल्मांक

कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र.....आज भी इस गीत की रिदम को सुनकर मन थिरकने नहीं लगता क्या आपका ?

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 546/2010/246 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और नए सप्ताह में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, पिछले तीन हफ़्तों से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सज रही है एक ऐसी महफ़िल जिसे रोशन कर रहे हैं हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ समान फ़िल्मकार। 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' लघु शृंखला के पहले तीन खण्डों में वी. शांताराम, महबूब ख़ान और बिमल रॊय के फ़िल्मी सफ़र पर नज़र डालने के बाद आज से हम इस शृंखला का चौथा और अंतिम खण्ड शुरु कर रहे हैं। और इस खण्ड के लिए हमने जिस फ़िल्मकार को चुना है, वो एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार हैं। फ़िल्म निर्माण और निर्देशन के लिए तो वो मशहूर हैं ही, अभिनय के क्षेत्र में भी उन्होंने लोहा मनवाया है और साथ ही एक अच्छे नृत्य निर्देशक भी रहे हैं। इस बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न फ़िल्मकार को दुनिया जानती है गुरु दत्त के नाम से। आज से अगले चार अंकों में हम गुरु दत्त को और उनके फ़िल्मी सफ़र को थोड़ा नज़दीक से जानने और समझने की कोशिश करेंगे और साथ ही उनके द्वारा निर्मित और/या निर्देशित फ़िल्मों के कुछ बेहद लोकप्रिय व सदाबहार गानें भी सुनें

काली घटा छाये मोरा जिया तरसाए.....पर्दे पर नूतन का अभिनय और आशा ताई के स्वर जैसे एक कसक भरी चुभन

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 544/2010/244 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की इस महफ़िल में आप सभी का फिर एक बार स्वागत है। 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' शृंखला के अंतर्गत इन दिनों आप इसके तीसरे खण्ड में सुन रहे हैं महान फ़िल्मकार बिमल रॊय निर्देशित फ़िल्मों के गानें, और इनके साथ साथ बिमल दा के फ़िल्मी सफ़र पर भी हम अपनी नज़र दौड़ा रहे हैं। कल हमारी बातचीत आकर रुकी थी १९५५ की फ़िल्म 'देवदास' पर। १९५६ में बिमल दा ने एक फ़िल्म तो बनाई, लेकिन उन्होंने ख़ुद इसको निर्देशित नहीं किया। असित सेन निर्देशित यह फ़िल्म थी 'परिवार'। सलिल चौधरी के धुनों से सजी इस फ़िल्म के गानें बेहद मधुर थे, जैसे कि लता-मन्ना का "जा तोसे नहीं बोलूँ कन्हैया" और लता-हेमन्त का " झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे " (इस गीत को हम सुनवा चुके हैं)। बिमल रॊय और सलिल चौधरी की जोड़ी १९५७ में नज़र आई फ़िल्म 'अपराधी कौन' में, और इसके भी निर्देशक थे असित सेन। बिमल दा ने एक बार फिर निर्देशन की कमान सम्भाली बॊम्बे फ़िल्म्स के बैनर तले बनी १९५८ की फ़िल्म 'यहूदी' में। मुकेश के गाये "ये मे

उठाये जा उनके सितम और जीये जा.....जब लता को परखा निर्देशक महबूब खान ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 536/2010/236 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस स्तंभ में। पिछले हफ़्ते से हमने शुरु की है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ', जिसके अंतर्गत हम कुल चार महान फ़िल्मकारों के फ़िल्मी सफ़र की चर्चा कर रहे हैं और साथ ही साथ उनकी फ़िल्मों से चुन कर पाँच पाँच मशहूर गीत सुनवा रहे हैं। इस लघु शृंखला के पहले खण्ड में पिछले हफ़्ते आप वी. शांताराम के बारे में जाना और उनकी फ़िल्मों के गीत सुनें। आज आज से शुरु करते हैं खण्ड-२, और इस खण्ड में चर्चा एक ऐसे फ़िल्मकार की जिन्होंने भी हिंदी सिनेमा को कुछ ऐसी फ़िल्में दी हैं कि जो सिने-इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो चुकी हैं। आप हैं महबूब ख़ान। एक बेहद ग़रीब आर्थिक पार्श्व और कम से कम शिक्षा से शुरु कर महबूब ख़ान इस देश के महानतम फ़िल्मकारों में से एक बन गये, उनके जीवन से आज भी हमें सबक लेना चाहिए कि जहाँ चाह है वहाँ राह है। महबूब ख़ान का जन्म १९०७ में हुआ था गुजरात के बिलिमोरिया जगह में। उनका असली नाम था रमज़ान ख़ान। वो अपने घर से भाग कर बम्बई चले आये थे और फ़िल्म स्टुडियोज़ म

उलझन हज़ार कोई डाले....कभी कभी जोश में गायक भी शब्द गलत बोल जाते हैं, कुछ ऐसा हुआ होगा इस गीत में भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 516/2010/216 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के एक और नए सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं और इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले'। इस शृंखला का दूसरा हिस्सा आज से पेश हो रहा है। आज जिस गीत को हमने चुना है उसमे है शाब्दिक गड़बड़ी। यानी कि ग़लत शब्द का इस्तेमाल। इससे पहले हमने जिन अलग अलग प्रकारों की गड़बड़ियों पर नज़र डाला है, वो हैं गायक का ग़लत जगह पे गा देना, गायक का किसी शब्द का ग़लत उच्चारण करना, गीत के अंतरों में पंक्तियों का आपस में बदल जाना, तथा फ़िल्मांकन में गड़बड़ी। आज हम बात करेंगे ग़लत शब्द के इस्तेमाल के बारे में। सन् १९७७ में एक फ़िल्म आई थी 'चांदी सोना', जिसमें आशा भोसले, किशोर कुमार और मन्ना डे का गाया एक गाना था "उलझन हज़ार कोई डाले, रुकते कहाँ हैं दिलवाले, देखो ना आ गये, मस्ताने छा गए, बाहों में बाहें डाले"। इस गीत के आख़िरी अंतरे में किशोर कुमार गाते हैं - "जैसे बहार लिए खड़ी हाथों के हार , दीवानों देखो ना सदियों से तेरा मेरा था इंतज़ार।" दोस्तों, आपने कभी सुना है "हाथों के हार" के बार

ई मेल के बहाने यादों के खजाने - जब बचपन जवानी और बुढापा सिमट गया था एक गीत में...हमारी श्रोता अनीता जी के लिए

'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' आपके मनपसंद स्तंभ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ही एक साप्ताहिक विशेषांक है, जिसमें हम आप ही के ईमेल शामिल भी करते हैं और अगर आपने किसी गीत की फ़रमाइश की है तो उसे भी हम इसमें सुनवाते हैं। आज हम दो एक नहीं बल्कि दो दो ईमेल शामिल कर रहे हैं। पहला ईमेल हमें भेजा है ख़ानसाब ख़ान ने। ये लिखते हैं ... आदाब, 'मजलिस-ए-क़व्वाली' की महफ़िल वाक़ई बहुत बहुत शानदार और जानदार थी। या युं कहें कि आपकी ये अदायगी हमें उस दौर के गानों का और ज़्यादा दीवाना बना गई। आप इतनी गम्भीरता से अपनी प्रस्तुति देते हैं कि हम आख़िर उसमें खो ही जाते हैं। और आपको शुक्रिया कहने के लिए ई-मेल कर ही देते हैं। 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' की क़व्वाली "अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में" मुझे सब से ज़्यादा पसंद आई। मेरी पसंद तो आप ने मेरी बिना फ़रमाइश के ही पूरी कर दी। इसके लिए 'आवाज़' की पूरी टीम को तहे दिल से बहुत बहुत धन्यवाद! ख़ानसाब, बहुत बहुत शुक्रिया आपका। आप समय समय पर इस तरह के ई-मेल भेज कर हमारा हौसला अफ़ज़ाई करते रहते हैं। यकीन मानिए, ये हमारे ल

खुशी की वो रात आ गयी..... और माहौल में गम की सदा भी घुल गयी, एल पी और मुकेश का गठबंधन

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 509/2010/209 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! इन दिनों इस स्तंभ में आप सुन रहे हैं फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के स्वरबद्ध गीतों से सजी लघु शृंखला 'एक प्यार का नग़मा है'। आज इस शृंखला की नौवी कड़ी में हम चुन लाये हैं मुकेश की आवाज़ में फ़िल्म 'धरती कहे पुकार के' का एक ऐसा गीत जिसमें है विरोधाभास। विरोधाभास इसलिए कि गीत के बोलों में तो ख़ुशी की बात की जा रही है, लेकिन गायकी के अदाज़ में करुण रस का संचार हो रहा है। "ख़ुशी की वह रात आ गयी, कोई गीत जगने दो, गाओ रे झूम झूम"। इस तरह के गीतों का हिंदी फ़िल्मों में कई कई बार प्रयोग हुआ है। सिचुएशन कुछ इस तरह की होती है कि नायिका की शादी नायक के बजाय किसी और से हो रही होती है, और शादी के उस जलसे में नायक नायिका को शुभकामनाएँ देते हुए गीत गाता तो है, लेकिन उस गीत में छुपा होता है उसके दिल का दर्द। कुछ ऐसे ही गीतों की याद दिलाएँ आपको? फ़िल्म 'पारसमणि' का गीत "सलामत रहो, सलामत रहो", फ़िल्म 'मिलन' में मुकेश का ही गाया हुआ कुछ

मैं तो प्यार से तेरे पिया मांग सजाऊँगी....नौशाद का रचा ये शृंगार रस से भरपूर गीत है सभी भारतीय नारियों के लिए खास

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 491/2010/191 भा व या जज़्बात वह महत्वपूर्ण विशेषता है जो जीव जंतुओं को उद्‍भीद जगत से अलग करती है। संस्कृत में 'रस' शब्द का अर्थ भले ही स्वाद, जल, सुगंध या फलों के रस के इर्द-गिर्द घूमता हो, लेकिन 'रस' शब्द को जीव जगत के नौ भावों या जज़्बात के लिए भी प्रयोग किया जाता है। ये वो नौ रस हैं जो हमारे मन का हाल बयान करते हैं। अगर हम इन नौ रसों के महत्व को अच्छी तरह समझ लें और किस रस को किस तरह से अपने में नियंत्रित रखना है, उस पर सिद्धहस्थ हो जाएँ, तो जीवन में सच्चे सुख की अनुभूति कर सकते हैं और हमारा जीवन सही मार्ग पर चल सकता है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत आप सब का फिर एक बार इस महफ़िल में। आप सोच रहे होंगे कि मैं फ़िल्मी गीतों को छोड़ कर अचानक रस की बातें क्यों करने लगा। दरअसल, हमारे जो फ़िल्मी गीत हैं, वो ज़्यादातर कहानी के सिचुएशन के हिसाब से बनते हैं। और अगर कहानी है तो उसमें किरदार भी हैं, घटनाएँ भी हैं ज़िंदगी से जुड़े हुए, और तभी तो हर फ़िल्मी गीत में भी किसी ना किसी भाव का, किसी ना किसी जज़्बात का, किसी ना

कहाँ तक हम उठाएँ ग़म....जब दर्द को नयी सदा दी लता जी ने अनिल बिस्वास के संगीत निर्देशन में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 488/2010/188 गु ज़रे ज़माने के अनमोल नग़मों के शैदाईयों और क़द्रदानों, इन दिनों आपकी ख़िदमत में हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पेश कर रहे हैं लता मंगेशकर के गाए कुछ बेहद दुर्लभ गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'लता के दुर्लभ दस'। अब तक आपने इस शृंखला में जितने भी गानें सुनें, उनकी फ़िल्में भी कमचर्चित रही, यानी कि बॊक्स ऒफ़िस पर असफल। लेकिन आज हम जिस फ़िल्म का गीत सुनने जा रहे हैं, वह एक मशहूर फ़िल्म है और इसके कुछ गानें तो बहुत लोकप्रिय भी हुए थे। १९५० की यह फ़िल्म थी 'आरज़ू'। जी हाँ, वही 'आरज़ू' जिसमें तलत महमूद साहब ने पहली पहली बार "ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल" गीत गा कर एक धमाकेदार पदार्पण किया था हिंदी फ़िल्म संगीत संसार में। लेखिका इस्मत चुगताई के पति शाहीद लतीफ़ ने इस फ़िल्म का निर्माण किया था जिसमें मुख्य भूमिकाओं में थे दिलीप कुमार और कामिनी कौशल। इस जोड़ी की यह अंतिम फ़िल्म थी। इस जोड़ी ने ४० के दशक में 'शहीद' और 'नदिया के पार' जैसी फ़िल्मों में कामयाब अभिनय किया था। 'आरज़ू' में संगीत अनिल बिस्वास का था

अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में....कव्वाली का एक नया अंदाज़ पेश किया एल पी और लता ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 477/2010/177 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है रमज़ान के मौके पर कुछ शानदार फ़िल्मी क़व्वालियों की ख़ास शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली'। क़व्वाली का जो मूल उद्देश्य है, उसे लोगों तक पहुँचाना क़व्वालों का काम है। अब जहाँ पर फ़ारसी भाषा का इस्तेमाल लोग आम बोलचाल में नहीं करते हैं, वहाँ पर क़व्वाली का अर्थ लोगों तक पहुँचाने के लिए संगीत और रीदम का सहारा लिया जाने लगा और उस रूप को, उस शैली को इतना ज़्यादा प्रभावशाली बनाया कि क़व्वाली सुनते हुए लोग ट्रान्स में चले जाने लगे। लोगों को सारे अल्फ़ाज़ भले ही समझ में ना आते हों, लेकिन संगीत और रीदम कुछ ऐसे सर चढ़ के बोलता है क़व्वालियों में कि सुनने वाला उसके साथ बह निकलता है और क़व्वाली के ख़त्म होने के बाद ही होश में वापस आता है। और इसी तरह से क़व्वाली का विकास हुआ और धीरे धीरे संगीत की एक महत्वपूर्ण धारा बन गई। पिछले पाँच दशकों में पाक़िस्तान में क़व्वालियों की शैलियों में बदलाव लाने वाले क़व्वाल गोष्ठियों में ६ नाम प्रमुख हैं और ये नाम हैं - उस्ताद फ़तेह अली व मुबारक अली ख़ान, उस्ताद करम दीन टोपई वाले, उस्ताद छज्

ठंडी हवा ये चाँदनी सुहानी.....और ऐसे में अगर किशोर दा सुनाएँ कोई कहानी तो क्यों न गुनगुनाये जिंदगी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 450/2010/150 'गी त अपना धुन पराई', आज हम आ पहुँचे हैं इस शृंखला की अंतिम कड़ी पर। पिछले नौ कड़ियों में आपने नौ अलग अलग संगीतकारों के एक एक गीत सुनें जिन गीतों की प्रेरणा उन्हे किसी विदेशी धुन से मिली थी। हमने उन विदेशी गीतों की भी थोड़ी चर्चा की। आज अंतिम कड़ी के लिए हमने चुना है संगीतकार किशोर कुमार को। जी हाँ, एक ज़बरदस्त गायक तो किशोर दा थे ही, एक अच्छे संगीतकार भी थे। उन्होने बहुत ज़्यादा फ़िल्मों में संगीत तो नहीं दिया, लेकिन जितने भी दिए लाजवाब दिए। उनकी धुनों से सजी 'झुमरू', 'दूर का राही' और 'दूर गगन की छाँव में' जैसे फ़िल्मों के संगीत को कौन भुला सकता है भला! तो आज हमने उनकी सन् १९६१ की फ़िल्म 'झुमरू' का एक गीत चुना है उन्ही का गाया हुआ - "ठण्डी हवा ये चांदनी सुहानी, ऐ मेरे दिल सुना कोई कहानी"। कुछ कुछ वाल्ट्स की रीदम जैसी इस गीत की धुन प्रेरित है १९५५ में बनी जुलिअस ल रोसा के "दोमानी" गीत से। "दोमानी" व्क इटालियन शब्द है जिसका अर्थ है "कल" (tomorrow)| गीत की शुरुआत तो हू-ब-ह

बाबूजी धीरे चलना.....ओ पी ने बनाया इस प्रेरित गीत को इतना लोकप्रिय

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 447/2010/147 वि देशी धुनों पर आधारित हिंदी फ़िल्मी गीतों की लघु शृंखला 'गीत अपना धुन पराई' इन दिनों जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। ५० के दशक से क्लब सॊंग्स का एक ट्रेण्ड चल पड़ा था हिंदी फ़िल्मों में। यक़ीनन इन गीतों का आधार पाश्चात्य संगीत ही होना था। ऐसे में हमारे कई संगीतकारों ने इस तरह के क्लब सॊंग्स के लिए सहारा लिया विदेशी धुनों का, विदेशी गीतों का। ओ. पी. नय्यर साहब ने ५० के दशक में गीता दत्त से बहुत से ऐसे नशीले क्लब सॊंग्स गवाए और उन्ही में से एक बेहद मशूर गीत आज हम आपको सुनवाने जा रहे हैं। १९५४ की फ़िल्म 'आर पार' का वही मशहूर गीत "बाबूजी धीरे चलना, प्यार में ज़रा संभलना"। मजरूह साहब के बोल और गीता जी की नशीली आवाज़। 'आर पार' से पहले ओ.पी. नय्यर तीन फ़िल्मों में संगीत दे चुके थे - 'आसमान', 'छम छमा छम', और 'बाज़'। ये तीनों ही फ़िल्में फ़्लॊप हो जाने की वजह से इस नए संगीतकार की तरफ़ किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन जब १९५४ में 'आर पार' हिट हुई तो नय्यर साहब का यूनिक स्टाइल को लोगों ने म

रिमझिम के तराने लेके आई बरसात...सुनिए एस डी दादा का ये गीत, जिसे सुनकर बिन बारिश के भी मन झूम जाता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 435/2010/135 आ ज है 'रिमझिम के तराने' शृंखला की पांचवी कड़ी। यानी कि हम पहुँचे हैं इस शृंखला के बीचोंबीच, और आज जो गीत हम लेकर आए हैं, वह भी इन्ही बोलों से शुरु होता है। "रिमझिम के तराने लेके आई बरसात, याद आए किसी से वह पहली मुलाक़ात"। मोहम्मद रफ़ी और गीता दत्त की आवाज़ों में यह है १९५९ फ़िल्म 'काला बाज़ार' का एक बेहद ख़ूबसूरत और मशहूर गीत। इस फ़िल्म का "ना मैं धन चाहूँ, ना रतन चाहूँ" हमने इस स्तंभ में सुनवाया था। 'काला बाज़ार' का निर्माण देव आनंद ने किया था। फ़िल्म की कहानी व निर्देशन विजय आनंद का था। देव आनंद, वहीदा रहमान, नंदा, विजय आनंद, चेतन आनंद, लीला चिटनिस अभिनीत इस फ़िल्म के गीत संगीत का पक्ष भी काफ़ी मज़बूत था। इन दो गीतों के अलावा रफ़ी साहब का गाया "खोया खोया चांद खुला आसमान", "अपनी तो हर आह एक तूफ़ान है", "तेरी धूम हर कहीं"; आशा-मन्ना का गाया "सांझ ढली दिल की लगी थक चली पुकार के"; तथा आशा भोसले का गाया "सच हुए सपने तेरे" गीत आज भी उतने ही प्यार से सुने जाते