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जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला....पूरी तरह पियानो पर रचा बुना एक अमर गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 594/2010/294 'पि यानो साज़ पर फ़िल्मी परवाज़', इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है यह शृंखला, जिसमें हम आपको पियानो के बारे में जानकारी भी दे रहे हैं, और साथ ही साथ फ़िल्मों से चुने हुए कुछ ऐसे गानें भी सुनवा रहे हैं जिनमें मुख्य साज़ के तौर पर पियानो का इस्तमाल हुआ है। पिछली तीन कड़ियों में हमने पियानो के इतिहास और उसके विकास से संबम्धित कई बातें जानी, आइए आगे पियानो की कहानी को आगे बढ़ाया जाए। साल १८२० के आते आते पियानो पर शोध कार्य का केन्द्र पैरिस बन गया जहाँ पर प्लेयेल कंपनी उस किस्म के पियानो निर्मित करने लगी जिनका इस्तमाल फ़्रेडरिक चौपिन करते थे; और ईरार्ड कंपनी ने बनाये वो पियानो जो इस्तमाल करते थे फ़्रांज़ लिस्ज़्ट। १८२१ में सेबास्टियन ईरार्ड ने आविष्कार किया 'डबल एस्केपमेण्ट ऐक्शन' पद्धति का, जिसमें एक रिपिटेशन लीवर, जिसे बैलेन्सर भी कहा जाता है, का इस्तमाल हुआ जो किसी नोट को तब भी रिपीट कर सकता था जब कि वह 'की' अपने सर्वोच्च स्थान तक अभी वापस पहुंचा नहीं था। इससे फ़ायदा यह हुआ कि किसी नोट को बार बार और तुरंत रिपीट करना

झूम झूम ढलती रात....सिहरन सी उठा जाती है लता की आवाज़ और कमाल है हेमन्त दा का संगीत संयोजन भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 573/2010/273 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, आप सभी को हमारा नमस्कार! पिछली दो कड़ियों में हमने आपको भारत के दो ऐसे जगहों के बारे में बताया जिनके बारे में लोगों की यह धारणा बनी हुई है कि वहाँ पर भूत-प्रेत का निवास है। हालाँकि वैज्ञानिक तौर पर कुछ भी प्रमाणित नहीं हो पाया है, लेकिन इस तरह की बातें एक बार फैल जाये तो ऐसी जगहों से लोग ज़रा दूर दूर रहना ही पसंद करते हैं। और हमने आपको दो ऐसी ही सस्पेन्स थ्रिलर फ़िल्मों की कहानियां भी बताई - 'महल' और 'बीस साल बाद', और इन फ़िल्मों से लता मंगेशकर के गाये दो हौण्टिंग् नंबर्स भी सुनवाये। दोस्तों, आज हम अपने देश की सीमाओं को लांघ कर ज़रा विदेश में जा निकलते हैं। यकीन मानिए, भूत प्रेत की जितनी कहानियाँ हमारे यहाँ मशहूर हैं, उतनी ही कहानियाँ हर देश में पायी जाती है। आइए अलग अलग देशों के कुछ ऐसी ही जगहों के बारे में आज आपको बतायी जाये। ऒस्ट्रेलिया के विक्टोरिया शहर में एक असाइलम है, जिसका नाम है 'बीचवर्थ लुनाटिक असाइलम'। कहते हैं कि यहाँ पर कई मरीज़ों की आत्माएँ निवास करती हैं। यह असाइलम १८६७ में

कहीं दीप जले कहीं दिल.....एक ऐसा गीत जिसने लता जी का खोया आत्मविश्वास लौटाया

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 572/2010/272 'मा नो या ना मानो' - दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कल से हमने शुरु की है यह लघु शृंखला। भूत-प्रेत और आत्मा के अस्तित्व के बारे में बहस लम्बे समय से चली आ रही है, जिसकी अभी तक कोई ठोस वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हो पायी है। दुनिया के हर देश में भूत प्रेत की कहानियाँ और क़िस्से सुनने को मिलते हैं, और हमारे देश में भी बहुत ऐसे उदाहरण पाये जाते हैं। आज के ज़माने में अधिकांश लोगों को भले ही ये सब बातें ढोंगी लोगों की करतूत लगे, लेकिन उसे आप क्या कहेंगे अगर Archaeological Survey of India ही ऐसा बोर्ड लगा दे कि रात के बाद फ़लाने जगह पर जाना खतरनाक या हानीकारक हो सकता है? जी हाँ, राजस्थान में भंगढ़ नामक जगह है जहाँ पर ASI ने एक साइनबोर्ड लगा दिया है, जिस पर लिखा है - "Entering the borders of Bhangarh before sunrise and after sunset is strictly prohibited." जो पर्यटक वहाँ जाते हैं, वो कहते हैं कि भंगढ़ की हवाओं में एक अजीब सी बात महसूस की जा सकती है जो दिल में बेचैनी पैदा करती है। आइए इस जगह के इतिहास के बारे में आपको कुछ बताया जाये। १७-वी

भंवरा बड़ा नादान, बगियन का मेहमान.....और वो मेहमान गुरु दत्त दुनिया के बगियन को छोड़ चुप चाप चला गया

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 550/2010/250 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का आप ही के इस मनपसंद स्तंभ की ५५०-वीं कड़ी में। पिछले चार दिनों से हम ज़िक्र कर रहे हैं गुरु दत्त द्वारा अभिनीत, निर्मित एवं निर्द्शित फ़िल्मों का, और कल की कड़ी में आ हम पहुँचे थे १९६० की फ़िल्म 'चौदहवीं का चांद' तक। दोस्तों, 'काग़ज़ के फूल' से गुरु दत्त को जो आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा था, वह रकम कुछ १७ लाख की थी जो उन दिनों से हिसाब से बहुत बड़ी रकम थी। युं तो 'चौदहवीं का चांद' ने अच्छा व्यापार किया लेकिन इससे हुए मुनाफ़े से वह घाटा ज़्यादा था। ख़ैर, गुरु दत्त ने भले ही निर्देशन का बंद कर दिया था लेकिन निर्माण का काम जारी रहा। १९६२ में वो लेकर आये एक और यादगार कृति 'साहब, बीवी और ग़ुलाम'। बिमल मित्र के लिखे इसी नाम से बांगला उपन्यास पर आधारित इस फ़िल्म को राष्ट्रपति का सिल्वर मेडल तथा बंगाल फ़िल्म पत्रकार ऐसोसिएशन की तरफ़ से 'फ़िल्म ऒफ़ दि ईयर' का ख़िताब मिला। इसके अलावा बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल में यह फ़िल्म दिखाई गई और ऒस्कर के लिए यह फ़िल्म

नैन सो नैन नाहीं मिलाओ....देखिये किस तरह एक देहाती शब्द "गुईयाँ" का सुन्दर प्रयोग किया हसरत ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 533/2010/233 'हिं दी सिनेमा के लौह स्तंभ', इस शृंखला के पहले खण्ड में इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं महान फ़िल्मकार वी. शांताराम पर केन्द्रित हमारी यह प्रस्तुति 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अंतर्गत। आज इसकी तीसरी कड़ी में बातें शांताराम जी के ४० के दशक के सफ़र की। १९४१ में एक फ़िल्म आई थी 'पड़ोसी', जिसकी पृष्ठभूमि थी हिंदू मुसलमान धर्मों के बीच का तनाव। कहानी दो युवा दोस्तों की थी जो इन दो धर्मों के अनुयायी थी, और जो एक साम्प्रदायिक हमले में एक साथ मर जाते हैं। फ़िल्म के क्लाइमैक्स में एक बांध का बम से उड़ा देने का पिक्चराइज़ेशन उस ज़माने के लिहाज़ से काफ़ी सरहानीय था। 'पड़ोसी' के बाद वी. शान्ताराम 'प्रभात' से अलग हो गए और अपनी निजी कंपनी 'राजकमल कलामंदिर' की स्थापना की और अपने आप को पुणे से मुंबई में स्थानांतरित कर लिया। कालीदास की मशहूर कृति 'शकुंतला' पर आधारित १९४३ की फ़िल्म 'शकुंतला' इस बैनर की पहली पेशकश थी, जो बेहद कामयाब सिद्ध हुई। यह भारतीय पहली फ़िल्म थी जिसे व्यावसायिक तौर पर विदेश में प्रदर्शित कि

हम लाये हैं तूफानों के किश्ती निकाल के.....कवि प्रदीप का ये सन्देश जो आज भी मन से राष्ट्र प्रेम जगा जाता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 527/2010/227 दो स्तों कल था १४ नवंबर, देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु का जन्मदिवस। नेहरु जी का बच्चों के प्रति अत्यधिक लगाव हुआ करता था। बच्चों के लिए उन्होंने बहुत सारा कार्य भी किया। इसी वजह से आज का यह दिन देश भर में 'बाल दिवस' के रूप में मनाया जाता है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार। 'दिल की कलम से', इस शुंखला में आज हम लेकर आए हैं एक ऐसे कवि की बातें जो एक कवि होने साथ साथ एक उत्कृष्ट गीतकार और गायक भी थे, जिनकी लेखनी और गायकी में झलकता है उनका अपने देश के प्रति प्रेम और देशवासियों में जागरुक्ता लाने की शक्ति। जी हाँ, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में ज़िक्र कवि प्रदीप का। कवि प्रदीप का जन्म १९१५ में मध्य प्रदेश के उज्जैन के बाधनगर में हुआ था। उनका पूरा नाम था रामचन्द्र नारायणजी द्विवेदी। उनकी शिक्षा अलाहाबाद में हुई और वहीं उन्होंने कविताएँ लिखनी शुरु की। गर्मियों की छुट्टियों मे वे मित्रों के घर जाया करते थे। ऐसी ही एक छुट्टी में वे बम्बई आये और उनकी मुलाक़ात हो गई बॊम्बे टॊकीज़ के हिमांशु राय से। उनकी लेखनी से प

लहरों पे लहर, उल्फत है जवाँ....हेमंत दा इस गीत में इतनी भारतीयता भरी है कि शायद ही कोई कह पाए ये गीत "इंस्पायर्ड" है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 441/2010/141 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह के साथ हम फिर एक बार हाज़िर हैं। दोस्तों, हमारे देश का संगीत विश्व का सब से पुराना व स्तरीय संगीत रहा है। प्राचीन काल से चली आ रही भारतीय शास्त्रीय संगीत पूर्णत: वैज्ञानिक भी है और यही कारण है कि आज पूरा विश्व हमारे इसी संगीत पर शोध कर रही है। जब फ़िल्म संगीत का जन्म हुआ, तब फ़िल्मी गीत इसी शास्त्रीय संगीत को आधार बनाकर तैयार किए जाने लगे। फिर सुगम संगीत का आगमन हुआ और फ़िल्मी गीतों में शास्त्रीय राग तो प्रयोग होते रहे लेकिन हल्के फुल्के अंदाज़ में। लोकप्रियता को देखते हुए मूल शास्त्रीय संगीत धीरे धीरे फ़िल्मी गीतों से ग़ायब होता चला गया। फिर पश्चिमी संगीत ने भी फ़िल्मी गीतों में अपनी जगह बना ली। इस तरह से कई परिवर्तनों से होते हुए फ़िल्म संगीत ने अपना लोकप्रिय पोशाक धारण किया। पश्चिमी असर की बात करें तो हमारे संगीतकारों ने ना केवल पश्चिमी साज़ों का इस्तेमाल किया, बल्कि समय समय पर विदेशी धुनों को भी अपने गीतों का आधार बनाया। ऐसे गीतों को हम सभ्य भाषा में 'इन्स्पायर्ड सॊंग्‍स' कहते हैं, जब कि

सावन में बरखा सताए....लीजिए एक शिकायत भी सुनिए मेघों की रिमझिम से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 434/2010/134 'रि मझिम के तराने' शृंखला की चौथी कड़ी में आज प्रस्तुत है एक ऐसा गीत जिसमें है जुदाई का रंग। एक तरफ़ अपने प्रेमिका से दूरी खटक रही है, और दूसरी तरफ़ सावन की झड़ियाँ मन में आग लगा रही है, मिलन की प्यास को और भी ज़्यादा बढ़ा रही है। इस भाव पर तो बहुत सारे गानें समय समय पर बने हैं, लेकिन आज हमने जिस गीत को चुना है वह बड़ा ही सुरीला है, उत्कृष्ट है संगीत के लिहाज़ से भी, बोलों के लिहाज़ से भी, और गायकी के लिहाज़ से भी। यह है हेमन्त कुमार का गाया और स्वरबद्ध किया, तथा गीतकार गुलज़ार का लिखा हुआ फ़िल्म 'बीवी और मकान' का गीत "सावन में बरखा सताए, पल पल छिन छिन बरसे, तेरे लिए मन तरसे"। मैं यकीन के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन मैंने कही पढ़ा है कि इस गीत को फ़िल्म में शामिल नहीं किया गया है। अगर यह सच है तो बड़े ही अफ़सोस की बात है कि इतना सुंदर गीत फ़िल्माया नहीं गया। ख़ैर, 'बीवी और मकान' १९६६ की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था ऋषी दा, यानी कि ऋषीकेश मुखर्जी ने, तथा फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे बिस्वजीत और कल्पना। फ़िल्म तो असफल

जितने अच्छे गायक थे, उतने ही बढ़िया संगीतकार भी थे हेमंत दा

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ४० युं तो शक़ील बदायूनी ने ज़्यादातर संगीतकार नौशाद साहब के लिए ही गीत लिखे, लेकिन दूसरे संगीतकारों के लिए लिखे उनके गानें भी उतने ही मक़बूल हुए थे। उन संगीतकारों में से कुछ नाम शक़ील साहब ने ख़ुद बताए थे अमीन सायानी के एक पुराने इंटरव्यू में जो रिकार्ड हुआ था १९६९ में, जब अमीन भाई ने उनसे पूछा था कि उनकी ज़बरदस्त कामयाबी का सब से ख़ास, सब से अहम राज़ क्या है। शक़ील साहब का जवाब था - "सन् '४६ का गीतकार होकर आज सन् '६९ में भी वही दर्जा हासिल किए हुए हूँ, इसका राज़ इसके सिवा कुछ नहीं अमीन साहब कि मैने हमेशा क्वांटिटी के मुक़ाबले क्वालिटी पर ज़्यादा ध्यान दिया। हालाँकि इस बात से मुझे कुछ माली क़ुरबानियाँ भी करनी पड़ी, मगर मेरा ज़मीर मुतमैन है कि मैने फ़िल्म इंडस्ट्री की ज़्यादा से ज़्यादा ख़िदमत की है, और मुझे फ़क्र है मैने बड़े बड़े पुराने संगीतकारों यानी कि खेमचंद प्रकाश, श्यामसुंदर, ग़ुलाम मोहम्मद, ख़ुर्शीद अनवर, सी. रामचन्द्र, सज्जाद, और नौशाद से लेकर रवि, हेमंत कुमार, कल्याणजी, एस. डी. बर्मन, सोनिक ओमी तक के साथ काम किया।" दोस्तों, आइए सुन

आज मुझे कुछ कहना है...जब साहिर की अधूरी चाहत को स्वर दिए सुधा मल्होत्रा और किशोर कुमार ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 402/2010/102 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर कल से हमने शुरु की है आप ही के पसंदीदा गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'पसंद अपनी अपनी'। आज इसकी दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है रश्मि प्रभा जी के पसंद का एक गीत। इससे पहले कि हम रश्मि जी के पसंद के गाने का ज़िक्र करें, हम यह बताना चाहेंगे कि ये वही रश्मि जी हैं जो एक जानी मानी लेखिका हैं, और प्रकाशन की बात करें तो "कादम्बिनी" , "वांग्मय", "अर्गला", "गर्भनाल" के साथ साथ कई महत्त्वपूर्ण अखबारों में उनकी रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है जिसमें अभी हाल ही में हिंद युग्म से प्रकाशित "शब्दों का रिश्ता" भी शामिल है. जिन्हे मालूम नहीं उनके लिए हम यह बता दें कि रश्मि जी कवि पन्त की मानस पुत्री श्रीमती सरस्वती प्रसाद की बेटी हैं और इनका नामकरण स्वर्गीय सुमित्रा नंदन पन्त जी ने ही किया था। रश्मि जी आवाज़ से भी सक्रिय रूप से जुड़ी हुईं हैं और कविताओं के अलावा 'आवाज़' के 'गुनगुनाते लम्हे' सीरीज़ में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। तो रश्

आ दो दो पंख लगा के पंछी बनेंगे...आईये लौट चलें बचपन में इस गीत के साथ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 396/2010/96 पा र्श्वगायिकाओं के गाए युगल गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला 'सखी सहेली' की आज की कड़ी में हमने जिन दो आवाज़ों को चुना है, वो दोनों आवाज़ें ही हिंदी फ़िल्म संगीत के लिए थोड़े से हट के हैं। इनमें से एक आवाज़ है गायिका आरती मुखर्जी की, जो बंगला संगीत में तो बहुत ही मशहूर रही हैं, लेकिन हिंदी फ़िल्मों में बहुत ज़्यादा सुनाई नहीं दीं हैं। और दूसरी आवाज़ है गायिका हेमलता की, जिन्होने वैसे तो हिंदी फ़िल्मों के लिए बहुत सारे गीत गाईं हैं, लेकिन ज़्यादातर गीत संगीतकार रवीन्द्र जैन के लिए थे, और उनमें से ज़्यादातर फ़िल्में कम बजट की होने की वजह से उन्हे वो प्रसिद्धी नहीं मिली जिनकी वो सही मायने में हक़दार थीं। ख़ैर, आज हम इन दोनों गायिकाओं के गाए जिस गीत को सुनवाने के लिए लाए हैं, वह गीत इन दोनों के करीयर के शुरूआती दिनों के थे। यह फ़िल्म थी १९६९ की फ़िल्म 'राहगीर', जिसका निर्माण गीतांजली चित्रदीप ने किया था। बिस्वजीत और संध्या अभिनीत इस फ़िल्म में हेमन्त कुमार का संगीत था और गीत लिखे गुलज़ार साहब ने। इसमें आरती मुखर

दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल.....साबरमती के संत को याद कर रहा है आज आवाज़ परिवार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 330/2010/30 आ ज है ३० जनवरी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का बलिदान दिवस। बापु के इस स्मृति दिवस को पूरा देश 'शहीद दिवस' के रूप में पालित करता है। बापु के साथ साथ देश के उन सभी वीर सपूतों को श्रद्धांजली अर्पित करने और सेल्युट करने का यह दिन है जिन्होने इस देश की ख़ातिर अपने प्राण न्योछावर कर दिए हैं। 'आवाज़' और 'हिंद युग्म' परिवार की ओर से, और हम अपनी ओर से इस देश पर मर मिटने वाले हर वीर सपूत को सलाम करते हैं, उनके सामने अपना सर झुका कर उन्हे सलामी देते हैं। आइए आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में सुनें कवि प्रदीप का लिखा हुआ वह गीत जो बापु पर लिखे गए तमाम गीतों में लोगों के दिलों में बहुत ही लोकप्रिय स्थान रखता है। आशा भोसले और साथियो की आवाज़ों में फ़िल्म 'जागृति' का यह गीत है "दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती की संत तूने कर दिया कमाल, रघुपति राघव राजा राम"। 'जागृति' १९५४ की फ़िल्म थी 'फ़िल्मिस्तान' के बैनर तले बनी हुई। यह एक देशभक्ति मूलक फ़िल्म थी जिसकी कहानी एक अध्यापक और उनके छात्रों के मधुर

वो शाम कुछ अजीब थी...जब किशोर दा की संजीदा आवाज़ में हेमंत दा के सुर थे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 323/2010/23 आ ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस कड़ी की शुरुआत में हम श्रद्धांजली अर्पित करते हैं इस देश के अन्यतम वीरों में से एक, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को, जिनकी आज जयंती है। उन पर कई फ़िल्में बनीं हैं, आज इस वक़्त मुझे ऐसी ही किसी फ़िल्म के जिस गीत की याद आ रही है वह है "झंकारो झंकारो झननन झंकारो, झंकारो अग्निवीणा, आज़ाद होके बंधुओं जीयो, ये जीना कोई जीना, ये जीना क्या जीना"। आइए अब आगे बढ़ते हैं और इंदु जी के पसंद का तीसरा गीत सुनते हैं ख़ामोशी से। मेरा मतलब है फ़िल्म 'ख़ामोशी' से। वैसे दोस्तों, यह गीत इतना भावुक और नायाब है कि इसे बिल्कुल ख़ामोश होकर ही सुनें तो बेहतर है। "वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है, वो कल भी पास पास थी, वो आज भी करीब है"। गुलज़ार साहब के बेहद बेहद बेहद असरदार बोल, हेमन्त कुमार का दिल को छू लेनेवाला संगीत, और उस पर किशोर कुमार की गम्भीर गायकी, कुल मिलाकर एक ऐसा गीत बना है कि दशकों बाद भी आज जब भी कभी इस गीत को सुनते हैं तो हर बार यह दिल को उतना ही छू जाता है जितना कि उस दौर के लोगों का छूता होगा। आख़ि

मुझको तुम जो मिले ये जहान मिल गया...जिस अभिनेत्री को मिली गीता की सुरीली आवाज़, वो यही गाती नज़र आई

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 279 'गी तांजली' की नौवी कड़ी में आज गीता दत्त की आवाज़ सजने वाली है माला सिंहा पर। दोस्तों, हमने इस महफ़िल में माला सिंहा पर फ़िल्माए कई गीत सुनवा चुके हैं लेकिन कभी भी हमने उनकी चर्चा नहीं की। तो आज हो जाए? माला सिंहा का जन्म एक नेपाली इसाई परिवार में हुआ था। उनका नाम रखा गया आल्डा। लेकिन स्कूल में उनके सहपाठी उन्हे डाल्डा कहकर छेड़ने की वजह से उन्होने अपना नाम बदल कर माला रख लिया। कलकत्ते में कुछ बंगला फ़िल्मों में अभिनय करने के बाद माला सिंहा को किसी बंगला फ़िल्म की शूटिंग् के लिए बम्बई जाना पड़ा। वहाँ उनकी मुलाक़ात हुई थी गीता दत्त से। गीता दत्त को माला सिंहा बहुत पसंद आई और उन्होने उनकी किदार शर्मा से मुलाक़ात करवा दी। और शर्मा जी ने ही माला सिंहा को बतौर नायिका अपनी फ़िल्म 'रंगीन रातें' में कास्ट कर दी। लेकिन माला की पहली हिंदी फ़िल्म थी 'बादशाह' जिसमें उनके नायक थे प्रदीप कुमार। उसके बाद आई पौराणिक धार्मिक फ़िल्म 'एकादशी'। दोनों ही फ़िल्में फ़्लॊप रही और उसके बाद किशोर साहू की फ़िल्म 'हैमलेट' ने माला को दिलाई ख्यात

नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए.....आज भी बच्चे इस गीत को सुन मुस्कुरा देते हैं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 261 "घ र से मस्जिद है बहुत दूर चलो युं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए"। दोस्तों, किसी ने ठीक ही कहा है कि रोते हुए किसी बच्चे को हँसाने में और ख़ुदा की इबादत में कोई फ़र्क नहीं है। बच्चे इतने निष्पाप और मासूम होते हैं कि भगवान स्वयम् ही उनमें निवास करते हैं। बच्चों की इसी मासूमियत और भोलेपन में वह जादू होता है जो कठोर से कठोर इंसान का भी दिल पिघला दे। और यह कहते भी हैं कि वह व्यक्ति किसी का ख़ून भी कर सकता है जिसे बच्चे पसंद नहीं। तो दोस्तों, आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर अगले १० दिनों तक आप सुनेंगे बच्चों की इन्ही मासूमीयत और नटखट शरारतों में लिपटे हुए १० सदाबहार गीत जिन्हे बाल कलाकारों पर फ़िल्माए गए हैं और हमारे लिए जितना संभव हो सका है हमने ऐसे गानें चुनने की कोशिश की है जिन्हे बाल गायक गायिकाओं ने ही गाए हैं, चाहे मुख्य रूप से हों या फिर कोरस में। तो दोस्तों, अब अगले १० दिनों के लिए आप भी हमारे संग बच्चे बन जाइए और खो जाइए अपने बचपन की उस सजीली, रंग बिरंगी, सपनों भरी दुनिया में। आपकी ख़िदमत में ये है लघु शृंखला 'बचपन के दिन भुल