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हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें....विश्व कप के लिए लड़ रहे सभी प्रतिभागियों के नाम आवाज़ का पैगाम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 601/2010/301 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, पिछले बृहस्पतिवार १७ फ़रवरी को २०११ विश्वकप क्रिकेट का ढाका में भव्य शुभारंभ हुआ और इन दिनों 'क्रिकेट फ़ीवर' से केवल हमारा देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया ग्रस्त है। दक्षिण एशिया और तमाम कॊमन-वेल्थ देशों में क्रिकेट सब से लोकप्रिय खेल है और हमारे देश में तो साहब आलम कुछ ऐसा है कि फ़िल्मी नायक नायिकाओं से भी ज़्यादा लोकप्रिय हैं क्रिकेट के खिलाड़ी। ऐसे मे ज़ाहिर सी बात है कि क्रिकेट विश्वकप को लेकर किस तरह का रोमांच हावी रहता होगा हम सब पर। और जब यह विश्वकप हमारे देश में ही आयोजित हो रही हो, ऐसे में तो बात कुछ और ही ख़ास हो जाती है। इण्डियन पब्लिक की इसी दीवानगी के मद्दे नज़र हाल ही में 'पटियाला हाउस' फ़िल्म रिलीज़ हुई है जिसकी कहानी भी एक क्रिकेटर के इर्द गिर्द है। ऐसे में इस क्रिकेट-बुख़ार की गरमाहट 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को ना लगे, ऐसा कैसे हो सकता है! विश्वकप क्रिकेट २०११ में भाग लेने वाले सभी खिलाड़ियों को शुभकामना हेतु आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड'

"सातों बार बोले बंसी" और "जाने दो मुझे जाने दो" जैसे नगीनों से सजी है आज की "गुलज़ार-आशा-पंचम"-मयी महफ़िल

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११० बा द मुद्दत के फिर मिली हो तुम, ये जो थोड़ी-सी भर गई हो तुम, ये वज़न तुम पर अच्छा लगता है.. अभी कुछ दिनों पहले हीं भरी-पूरी फिल्मफेयर की ट्रॉफ़ी स्वीकार करते समय गुलज़ार साहब ने जब ये पंक्तियाँ कहीं तो उनकी आँखों में गज़ब का एक आत्म-विश्वास था, लहजे में पिछले ४८ सालों की मेहनत की मणियाँ पिरोई हुई-सी मालूम होती थीं और बालपन वैसा हीं जैसे किसी पाँचवे दर्ज़े के बच्चे को सबसे सुंदर लिखने या सबसे सुंदर कहने के लिए "इन्स्ट्रुमेंट बॉक्स" से नवाज़ा गया हो। उजले कपड़ों में देवदूत-से सजते और जँचते गुलज़ार साहब ने अपनी उम्र का तकाज़ा देते हुए नए-नवेलों को खुद पर गुमान करने का मौका यह कह कर दे दिया कि "अच्छा लगता है, आपके साथ-साथ यहाँ तक चला आया हूँ।" अब उम्र बढ गई है तो नज़्म भी पुरानी होंगी साथ-साथ, लेकिन "दिल तो बच्चा है जी", इसलिए हर दौर में वही "छुटभैया" दिल हर बार कुछ नया लेकर हाज़िर हो जाता है। यूँ तो यह दिल गुलज़ार साहब का है, लेकिन इसकी कारगुजारियों का दोष अपने मत्थे नहीं लेते हुए, गुलज़ार साहब "विशाल" पर सारा दोष मथ दे

जाने क्या सोच कर नहीं गुजरा....गुलज़ार साहब के गीतों से सजा हर लम्हा कुछ सोचता रुक जाता है हमारे जीवन में भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 470/2010/170 ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर गुलज़ार साहब के लिखे गीतों की लघु शृंखला 'मुसाफ़िर हूँ यारों' की अंतिम कड़ी में आपका स्वागत है। दोस्तों, अभी शायद कल ही हमने ज़िक्र किया था गुलज़ार साहब के ग़ैर पारम्परिक रूपक और उपमाओं का। जिस ख़ूबसूरती से वो रूपकों का इस्तेमाल करते है, उसी अंदाज़ में विरोधाभास का एक उदाहरन देखिए कि जब वो लिखते हैं "जाने क्या सोच कर नहीं गुज़रा, एक पल रात भर नहीं गुज़रा"। एक पल जो हक़ीक़त में एक पल में ही गुज़र जाता है, गुलज़ार साहब ने उस पल को रात भर नहीं गुज़रने दिया। विरोधाभास का इससे बेहतर इस्तेमाल भला और क्या हो सकता है। आज फ़िल्म 'किनारा' के इसी गीत के साथ इस शृंखला का समापन कर रहे हैं। राहुल देव बर्मन की तर्ज़ पर यह गीत किशोर कुमार ने गाया था। गुलज़ार साहब के शब्दों में ये रही इस गीत की भूमिका - "ज़िंदगी कभी पलों में गुज़र जाती है, कभी ज़िंदगी भर एक पल नहीं गुज़रता। इंदर की ज़िंदगी में भी ऐसा ही एक पल ठहर गया था जिसे वो आरति के नाम से पहचान सकता था। रात गुज़र रही थी लेकिन वह एक पल सारी रात पे भारी था। जा

रोज अकेली आये, चाँद कटोरा लिए भिखारिन रात.....गुलज़ार साहब की अद्भुत कल्पना और सलिल दा के सुर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 469/2010/169 'मु साफ़िर हूँ यारों', गुलज़ार साहब के लिखे गीतों के इस लघु शृंखला की आज नवी कड़ी है। अब तक इसमें आपने गुलज़ार साहब के साथ जिन संगीतकारों के गीत सुनें, वो हैं राहुल देव बर्मन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, शंकर-जयकिशन, वसंत देसाई, इलैयाराजा और कल्याणजी-आनंदजी। आज बारी है संगीतकार सलिल चौधरी की। गुलज़ार साहब और सलिल दा के कम्बिनेशन का कौन सा गीत हमने चुना है, उस पर हम अभी आते हैं, उससे पहले गुलज़ार साहब की शान में कुछ कहने को जी चाहता है। गुलज़ार साहब ने अपने अनोखे अंदाज़ में पुराने शब्दों को भी जैसे नए पहचान दिए हों। उनके ख़ूबसूरत रूपक और उपमाएँ सचमुच हमें हैरत में डाल देते हैं और यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि ऐसा भी कोई सोच सकता है! उनके गीतों में कभी तारे ज़मीं पर चलते हैं तो कभी सर से आसमान उड़ जाता है। धूप, मिट्टी, रात, बारिश, ज़मीन, आसमान और बूंदों को नए नए रूप में हमारे सामने लाते रहे हैं गुलज़ार साहब। अब रात और चांद जैसे शब्दों को ही ले लीजिए। न जाने कितने असंख्य गीत बनें हैं "चाँद" और "रात" पर। लेकिन जब गुलज़ार साहब न

तुम्हें जिंदगी के उजाले मुबारक....एक गैर-गुलज़ारनुमा गीत, जो याद दिलाता है मुकेश और कल्याणजी भाई की भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 468/2010/168 र क्षाबंधन के शुभवसर पर सभी दोस्तों को हम अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए आज की यह प्रस्तुति शुरु कर रहे हैं। दोस्तों, आज रक्षाबंधन के साथ साथ २४ अगस्त भी है। आज ही के दिन सन् २००० को संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी के कल्याणजी भाई हम से हमेशा के लिए दूर चले गए थे। आज जब हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर गुलज़ार साहब के लिखे गीतों की शृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं, तो आपको यह भी बता दें कि गुलज़ार साहब ने एक फ़िल्म में कल्याणजी-आनंदजी के लिए गीत लिखे थे। और वह फ़िल्म थी 'पूर्णिमा'। आज कल्याणजी भाई के स्मृति दिवस पर आइए उसी फ़िल्म से एक बेहद प्यारा सा दर्द भरा गीत सुनते हैं मुकेश की आवाज़ में - "तुम्हे ज़िंदगी के उजाले मुबारक़, अंधेरे हमें आज रास आ गए हैं, तुम्हे पाके हम ख़ुद से दूर हो गए थे, तुम्हे छोड़ कर अपने पास आ गए हैं"। अभी दो दिन बाद, २७ अगस्त को मुकेश जी की भी पुण्यतिथि है। इसलिए आज के इस गीत के ज़रिए हम कल्याणजी भाई और मुकेश जी, दोनों को ही श्रद्धांजली अर्पित कर रहे हैं।'पूर्णिमा' १९६५ की फ़िल्म थी और उन दिनों गुलज़ार साह

सुरमई अंखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा रे.....एक स्वर्ग से उतरी लोरी, येसुदास की पाक आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 467/2010/167 ब च्चों के साथ गुलज़ार साहब का पुराना नाता रहा है। गुलज़ार साहब को बच्चे बेहद पसंद है, और समय समय पर उनके लिए कुछ यादगार गानें भी लिखे हैं बिल्कुल बच्चों वाले अंदाज़ में ही। मसलन "लकड़ी की काठी", "सा रे के सा रे ग म को लेकर गाते चले", "मास्टरजी की आ गई चिट्ठी", आदि। बच्चों के लिए उनके लिखे गीतों और कहानियों में तितलियाँ नृत्य करते हैं, पंछियाँ गीत गाते हैं, बच्चे शैतानी करते है। जीवन के चिर परिचीत पहलुओं और संसार की उन जानी पहचानी ध्वनियों की अनुगूंज सुनाई देती है गुलज़ार के गीतों में। बच्चों के गीतों की बात करें तो एक जौनर इसमें लोरियों का भी होता है। गुलज़ार साहब के लिखे लोरियों की बात करें तो दो लोरियाँ उन्होंने ऐसी लिखी है कि जो कालजयी बन कर रह गई हैं। एक तो है फ़िल्म 'मासूम' का "दो नैना और एक कहानी", जिसे गा कर आरती मुखर्जी ने फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीता था, और दूसरी लोरी है फ़िल्म 'सदमा' का "सुरमयी अखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा रे"। येसुदास की नर्म मख़मली आवाज़ में यह लोरी

जीवन से लंबे हैं बंधु, ये जीवन के रस्ते...गुलज़ार साहब की कलम और मन्ना दा की आवाज़, एक बेमिसाल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 466/2010/166 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों का एक बार फिर से स्वागत है पुराने सदाबहार गीतों की इस महफ़िल में। जैसा कि आप जानते हैं इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है गीतकार, शायर, लेखक व फ़िल्मकार गुलज़ार साहब के लिखे फ़िल्मी गीतों पर केन्द्रित शृंखला 'मुसाफ़िर हूँ यारों', तो आज जिस गीत की बारी है, वह भी कुछ मुसाफ़िर और रास्तों से ताल्लुख़ रखता है। और ये रास्ते हैं ज़िंदगी के रास्ते। इस गीत में भी ज़िंदगी का एक कड़वा सत्य उजागर होता है, जिसे बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों से संवारा है गुलज़ार साहब ने। "जीवन से लम्बे हैं बंधु ये जीवन के रस्ते, एक पल रुक कर रोना होगा, एक पल चल के हँस के, ये जीवन के रस्ते"। दादामुनि अशोक कुमार पर फ़िल्माये और मन्ना डे के गाए फ़िल्म 'आशिर्वाद' के इस गीत को सुन कर भले ही दिल उदास हो जाता है, आँखें नम हो जाती हैं, लेकिन जीवन के इस कटु सत्य को नज़रंदाज़ भी तो नहीं किया जा सकता। सुखों और दुखों का मेला है ज़िंदगी, और निरंतर चलते रहने का नाम है ज़िंदगी, बस यही दो सीख हैं इस गीत में। वसंत देसाई के

राह में रहते हैं, यादों में बसर करते हैं.....मुसाफिर गुलज़ार के यायावर दिल की बयानी है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 465/2010/165 "मु साफ़िर हूँ यारों, ना घर है ना ठिकाना, मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना"। दोस्तों, गुलज़ार साहब के इसी गीत के बोलों को लेकर हमने इस शृंखला का नाम रखा है 'मुसाफ़िर हूँ यारों'। अब देखिए ना, कुछ कुछ इसी भाव से मिलता जुलता गुलज़ार साहब ने एक और गीत भी तो लिखा था फ़िल्म 'नमकीन' में! याद आया? "राह पे रहते है, यादों पे बसर करते हैं, ख़ुश रहो अहले वतन, हम तो सफ़र करते हैं"। किसी ट्रक ड्राइवर के किरदार के लिए इस गीत से बेहतर गीत शायद उसके बाद फिर कभी नहीं बन पाया है। किशोर कुमार की आवाज़ में राहुल देव बर्मन के संगीत से सँवरे इस गीत को आज हम पेश कर रहे हैं। 'नमकीन' गुलज़ार साहब के फ़िल्मी करीयर की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही। यह १९८२ की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन भी गुलज़ार साहब ने ही किया था। शर्मिला टैगोर, संजीव कुमार, वहीदा रहमान, शबाना आज़मी और किरण वैराले फ़िल्म के मुख्य किरदार निभाये। यह समरेश बासु की कहानी पर बनी फ़िल्म थी जिनकी कहानी पर गुलज़ार साहब ने उससे पहले १९७७ में फ़िल्म 'किताब' का निर्माण क

जब भी ये दिल उदास होता है....जब ओल्ड इस गोल्ड के माध्यम से गायिका शारदा ने शुभकामनाएँ दी गुलज़ार साहब को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 464/2010/164 आ ज १८ अगस्त है। गुलज़ार साहब को हम अपनी तरफ़ से, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की तरफ़ से, आवाज़' परिवार की तरफ़ से, और 'हिंद युग्म' के सभी चाहनेवालों की तरफ़ से जनमदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ देते हैं, और ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि उन्हें दीर्घायु करें, उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें, और वो इसी तरह से शब्दों के, गीतों के, ग़ज़लों के ताने बाने बुनते रहें और फ़िल्म जगत के ख़ज़ाने को समृद्ध करते रहें। आज उनके जनमदिन पर 'मुसाफ़िर हूँ यारों' शृंखला में हम जिस गीत को चुन लाए हैं वह है फ़िल्म 'सीमा' का। मोहम्मद रफ़ी और शारदा की आवाज़ों में यह गीत है "जब भी ये दिल उदास होता है, जाने कौन आसपास होता है"। वैसे रफ़ी साहब की ही आवाज़ है पूरे गीत में, शारदा की आवाज़ आलापों में सुनाई पड़ती है। यह सन् १९७१ में निर्मित 'सीमा' है जिसका निर्माण सोहनलाल कनवर ने किया था और जिसे सुरेन्द्र मोहन ने निर्देशित किया था। राकेश रोशन, कबीर बेदी, सिमी गरेवाल, पद्मा खन्ना, चाँद उस्मानी, और अभि भट्टाचार्य अभिनीत इस फ़िल्म का संगीत निर्द

घुंघटा गिरा है ज़रा घुंघटा उठा दे रे....जब गुलज़ार साहब बोले लता जी के बारे में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 463/2010/163 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में आप सभी का एक बार फिर हार्दिक स्वागत है। इन दिनों इस स्तंभ में जारी है गीतकार व शायर गुलज़ार साहब के लिखे गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'मुसाफ़िर हूँ यारों'। जिस तरह से मुसाफ़िर निरंतर चलता जाता है, बस चलता ही जाता है, ठीक उसी तरह से गुलज़ार साहब के गानें भी चलते चले जा रहे हैं। ना केवल उनके पुराने गानें, जो उन्होंने ६०, ७० और ८० के दशकों में लिखे थे, वो आज भी बड़े चाव से सुनें जाते हैं, बल्कि बदलते वक़्त के साथ साथ हर दौर में उन्होंने ज़माने की रुचि का नब्ज़ सही सही पकड़ा, और आज भी "दिल तो बच्चा है जी", "इब्न-ए-बतुता" और "पहली बार मोहब्बत की है" जैसे गानों के ज़रिये आज की पीढ़ी के दिनों पर राज कर रहे हैं। हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में वो जिस तरह की हैसियत रखते हैं, शायद ही किसी और गीतकार, शायर और फ़िल्मकार ने एक साथ रखा होगा। आइए 'मुसाफ़िर हूँ यारों' शृंखला की तीसरी कड़ी में आज सुनें लता मंगेशकर की आवाज़ में फ़िल्म 'पलकों की छाँव में' से "घुंघटा गिरा है ज़रा

ये साये हैं....ये दुनिया है....जो दिखता है उस पर्दे के पीछे की तस्वीर इतने सरल शब्दों में कौन बयां कर सकता है गुलज़ार साहब के अलावा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 462/2010/162 मु साफ़िर हूँ यारों' शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। आज हम इसमें सुनने जा रहे हैं गुलज़ार साहब की लिखे बड़े शहर के तन्हाई भरी ज़िंदगी का चित्रण एक बेहद ख़ूबसूरत गीत में। यह गीत है १९८० की फ़िल्म 'सितारा' का जिसे राहुल देव बर्मन के संगीत में आशा भोसले ने गाया है - "ये साये हैं, ये दुनिया है, परछाइयों की"। अगर युं कहें कि इस गीत के ज़रिये फ़िल्म की कहानी का सार कहा गया है तो शायद ग़लत ना होगा। 'सितारा' कहानी है एक लड़की के फ़िल्मी सितारा बनने की। फ़िल्मी दुनिया की रौनक को रुसवाइयों की रौनक कहते हैं गुलज़ार साहब इस गीत में। वहीं "बड़ी नीची राहें हैं ऊँचाइयों की" में तो अर्थ सीधा सीधा समझ में आ जाता है। मल्लिकारुजुन राव एम. निर्मित इस फ़िल्म के निर्देशक थे मेरज, और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे मिथुन चक्रबर्ती, ज़रीना वहाब, कन्हैयालाल, आग़ा, दिनेश ठाकुर और पेण्टल। इस फ़िल्म में लता मंगेशकर और भूपेन्द्र का गाया हुआ "थोड़ी सी ज़मीन, थोड़ा आसमाँ, तिनकों का बस एक आशियाँ" गीत भी बेहद मक़बूल हुआ था।

सूलियों पे चढ़ के चूमें आफ़ताब को....तन मन में देश भक्ति का रंग चढ़ाता गुलज़ार साहब का ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 461/2010/161 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह और एक नई शृंखला के साथ हम हाज़िर हैं। आज रविवार है, यानी कि छुट्टी का दिन। लेकिन यह रविवार दूसरे रविवारों से बहुत ज़्यादा ख़ास बन गया है, क्योंकि आज हम सभी भारतवासियों के लिए है साल का सब से महत्वपूर्ण दिन - १५ अगस्त। जी हाँ, इस देश की मिट्टी को प्रणाम करते हुए हम आप सभी को दे रहे हैं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ। आज दिन भर आपने विभिन्न रेडियो व टीवी चैनलों में ढेर सारे देशभक्ति के गीत सुनें होंगे जो हर साल आप १५ अगस्त और २६ जनवरी के दिन सुना करते हैं, और सोच रहे होंगे कि शायद उन्ही में से एक हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भी बजाने वाले हैं। यह बात ज़रूर सही है कि आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर देश भक्ति का रंग ही चढ़ा रहेगा, लेकिन यह गीत उन अतिपरिचित और सुपरहिट देश भक्ति गीतों में शामिल नहीं होता, बल्कि इस गीत को बहुत ही कम सुना गया है, और बहुतों को तो इसके बारे में मालूम ही नहीं है कि ऐसा भी कोई फ़िल्मी देशभक्ति गीत है। इससे पहले कि इस गीत की चर्चा आगे बढ़ाएँ, आपको बता दें कि आज से 'ओल्ड इज़ ग

बरसे फुहार....गुलज़ार साहब के ट्रेड मार्क शब्द और खय्याम साहब का सुहाना संगीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 437/2010/137 'रि मझिम के तराने' शृंखला की आज है आठवीं कड़ी। दोस्तों, हमने इस बात का ज़िक्र तो नहीं किया था, लेकिन हो सकता है कि शायद आप ने ध्यान दिया हो, कि इस शृंखला में हम बारिश के १० गीत सुनवा रहे हैं जिन्हे १० अलग अलग संगीतकारों ने स्वरबद्ध किए हैं। अब तक हमने जिन संगीतकारों को शामिल किया, वो हैं कमल दासगुप्ता, वसंत देसाई, शंकर जयकिशन, हेमन्त कुमार, सचिन देव बर्मन, रवीन्द्र जैन, और राहुल देव बर्मन। आज जिस संगीतकार की बारी है, वह एक बेहद सुरीले और गुणी संगीतकार हैं, जिनकी धुनें हमें एक अजीब सी शांति और सुकून प्रदान करती हैं। एक सुकून दायक ठहराव है जिनके संगीत में। उनके गीतों में ना अनर्थक साज़ों की भीड़ है, और ना ही बोलों में कोई सस्तापन। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं ख़य्याम साहब की। आज की कड़ी में सुनिए आशा भोसले की आवाज़ में सन्‍ १९८० की फ़िल्म 'थोड़ी सी बेवफ़ाई' का रिमझिम बरसता गीत "बरसे फुहार, कांच की जैसी बूंदें बरसे जैसे, बरसे फुहार"। गुलज़ार साहब का लिखा हुआ गीत है। इस फ़िल्म के दूसरे गानें भी काफ़ी मशहूर हुए थे, मसलन लता-किशोर

सावन में बरखा सताए....लीजिए एक शिकायत भी सुनिए मेघों की रिमझिम से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 434/2010/134 'रि मझिम के तराने' शृंखला की चौथी कड़ी में आज प्रस्तुत है एक ऐसा गीत जिसमें है जुदाई का रंग। एक तरफ़ अपने प्रेमिका से दूरी खटक रही है, और दूसरी तरफ़ सावन की झड़ियाँ मन में आग लगा रही है, मिलन की प्यास को और भी ज़्यादा बढ़ा रही है। इस भाव पर तो बहुत सारे गानें समय समय पर बने हैं, लेकिन आज हमने जिस गीत को चुना है वह बड़ा ही सुरीला है, उत्कृष्ट है संगीत के लिहाज़ से भी, बोलों के लिहाज़ से भी, और गायकी के लिहाज़ से भी। यह है हेमन्त कुमार का गाया और स्वरबद्ध किया, तथा गीतकार गुलज़ार का लिखा हुआ फ़िल्म 'बीवी और मकान' का गीत "सावन में बरखा सताए, पल पल छिन छिन बरसे, तेरे लिए मन तरसे"। मैं यकीन के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन मैंने कही पढ़ा है कि इस गीत को फ़िल्म में शामिल नहीं किया गया है। अगर यह सच है तो बड़े ही अफ़सोस की बात है कि इतना सुंदर गीत फ़िल्माया नहीं गया। ख़ैर, 'बीवी और मकान' १९६६ की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था ऋषी दा, यानी कि ऋषीकेश मुखर्जी ने, तथा फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे बिस्वजीत और कल्पना। फ़िल्म तो असफल

गीत कभी बूढ़े नहीं होते, उनके चेहरों पर कभी झुर्रियाँ नहीं पड़ती...सच ही तो कहा था गुलज़ार साहब ने

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ४४ गु लज़ार, राहुल देव बर्मन, आशा भोसले। ७० के दशक के आख़िर से लेकर ८० के दशक के मध्य भाग तक इस तिकड़ी ने फ़िल्म सम्गीत को एक से एक यादगार गीत दिए हैं। लेकिन इनमें जिस फ़िल्म के गानें सब से ज़्यादा सुने और पसंद किए गए, वह फ़िल्म थी 'इजाज़त'। इस फ़िल्म में आशा जी का गाया हर एक गीत कालजयी साबित हुआ। ख़ास कर "मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है"। गुलज़ार साहब ने शब्दों के ऐसे ऐसे जाल बुने हैं इस गीत में कि ये बस वो ही कर सकते हैं। चाहे ख़त में लिपटी रात हो या एक अकेली छतरी में आधे आधे भीगना, या युं कहें कि मन का आधा आधा भीगना, सूखे वाले हिस्से का घर ले आना और गिले मन को बिस्तर के पास छोड़ आना, इस तरह के ऒब्ज़र्वेशन और कल्पना गुलज़ार साहब के अलावा कोई दूसरा आज तक नहीं कर पाया है। विविध भारती में गुलज़ार साहब एक बार 'जयमाला' कार्यक्रम में यह गीत बजाया था। तो उन्होने अपने ही शायराना अंदाज़ में इस गीत को पेश करने से पहले कुछ इस तरह से कहे थे - "दिल में ऐसे संभलते हैं ग़म जैसे कोई ज़ेवर संभालता है। टूट गए, नाराज़ हो गए, अंगूठी उतारी, वा