Skip to main content

Posts

Showing posts with the label girija devi

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

चैत्र मास में चैती गीतों का लालित्

स्वरगोष्ठी – 161 में आज लोक संगीत का रस-रंग जब उपशास्त्रीय मंच पर बिखरा ‘चैत मासे चुनरी रंगइबे हो रामा, पिया घर लइहें...’ ‘ रेडियो प्लेबैक इण्डिया ’ के मंच पर साप्ताहिक स्तम्भ ‘ स्वरगोष्ठी ’ के एक नए अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र , एक बार पुनः आप सब संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों , आज हम आपसे संगीत की एक ऐसी शैली पर चर्चा करेंगे जो मूलतः ऋतु प्रधान लोक संगीत की शैली है , किन्तु अपनी सांगीतिक गुणबत्ता के कारण इस शैली को उपशास्त्रीय मंचों पर भी अपार लोकप्रियता प्राप्त है। भारतीय संगीत की कई ऐसी लोक - शैलियाँ हैं , जि नका प्रयोग उपशास्त्रीय संगीत के रूप में भी किया जाता है। होली पर्व के बाद , आरम्भ होने वाले चैत्र मास से ग्रीष्म ऋतु का आगमन हो जाता है। इस परिवेश में चैती गीतों का गायन आरम्भ हो जाता है। गाँव की चौपालों से लेकर मेलों में , मन्दिरों में चैती के स्वर गूँजने लगते हैं। आज के अंक से हम आपसे चैती गीतों के विभिन्न प्रयोगों पर चर्चा आरम्भ करेंगे। उत्तर भारत में इस गीत के प्रकारों को चैती , चैता और घाटो के नाम से जान

होली की उमंग : राग काफी के संग

स्वरगोष्ठी – 158 में आज फाल्गुनी परिवेश में राग काफी के विविध रंग   ‘लला तुमसे को खेले होली, तुम तो करत बरजोरी...’ फाल्गुनी परिवेश में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के मंच पर ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र, एक बार पुनः आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, पिछली पाँच कड़ियों से हम बसन्त ऋतु के मदमाते रागों पर चर्चा कर रहे हैं और फाल्गुनी परिवेश के अनुकूल गायन-वादन का आनन्द ले रहे हैं। फाल्गुन मास में शीत ऋतु का क्रमशः अवसान और ग्रीष्म ऋतु की आगमन होता है। यह परिवेश उल्लास और श्रृंगार भाव से परिपूर्ण होता है। प्रकृति में भी परिवर्तन परिलक्षित होने लगता है। रस-रंग से परिपूर्ण फाल्गुनी परिवेश का एक प्रमुख राग काफी होता है। स्वरों के माध्यम से फाल्गुनी परिवेश, विशेष रूप से श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति के लिए राग काफी सबसे उपयुक्त राग है। पिछले अंकों में हमने इस राग में ठुमरी, टप्पा, खयाल, तराना और भजन प्रस्तुत किया था। राग, रस और रगों का पर्व होली अब मात्र एक सप्ताह की दूरी पर है, अतः आज के अंक में हम आपसे राग काफ