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अब के बरस भेज भैया को बाबुल....एक अमर गीत एक अमर फिल्म से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 178 श रद तैलंग जी के पसंद पर कल आप ने फ़िल्म 'विद्यापति' का गीत सुना था लता जी की आवाज़ में, आज सुनिए लता जी की बहन आशा जी की आवाज़ में फ़िल्म संगीत के सुनहरे युग का एक और सुनहरा नग़मा। ससुराल में ज़िंदगी बिता रही हर लड़की के दिल की आवाज़ है यह गीत "अब के बरस भेज भ‍इया को बाबुल सावन में लीजो बुलाए रे, लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ, दीजो संदेसा भिजाए रे"। हमारे देश के कई हिस्सों में यह रिवाज है कि सावन के महीने में बहू अपने मायके जाती हैं, ख़ास कर शादी के बाद पहले सावन में। इसी परम्परा को इन ख़ूबसूरत शब्दों में ढाल कर गीतकार शैलेन्द्र ने इस गीत को फ़िल्म संगीत का एक अनमोल नगीना बना दिया है। इस गीत को सुनते हुए हर शादी-शुदा लड़की का दिल भर आता है, बाबुल की यादें, अपने बचपन की यादें एक बार फिर से तर-ओ-ताज़ा हो जाती हैं उनके मन में। देश की हर बहू अपना बचपन देख पाती हैं इस गीत में। फ़िल्म 'बंदिनी' का यह गीत फ़िल्माया गया था नूतन पर। 'बंदिनी' सन् १९६३ की एक नायिका प्रधान फ़िल्म थी जिसका निर्माण व निर्देशन किया था बिमल राय ने। जरासंध

जमीन से हमें आसमान पर बिठाके गिरा तो न दोगे....एक मासूम सा सवाल इस प्रेम गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 138 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में आप इन दिनों सुन रहे हैं 'मदन मोहन विशेष'। मदन मोहन का मनमोहक संगीत फ़िल्म संगीत के स्वर्णयुग का एक सुरीला अध्याय है। उनकी हर रचना बेजोड़ है, बावजूद इसके कि उन्होने दूसरे सफल संगीतकारों की तरह बहुत ज़्यादा फ़िल्मों में संगीत नहीं दिया है। उनके गीतों में हमारी संस्कृति की अनुगूँज सुनाई देती है। उनके संगीत में है रागों का अनुराग, संगीत का वह रस भरा संसार है कि जिसमें बार बार डुबकी लगाने को जी चाहता है। फ़िल्म संगीत की दुनिया से जुड़े संगीतकारों की इस दुनिया में मदन मोहन अलग ही नज़र आते हैं। संगीतकार बेशक़ एक दौर में अपनी संगीत यात्रा पूरी कर चला जाता है, लेकिन उनका संगीत काल और समय से परे होता है। मदन मोहन का संगीत भी कालजयी है और रहेगा जो साया बन हमेशा हमारे साथ चलेगा और बाँटता रहेगा हमारी ख़ुशियाँ, हमारे ग़म। मदन मोहन साहब को हम ने जिस क़दर अपने दिलों में बसा रखा है, वो कभी वहाँ से उतर नहीं पायेंगे। कुछ इसी तरह का भाव उनके उस गीत में भी है जो आज हम चुनकर लाये हैं इस महफ़िल के लिए। "ज़मीं से हमें आसमाँ पर बिठाके गिरा

नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है...मुट्ठी में है तकदीर हमारी...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 111 हिं दी फ़िल्मों के ख़ज़ाने में ऐसे बहुत सारी फ़िल्में हैं जिनमें मुख्य किरदार बच्चों ने निभाये हैं। अर्थात, इन फ़िल्मों में बाल कलाकार ही कहानी के केन्द्र मे रहे हैं। ऐसी ही एक फ़िल्म थी 'बूट पालिश', जिसका शुमार बेहतरीन और कामयाब सामाजिक संदेश देनेवाली बाल-फ़िल्मों में होता है। 'बूट पालिश' निर्देशक प्रकाश अरोड़ा की पहली फ़िल्म थी। प्रकाश अरोड़ा और राजा नवाथे राज कपूर के सहायक हुआ करते थे। 'आग', 'बरसात' और 'आवारा' जैसी फ़िल्मों में इन दोनों ने राज कपूर को ऐसिस्ट किया था। आगे चलकर राज साहब ने इन दोनों को स्वतन्त्र निर्देशक बनने का अवसर दिया। राजा नवाथे को 'आह' मिली तो प्रकाश अरोड़ा को मिला 'बूट पालिश'। अपनी पहली निर्देशित फ़िल्म के हिसाब से प्रकाश साहब का काम बेहद सराहनीय रहा। यूँ तो १९५४ के इस फ़िल्म मे राज कपूर ने भी अभिनय किया था, लेकिन फ़िल्म के मुख्य चरित्रों में थे दो बहुत ही प्यारे प्यारे से बच्चे, बेबी नाज़ और रतन कुमार। बेबी नाज़ की एक और महत्वपूर्ण फ़िल्म 'लाजवंती' का एक गीत हम आप को क

तेरे ख्यालों में हम...तेरी ही बाहों में हम... डुबो देती है आशा अपनी आवाज़ में इस गीत के सुननेवालों को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 97 दो स्तों, अभी कुछ दिन पहले हमने आपको वी.शांताराम की फ़िल्म 'नवरंग' का गीत सुनवाया था " तू छूपी है कहाँ, मैं तड़पता यहाँ " और बताया था कि इस गीत को रामलाल चौधरी की शहनाई के लिए भी याद किया जाता है। आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' भी रामलाल के संगीत से जुड़ा हुआ है मगर बतौर शहनाई वादक नहीं बल्कि बतौर संगीतकार। रामलाल भले ही साज़िंदे और सहायक के रूप में ज़्यादा जाने जाते हैं, उन्होने दो-चार फ़िल्मों में संगीत भी दिया है, और उन्ही में से एक मशहूर फ़िल्म का एक गीत लेकर हम आज उपस्थित हुए हैं। इससे पहले कि आपको उस फ़िल्म और उस गीत के बारे में बतायें, रामलाल से जुड़ी कुछ बातें आपको बताना चाहेंगे। बतौर स्वतंत्र संगीतकार रामलाल को पहला मौका दिया था फ़िल्मकार पी. एल. संतोषी ने। साल था १९५० और फ़िल्म थी 'तांगावाला'। राज कपूर और वैजयंतीमाला अभिनीत इस फ़िल्म के कुल ६ गानें रामलाल बना चुके थे लेकिन दुर्भाग्यवश फ़िल्म आगे बनी नहीं। और रामलाल एक बार फिर फ़िल्म संगीत जगत में बतौर साज़िंदे बाँसुरी और शहनाई बजाने लगे। इसके बाद सन् १९५२ मे उनके हाथ एक ब

देखो कसम से...कसम से, कहते हैं तुमसे हाँ.....प्यार की मीठी तकरार में...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 73 दो स्तों, अभी हाल ही में हमने आपको फ़िल्म 'तुमसा नहीं देखा' का एक गीत सुनवाया था रफ़ी साहब का गाया हुआ। आज भी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हमने इसी फ़िल्म से एक दोगाना चुना है जिसमें रफ़ी साहब के साथ हैं आशा भोंसले। फ़िल्म 'तुमसा नहीं देखा' से संबंधित जानकारियाँ तो हमने उसी दिन आपको दे दिया था, इसलिए आज यहाँ पर हम उन्हे नहीं दोहरा रहे हैं। आशा भोंसले और मोहम्मद रफ़ी साहब की जोड़ी ने फ़िल्म संगीत जगत को तीन दशकों तक बेशुमार लाजवाब युगल गीत दिए हैं जो बहुत से अलग अलग संगीतकारों के धुनों पर बने हैं। सफलता की दृष्टि से देखा जाये तो ओ. पी. नय्यर साहब का 'स्कोर' इस मामले में बहुत ऊँचा रहा है। इस फ़िल्म में नय्यर साहब के संगीत में आशाजी और रफ़ी साहब के कई युगल गीत लोकप्रिय हुए थे जैसे कि "सर पर टोपी लाल हाथ मे रेशम का रूमाल हो तेरा क्या कहना", "आये हैं दूर से मिलने हुज़ूर से, ऐसे भी चुप ना रहिए, कहिए भी कुछ तो कहिए दिन है के रात है" और "देखो क़सम से क़सम से कहते हैं तुमसे हाँ, तुम भी जलोगे हाथ मलोगे रूठ के हमसे हाँ&q

चाहा था एक शख़्स को .....महफ़िल-ए-तलबगार में आशा ताई की गुहार

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०८ कु छ कड़ियाँ पहले मैने मन्ना डे साहब का वास्तविक नाम देकर लोगों को संशय में डाल दिया था। पूरा का पूरा एक पैराग्राफ़ इसीपर था कि दिए गए नाम से फ़नकार को पहचानें। आज सोच रहा हूँ कि वैसा कुछ फिर से करूँ। अहा... आप तो खुश हो गए होंगे कि मैने तो इस आलेख का शीर्षक हीं "आशा ताई की गुहार" दिया है तो चाहे कोई भी नाम क्यों न दूँ फ़नकार तो आशा ताई हीं हैं। लेकिन पहेली अगर इतनी आसान हो तो पहेली काहे की। तो भाई पहेली यह है कि आज के फ़नकार एक संगीतकार हैं और उनका वास्तविक नाम है "मोहम्मद ज़हुर हासमी"। अब पहचानिए कि मैं किस संगीतकार के बारे में बात कर रहा हूँ। आपकी सहूलियत के लिए दो हिंट देता हूँ- क) इस आलेख के शीर्षक को सही से पढें। हम जिस गज़ल की आज बात कर रहे हैं..उसका नाम इस शीर्षक में है और उस गज़ल के एलबम के नाम में इन संगीतकार का नाम भी है। ख) १९७६ में बनी एक फ़िल्म में दो नायक और एक नायिका ऎसे त्रिकोण में उलझे कि एक बार मुकेश को तो एक बार लता जी को कहना पड़ा -"...दिल में ख़्याल आता है"। यह ख़्याल किसी और का नहीं..इन्हीं का था। चलिए एक अतिरिक

हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए - साहिर का लिखा एक खूबसूरत युगल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 56 ओ . पी. नय्यर ने अगर आशा भोंसले से सबसे ज़्यादा गाने लिये तो संगीतकार रवि ने भी लताजी से ज़्यादा आशाजी से ही गाने लिये। यहाँ तक की रवि के सबसे सफलतम गीत आशाजी ने ही गाये हैं। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पेश है संगीतकार रवि और गायिका आशा भोंसले की जोड़ी का एक शायराना नग्मा । महेन्द्र कपूर की भी आवाज़ शामिल है इस गाने में। जोड़ी की अगर बात करें तो रवि के साथ शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी की जोड़ी भी ख़ूब जमी थी। हमराज़, नीलकमल, पारस, काजल, दो कलियाँ, गुमराह, आँखें, एक महल हो सपनों का, धुंध, और वक़्त जैसी कामयाब फ़िल्मों में साहिर और रवि ने एक साथ काम किया। आज aasha -महेन्द्र की आवाज़ों में जो गीत हम चुन कर लाए हैं वह है फ़िल्म वक़्त का। साहिर हमेशा से सीधे शब्दों में गहरी बात कह जाते थे। इस गीत में भी सीधे सीधे वो लिखते हैं कि "हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए, लाखों हसीन ख़्वाब निगाहों में आ गए"। बात है तो बड़ी सीधी, लेकिन तरीका बेहद सुंदर और रुमानीयत से भरपूर। फ़िल्म वक़्त बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था यश चोपड़ा ने। यह हि

बेईमान बालमा मान भी जा...आशा की इस गुहार से बचकर कहाँ जायेंगे...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 54 ओ .पी. नय्यर के गानों में एक अलग ही चमक हुआ करती थी। चाहे गाना ख़ुशरंग हो या फिर ग़मज़दा, नय्यर साहब का हर एक गीत रंगीन है, चमकदार है। उनका संगीत संयोजन कुछ इस तरह होता था कि उनके गीतों में हर एक साज़ बहुत ही साफ़ साफ़ सुनाई पड़ता था। दूसरे संगीतकारों की तरह उन्होने कभी 'वायलिन' से 'हार्मोनी' पैदा करने की कोशिश नहीं की, बल्कि हर साज़ को एकल तरीके से गीतों में पेश किया। फिर चाहे वह सारंगी हो या सितार, 'सैक्सोफ़ोन' हो या फिर बांसुरी। मूड, पात्र और स्थान - काल के आधार पर साज़ों का चुनाव किया जाता था, और इन साज़ों के हर एक पीस को बहुत ही निराले ढंग से पेश किया जाता था। इन साज़ों को बजाने के लिए भी नय्यर साहब ने हमेशा बड़े बड़े साज़िंदों और फ़नकारों को ही नियुक्त किया। इन फ़नकारों के बारे में विस्तार से हम फिर कभी बात करेंगे, चलिये अब आ जाते हैं आज के गीत पर। आज का गीत है फ़िल्म 'हम सब चोर हैं' से, नय्यर साहब का संगीत, मजरूह साहब के बोल, और आशाजी की आवाज़। शम्मी कपूर, नलिनी जयवन्त और अमीता अभिनीत फ़िल्म 'हम सब चोर हैं' आयी

जां अपनी, जांनशीं अपनी तो फिर फ़िक्र-ए-जहां क्यों हो...बेगम अख्तर और आशा ताई एक साथ.

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०३ ग़ मे-हस्ती, ग़मे-बस्ती, ग़मे-रोजगार हूँ, ग़म की जमीं पर गुमशुदा एक शह्रयार हूँ। बात इतनी-सी है कि दिन जलाने के लिए सूरज को जलना हीं पड़ता है। अब फ़र्क इतना हीं है कि वह सूरज ता-उम्र,ता-क़यामत खुद को बुलंद रख सकता है, लेकिन एक अदना-सा-इंसान ऎसा कर सके, यह मुमकिन नहीं। जलना किसी की भी फितरत में नहीं होता, लेकिन कुछ की किस्मत हीं गर्म सुर्ख लोहे से लिखी जाती है, फिर वह जले नहीं तो और क्या करे। वहीं कुछ को अपनी आबरू आबाद रखने के लिए अपनी हस्ती को आग के सुपूर्द करना होता है। यारों, इश्क एक ऎसी हीं किस्मत है, जो नसीब से नसीब होती है, लेकिन जिनको भी नसीब होती है, उनकी हस्ती को मु्ज़्तरिब कर जाती है। जिस तरह सूरज जमीं के लिए जलता है, उसी तरह इश्क में डूबा शख़्स अपने महबूब या महबूबा के लिए सारे दर्द-औ-ग़म सहता रहता है। और ये दर्द-औ-ग़म उसे कहीं और से नहीं मिलते,बल्कि ये सारे के सारे इसी जहां के जहांपनाहों के पनाह से हीं उसकी झोली में आते हैं। सच हीं है कि: राह-ए-मोहब्बत के अगर मंजिल नहीं ग़म-औ-अज़ल, जान लो हाजी की किस्मत में नहीं ज़मज़म का जल। अपने जमाने के मशहूर शायर "

रात के हमसफ़र थक के घर को चले....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 45 श क्ति सामंता एक ऐसे फिल्मकार थे जिन्हे हमेशा यह मालूम होता था कि लोग किस तरह की फिल्म देखना पसंद करते हैं. और यही वजह थी कि उनकी ज़्यादातर फिल्में सफल रहीं. 1964 में शम्मी कपूर और शर्मिला टैगोर को लेकर "कश्मीर की कली" बनाने के बाद वो इन दोनो को लेकर एक ऐसी फिल्म का निर्माण करना चाहते थे जो किसी विदेशी शहर की पृष्ठभूमि पर आधारित हो. शक्ति बाबू ने पैरिस को चुना और अपने फिल्म का शीर्षक "अन इवनिंग इन पैरिस" रखने का निश्चय किया. एक मुलाक़ात में उन्होने कहा था कि इस फिल्म की कहानी में कोई ख़ास बात नहीं थी. लेकिन दोस्तों, किसी साधारण कहानी को लेकर ऐसी सफल फिल्म बनाना भी तो एक ख़ास बात ही है. फिल्म की कहानी के अनुसार इस फिल्म का संगीत भी पाश्चात्य रंग में रंगा हुआ होना था. और उस ज़माने में पाश्चात्य 'ऑर्केस्ट्रेशन' के लिए शंकर जयकिशन का नाम सबसे उपर आता था. बस, फिर क्या था! शक्ति सामंता ने इस फिल्म के संगीत के लिए शंकर जयकिशन को नियुक्त किया, और इस जोडी के साथ साथ गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी भी शामिल हो गये. यूँ तो इस फिल्म के ज़्याद

निगाहें मिलाने को जी चाहता है...एक श्रेष्ठ फ़िल्मी कव्वाली

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 43 ज हाँ तक फिल्मी क़व्वालियों का सवाल है, तो फिल्म संगीत में क़व्वाली को लोकप्रिय बनाने में संगीतकार रोशन का महत्वपूर्ण और सराहनीय योगदान रहा है. यूँ तो उनसे पहले भी फिल्मों में कई क़व्वालियाँ आईं, लेकिन उनमें फिल्मी रंग की ज़रा कमी सी थी जिसकी वजह से वो आम जनता में लोकप्रिय तो हुए लेकिन वो मुकाम हासिल ना कर सके जो दूसरे साधारण गीतों ने किये. रोशन ने क़व्वालियों में वो फिल्मी अंदाज़, वो फिल्मी रंग भरा जो सुननेवालों के दिलों पर ऐसा चढा कि आज तक उतरने का नाम नहीं लेता. हुआ यूँ कि एक बार रोशन ने पाकिस्तान में एक क़व्वाली सुन ली "यह इश्क़ इश्क़ है". यह उन्हे इतनी पसंद आई कि अनुमति लेकर उन्होने इस क़व्वाली को अपनी अगली फिल्म "बरसात की रात" में शामिल कर लिया. यह क़व्वाली इतना लोकप्रिय हुई कि अगली फिल्म "दिल ही तो है" में निर्माता ने उनसे एक और ऐसी ही क़व्वाली की माँग कर बैठे. और एक बार फिर से रोशन ने अपने इस हुनर का जलवा बिखेरा "निगाहें मिलाने को जी चाहता है" जैसी क़व्वाली बनाकर. जी हाँ, आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में सुनिए यह

कर ले प्यार कर ले के दिन हैं यही...आशा का जबरदस्त वोईस कंट्रोल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 42 हे लेन का अंदाज़ और आशा भोंसले की आवाज़. ऐसा लगता है जैसे आशाजी की आवाज़ हेलेन के अंदाज़ों की ही ज़ुबान है. इसमें कोई शक़ नहीं कि अपनी आवाज़ से अभिनय करनेवाली आशा भोंसले ने हेलेन के जलवों को पर्दे पर और भी ज़्यादा प्रभावशाली बनाया है. चाहे ओ पी नय्यर हो या एस डी बर्मन, या फिर कल्याणजी आनांदजी, हर संगीतकार ने समय समय पर इस आशा और हेलेन की जोडी को अपने दिलकश धुनों से बार बार सजीव किया है हमारे सामने. आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में आशा भोंसले, हेलेन और एस डी बर्मन मचा रहे हैं धूम फिल्म "तलाश" के एक 'क्लब सॉंग' के ज़रिए. ऐसे गीतों के लिए उस ज़माने में आशा भोंसले के अलावा किसी और गायिका की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. लेकिन आशाजी के लिए बर्मन दादा का यह गीत इस अंदाज़ का पहला गीत नहीं है. क्या आप को पता है कि आशाजी ने बर्मन दादा के लिए ही पहली बार एक 'कैबरे सॉंग' गाया था फिल्म टॅक्सी ड्राइवर (1953) में? इतना ही नहीं, आशाजी का गाया हुआ बर्मन दादा के लिए यह पहला गाना भी था. याद है ना आपको वो गीत? चलिए हम याद दिला देते हैं, वो गीत था टॅक्सी

भीगी भीगी फज़ा, छन छन छनके जिया...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 36 ल ता मंगेशकर और आशा भोंसले, फिल्म संगीत के आकाश में चमकते सूरज और चाँद. यूँ तो यह दोनो बहनें अपने अपने तरीके से नंबर-1 हैं, लेकिन गुलज़ार साहब के शब्दों में, आर्मस्ट्रॉंग और एडविन, दोनो ने ही चाँद पर कदम रखा था लेकिन क्योंकि आर्मस्ट्रॉंग ने पहले कदम रखा, उन्ही का नाम पहले लिया जाता है. ठीक इसी तरह से लताजी को पहला और आशाजी को दूसरा स्थान दिया जाता है पार्श्वगायिकाओं में. सुनहरे दौर में एक प्रथा जैसी बन गयी थी कि जिस फिल्म में लताजी और आशाजी दोनो के गाए गीत होते थे, उसमें लताजी 'नायिका' का पार्श्वगायन करती थी और आशाजी दूसरी नायिका, या नायिका की सहेली, या फिर खलनायिका के लिए गाती थी. ऐसी ही फिल्म थी "अनुपमा" जो आज अमर हो गयी है अपने गीत संगीत की वजह से. हेमंत कुमार के संगीत से संवारे हुए जितनी भी फिल्में हैं, उनमें अनुपमा का एक ख़ास मुकाम है. आज 'ओल्ड इस 'गोल्ड' में फिल्म अनुपमा से एक गीत पेश है. 1966 में बनी थी अनुपमा जिसके मुख्य कलाकार थे शर्मिला टैगोर और धर्मेन्द्र. और शर्मिला की सहेली और धर्मेन्द्र की बहन बनी शशिकला. लता मंगेश

पिया पिया न लागे मोरा जिया...आजा चोरी चोरी....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 30 दो स्तों, कुछ गीत ऐसे होते हैं जो केवल एक मुख्य साज़ पर आधारित होते हैं. उदाहरण के तौर पर कश्मीर की कली का गाना "है दुनिया उसी की ज़माना उसी का" केवल 'सेक्साफोन' पर आधारित है. इस गीत के संगीतकार थे ओपी नय्यर. नय्यर साहब ने ऐसे ही कुछ और गीतों में भी सिर्फ़ एक मुख्य साज़ का इस्तेमाल किया है. उनके संगीत की खासियत भी यही थी की वो '7-पीस ऑर्केस्ट्रा' से उपर नहीं जाते थे. इसी तरह का एक गीत था फिल्म "फागुन" में जिसमें केवल बाँसुरी का मुख्य रूप से इस्तेमाल हुआ. फिल्म फागुन के सभी गीतों में बाँसुरी सुनाई पड्ती है जिन्हे बजाया था उस ज़माने के मशहूर बाँसुरी वादक सुमंत राज ने. तो आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में आप सुनने जा रहे हैं फिल्म फागुन का वही गीत जिसमें है सुमंत राज की मधुर बाँसुरी की तानें, ओपी नय्यर का दिलकश संगीत, और आशा भोंसले की मनमोहक आवाज़. और अब इस फिल्म के गीत संगीत से जुडी कुछ बातें हो जाए? यह फिल्म बनी थी सन 1958 में. बिभूति मित्रा द्वारा निर्मित एवं निर्देशित इस फिल्म में भारत भूषण और मधुबाला ने मुख्य किरदार निभाए.

खुद ढूंढ रही है शम्मा जिसे क्या बात है उस परवाने की...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 11 'ओ ल्ड इस गोल्ड' की एक और सुरीली शाम ख़ास आपके नाम! हमें यकीन है आज का गीत आपके कानो में से होकर सीधे दिल में उतर जायेगा. आशा भोसले और ओ पी नय्यर के सुरीले संगम से निकला एक और अनमोल मोती है यह गीत. यह गीत है 1963 की फिल्म "फिर वोही दिल लाया हूँ" का. जॉय मुखेर्जी और आशा पारेख अभिनीत नसीर हुसैन की इस फिल्म ने 'बॉक्स ऑफिस' पर कामयाबी के झन्डे गाडे. और इस फिल्म के संगीत के तो क्या कहने! 50 के दशक के बाद 60 के दशक में भी ओ पी नय्यर के संगीत का जादू वैसे ही बरकरार रहा. नय्यर साहब ने इससे पहले नसीर हुसैन के लिए "तुमसा नहीं देखा" फिल्म में संगीत निर्देशन किया था सन 1957 में. मजरूह सुल्तानपुरी ने बडे ही शायराना अंदाज़ में "फिर वोही दिल लाया हूँ" फिल्म के इस गाने को लिखा है. हर किसी के ज़िंदगी में ऐसा एक पल आता है जब दिल को लगता है कि जिसका बरसों से दिल को इंतज़ार था उसकी झलक शायद दिल को अब मिल गयी है. और दिल उसी की तरफ मानो खींचता चला जाता है, दुनिया जैसे एकदम से बदल जाती है. "खुद ढूँढ रही है शम्मा जिसे क्या बात है उ

यार बादशाह...यार दिलरुबा...कातिल आँखों वाले....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 10 ओ पी नय्यर. एक अनोखे संगीतकार. आशा भोसले को आशा भोंसले बनाने में ओ पी नय्यर के संगीत का एक बडा हाथ रहा है, इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता, और यह बात तो आशाजी भी खुद मानती हैं. आशा और नय्यर की जोडी ने फिल्म संगीत को एक से एक नायाब नग्में दिए हैं जो आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं जितने कि उस समय थे. यहाँ तक कि नय्यर साहब के अनुसार वो ऐसे संगीतकार रहे जिन्हे ता-उम्र सबसे ज़्यादा 'रायल्टी' के पैसे मिले. आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में आशा भोंसले और ओ पी नय्यर के सुरीले संगम से उत्पन्न एक दिलकश नग्मा आपके लिए लेकर आए हैं. सन 1967 में बनी फिल्म सी आइ डी 909 का यह गीत हेलेन पर फिल्माया गया था. जब जोडी का ज़िक्र हमने किया तो एक और जोडी हमें याद आ रही है, हेलेन और आशा भोसले की. जी हाँ दोस्तों, हेलेन पर फिल्माए गये आशाजी के कई गाने हैं जो मुख्य रूप से 'क्लब सॉंग्स', 'कैबरे सॉंग्स', 'डिस्को', या फिर मुज़रे हैं. फिल्म सी आइ डी 909 का यह गीत भी एक 'क्लब सॉंग' है. सी आइ डी 909 में कई गीतकारों ने गीत लिखे, जैसे कि अज़ीज़ कश्मीरी, एस एच बि

अरे दिल है तेरे पंजे में तो क्या हुआ....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 02 ओल्ड इस गोल्ड आवाज़ का एक ऐसा स्तम्भ है जिसमें हम आपको फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर से चुनकर एक लोकप्रिय गीत सुनवाते हैं और साथ ही साथ उस गीत की चर्चा भी करते हैं उपलब्ध तथ्यों के आधार पर. आज हमने इस स्तम्भ के लिए जिस गीत को चुना है उस गीत को सुनकर न केवल आप मुस्कुरायेंगें बल्कि आपके कदम थिरकने भी लगेंगे. १९५८ में एक फ़िल्म आई थी-"दिल्ली का ठग" और इस फ़िल्म में मुख्य भूमिकाओं में थे किशोर कुमार और नूतन. इस फ़िल्म में किशोर कुमार और आशा भोंसले का गाया एक ऐसा गीत है जो अपने आप में एक ही है, और ऐसा गीत फ़िर उसके बाद कभी नही बन पाया. जब किशोर दा के सामने हास्य गीत गाने की बारी आती है, तो जैसे उनका अंदाज़ ही बदल जाता है. संगीतकार चाहे जैसी भी धुन बनाये, किशोर दा उस पर अपने अंदाज़ की ऐसी छाप छोड़ देते हैं की वो गीत सिर्फ़ और सिर्फ़ उन्ही का बन कर रह जाता है. ऐसा ही है ये गीत भी जिसे आज हम आपको सुनवाने जा रहे हैं. फ़िल्म की सिचुअशन ये है कि नूतन, किशोर कुमार को अंग्रेजी की "वोक्युबलरी" सिखा रही हैं. इस सिचुअशन पर जब गीत बनाने का सोचा गया तब तब गीत

आपको प्यार छुपाने की बुरी आदत है...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला (०१) आवाज़ की दुनिया के मेरे दोस्तों, आज से आवाज़ पर हम शुरू कर रहे हैं एक नया स्तंभ -"ओल्ड इस गोल्ड".यह एक ऐसा स्तंभ है जो सलाम करती है फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के उन बेशकीमती गीतों को जिनसे फ़िल्म संगीत संसार आज तक महका हुआ है. इस स्तंभ के अंतर्गत हम न केवल आपको उस गुज़रे दौर के लोकप्रिय गाने सुनवायेंगे, बल्कि उन गीतों की थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे. आज इस नए स्तंभ की पहली कड़ी में हमने जिस गीत को चुना है आपले साथ बाँटने के लिए, वो फ़िल्म "नीला आकाश" का है. ये फ़िल्म बनी थी १९६५ में. राजेंदर भाटिया द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्या कलाकार थे धर्मेन्द्र और माला सिन्हा.जहाँ तक इसके गीत संगीत का सवाल है, इस फ़िल्म के गाने लिखे रजा मेहंदी अली खान ने, और संगीतकार थे मदन मोहन. दोस्तों, आपको शायद ये बताने की जरुरत नही कि राजा मेहंदी अली खान और मदन मोहन की जोड़ी ने बहुत सारे खूबसूरत गीत हमें दिए हैं. बल्कि यूँ कहें कि राजेंदर कृष्ण के बाद मदन मोहन जिस गीतकार के सबसे ज्यादा गीत संगीतबद्ध किए, वो थे राजा मेहंदी अली खान. नीला आकाश के ज्यादातर गाने आश

मेरी आवाज ही पहचान है : पंचम दा पर विशेष, (दूसरा भाग)

सत्तर के दशक के बारे में कहते हैं, लोग चार लोगों के दीवाने थे : सुनील गावस्कर,अमिताभ बच्चन, किशोर कुमार और आर डी बर्मन | गावस्कर का खेल के मैदान में जाना, अमिताभ का परदे पर आना और किशोर कुमार का गाना सबके लिए उतना ही मायने रखता था जितना आर डी का संगीत | भारत में लोग संगीत के साथ जीते हैं,आखिरी दम तक संगीत किसी न किसी तरह से हमसे जुड़ा होता है और इस लिहाज से आर डी बर्मन ने हमारे जीवन को कभी न कभी, किसी न किसी तरह छुआ जरुर है | यह अपने आप में आर डी के संगीत की सादगी और श्रेष्ठता दोनों का परिचायक है | किशोर, आर डी और अमिताभ ने क्या खूब रंग जमाया था फ़िल्म "सत्ते पे सत्ता" के सदाबहार गाने में, सुनिए और याद कीजिये - उनके गाने अब तक कितनी बार रिमिक्स,'इंस्पिरेशन' आदि आदि के नाम पर बने हैं, इसके आंकड़े भी मिलना मुश्किल है |आख़िर उनका संगीत पुराना होकर भी उतना ही नया कैसे लगता है, इस बात पर भी गौर करना जरुरी है |आर डी ने कभी भी प्रयोग करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई |वह हमेशा नौजवानों को दिमाग में रख कर धुनें तैयार करते थे, और एक एक धुन पर काफ़ी कड़ी मेहनत करते थे| जब भी उचित लग

इस मोड़ से जाते हैं, कुछ सुस्त कदम रस्ते,: पंचम दा पर विशेष

हिन्दी फ़िल्म संगीत के इतिहास में अगर किसी संगीत निर्देशक को सबसे ज्यादा प्यार मिला, तो वह निस्संदेह आर डी वर्मन,या पंचम दा हैं |सचिन देव वर्मन जैसे बड़े और महान निर्देशक के पुत्र होने के बावजूद पंचम दा ने अपनी अलग और अमिट पहचान बनाई |कहते हैं न,पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं,जब इनका जन्म हुआ था,तब अभिनेता स्व अशोक कुमार ने देखा कि नवजात आर डी बार बार पाँचवा स्वर "पा" दुहरा रहे हैं,तभी उन्होने इनका नाम रख दिया "पंचम "|आज भी वे बहुत सारे लोगों के लिये सिर्फ़ पंचम दा हैं| सिर्फ़ नौ बरस की उम्र में उन्होंने अपना पहला गीत "ऐ मेरी टोपी पलट के" बना लिया था,जिसे उनके पिता ने "फ़ंटूश" मे लिया भी था| काफ़ी कम उम्र में पंचम दा ने "सर जो तेरा चकराये …" की धुन तैयार कर ली जिसे गुरुदत्त की फ़िल्म "प्यासा" मे लिया गया | आगे जाकर जब आर डी संगीत बनाने लगे,तो उनकी शैली अपने पिता से काफ़ी अलग थी, और इस बात को लेकर दोनों का नजरिया अलग था । आर डी हिन्दुस्तानी के साथ पाश्चात्य संगीत का भी मिश्रण करते थे,जो सचिन देव वर्मन साहब को रास नहीं आत