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वर्षा ऋतु के रंग : मल्हार अंग के रागों के संग – समापन कड़ी

             स्वरगोष्ठी – ८४ में आज ‘चतुर्भुज झूलत श्याम हिंडोला...’ : मल्हार अंग के कुछ अप्रचलित राग व र्षा ऋतु के संगीत पर केन्द्रित ‘स्वरगोष्ठी’ की यह श्रृंखला विगत सात सप्ताह से जारी है। परन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अब इस ऋतु ने भी विराम लेने का मन बना लिया है। अतः हम भी इस श्रृंखला को आज के अंक से विराम देने जा रहे हैं। पिछले अंकों में आपने मल्हार अंग के विविध रागों और वर्षा ऋतु की मनभावन कजरी गीतों का रसास्वादन किया था। आज इस श्रृंखला के समापन अंक में मल्हार अंग के कुछ अप्रचलित रागों पर चर्चा करेंगे और संगीत-जगत के कुछ शीर्षस्थ कलासाधकों से इन रागों में निबद्ध रचनाओं का रसास्वादन भी करेंगे। पण्डित सवाई गन्धर्व  मल्हार अंग का एक मधुर राग है- नट मल्हार। आजकल यह राग बहुत कम सुनाई देता है। यह राग नट और मल्हार अंग के मेल से बना है। इसे विलावल थाट का राग माना जाता है। इस राग में दोनों निषाद का प्रयोग होता है, शेष सभी स्वर शुद्ध प्रयुक्त होते हैं। इसका वादी मध्यम और संवादी षडज होता है। इसराज और मयूर वीणा-वादक पं. श्रीकुमार मिश्र के अनुसार इस राग के गायन-वादन में नट अ

जुड़िये 'सिने पहेली' से, और जीतिये 5000 रुपये का नकद इनाम...

सिने-पहेली # 33 (18 अगस्त, 2012)  'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी पाठकों और श्रोताओं को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का 'सिने पहेली' स्तंभ में। दोस्तों, एक और सप्ताह का समापन हुआ चाहता है। आजकल अधिकतर दफ़्तरों में शनिवार को छुट्टी होती है, पिछले पाँच दिनों की भागादौड़ी के बाद दो दिन मिलता है अपने लिए, अपने शौक पूरे करने के लिए, मनोरंजन के लिए। और तभी तो हम शनिवार की सुबह आपके लिए लेकर आते हैं 'सिने पहेली' का यह मज़ेदार खेल। हाँ, यह सच है कि इसमें ज़रा दिमाग़ पे ज़ोर डालना पड़ता है, पर इसमें भी एक मज़ा है और यकीनन इन पहेलियों को सुलझाते हुए आप रोज़-मर्रा के तनाव को थोड़ा कम कर पाते होंगे, ऐसा मेरा अनुमान है। 'सिने पहेली' का चौथा सेगमेण्ट जारी है, और इस सेगमेण्ट की तीसरी कड़ी है, अर्थात् 'सिने पहेली' की 33-वीं कड़ी। आज की पहेलियों को फेंकने से पहले हम दोहरा देते हैं कि किस तरह से आप बन सकते हैं 'सिने पहेली' के महाविजेता। कैसे बना जाए 'सिने पहेली महाविजेता? 1. सिने पहेली प्रतियोगिता में होंगे कुल 100

कहानी पॉडकास्ट - बचपन - उषा महाजन - शेफाली गुप्ता

'बोलती कहानियाँ' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछली बार आपने शेफाली गुप्ता की आवाज़ में उषा प्रियंवदा की कथा " वापसी " का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार उषा महाजन की कहानी " बचपन ", जिसको स्वर दिया है शेफाली गुप्ता ने। बिखरते रिश्ते का पाठ्य अभिव्यक्ति पर उपलब्ध है। इस कहानी का कुल प्रसारण समय 17 मिनट 41 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं तो अधिक जानकारी के लिए कृपया admin@radioplaybackindia.com पर सम्पर्क करें। उषा महाजन एक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। ~ जन्म : 30 सितम्बर, 1948, देवरिया (उ.प्र.). इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक (1968 में). हिन्दी अकादमी का ‘साहित्यिक कृति सम्मान, के. के. बिड़ला फाउण्डेशन फेलोशिप (1993-1994) हर शुक्रवार को "बोलती कहानियाँ" पर सुनें एक नयी कहानी "बहुत म

स्वाधीनता दिवस विशेषांक : भारतीय सिनेमा के सौ साल – 10

फ़िल्मों में प्रारम्भिक दौर के देशभक्ति गीत  'रुकना तेरा काम नहीं चलना तेरी शान, चल चल रे नौजवान... ' हिन्दी फ़िल्मों में देशभक्ति गीतों का होना कोई नई बात नहीं है। 50 और 60 के दशकों में मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे और महेन्द्र कपूर के गाये देशभक्तिपूर्ण फ़िल्मी गीतों ने अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की थी। परन्तु देशभक्ति के गीतों का यह सिलसिला शुरू हो चुका था, बोलती फ़िल्मों के पहले दौर से ही। ब्रिटिश शासन की लाख पाबन्दियों के बावजूद देशभक्त फ़िल्मकारों ने समय-समय पर देशभक्तिपूर्ण गीतों के माध्यम से जनजागरण उत्पन्न करने के प्रयास किये और हमारे स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आज 66वें स्वाधीनता दिवस पर आइए 30 के दशक में बनने वाले फिल्मों के देशभक्तिपूर्ण गीतों पर एक दृष्टिपात करते हें, जिन्हें आज हम पूरी तरह से भूल चुके हैं।आज का यह अंक स्वतन्त्रता दिवस विशेषांक है, इसीलिए आज के अंक में हम मूक फिल्मों की चर्चा नहीं कर रहे हैं। आगामी अंक से यह चर्चा पूर्ववत की जाएगी। 1930 के दशक के आते-आते पराधीनता की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ, देश आज़ादी के लिए ज़ोर

हमारे बुजुर्ग और हम, समाज को आईना दिखाते शब्द

शब्दों की चाक पर - एपिसोड 11 शब्दों की चाक पर हमारे कवि मित्रों के लिए हर हफ्ते होती है एक नयी चुनौती, रचनात्मकता को संवारने  के लिए मौजूद होती है नयी संभावनाएँ और खुद को परखने और साबित करने के लिए तैयार मिलता है एक और रण का मैदान. यहाँ श्रोताओं के लिए भी हैं कवि मन की कोमल भावनाओं उमड़ता घुमड़ता मेघ समूह जो जब आवाज़ में ढलकर बरसता है तो ह्रदय की सूक्ष्म इन्द्रियों को ठडक से भर जाता है. तो दोस्तों, इससे पहले कि  हम पिछले हफ्ते की कविताओं को आत्मसात करें, आईये जान लें इस दिलचस्प खेल के नियम -  1. कार्यक्रम की क्रिएटिव हेड रश्मि प्रभा के संचालन में शब्दों का एक दिलचस्प खेल खेला जायेगा. इसमें कवियों को कोई एक थीम शब्द या चित्र दिया जायेगा जिस पर उन्हें कविता रचनी होगी...ये सिलसिला सोमवार सुबह से शुरू होगा और गुरूवार शाम तक चलेगा, जो भी कवि इसमें हिस्सा लेना चाहें वो रश्मि जी से संपर्क कर उनके फेसबुक ग्रुप में जुड सकते हैं, रश्मि जी का प्रोफाईल  यहाँ  है. 2. सोमवार से गुरूवार तक आई कविताओं को संकलित कर हमारे पोडकास्ट टीम के हेड पिट्सबर्ग से  अनुराग शर्मा  जी अपन

प्लेबैक इंडिया वाणी (११) गैंग्स ऑफ वासेपुर-२, डार्क रूम और आपकी बात

संगीत समीक्षा - गेंगस ऑफ़ वासेपुर - २ दोस्तों जब हमने गैंग्स ऑफ वासेपुर के पहले भाग के संगीत की समीक्षा की थी और उसे ४.३ की रेटिंग दी थी, तो कुछ श्रोताओं ने पूछा था कि क्या वाकई ये अल्बम इस बड़ी रेटिंग की हकदार है? तो दोस्तों हम आपको बता दें कि हमारा मापदंड मुख्य रूप से इस तथ्य में रहता है कि संगीत में कितनी रचनात्मकता है और कितना नयापन है. क्योंकि इस कड़ी प्रतियोगिता के समय में अगर कोई कुछ नया करने की हिम्मत करता है तो उसे सराहना मिलनी चाहिए. तो इसी बात पर जिक्र करें गैंग्स ऑफ वासेपुर के द्रितीय भाग के संगीत की. संगीत यहाँ भी स्नेहा कंवलकर का है और गीत लिखे हैं वरुण ग्रोवर ने. एक बार फिर इस टीम ने कुछ ऐसा रचा है जो बेहद नया और ओरिजिनल है, लेकिन याद रखें अगर आप भी हमारी तरह नयेपन की तलाश में हैं तभी आपको ये अल्बम रास आ सकती है. १२ साल की दुर्गा, चलती रेल में गाकर अपनी रोज़ी कमाती थी, मगर स्नेहा ने उसकी कला को समझा और इस अल्बम के लिए उसे मायिक के पीछे ले आई. दुर्गा का गाया ‘छी छी लेदर” सुनने लायक है, दुर्गा की ठेठ और बिना तराशी आवाज़ का खिलंदड़पन गीत का सबसे बड़ा आकर्

वर्षा ऋतु के रंग : लोक-रस-रंग में भीगी कजरी के संग

स्वरगोष्ठी – ८३ में आज कजरी का लोक-रंग : ‘कैसे खेले जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घेरि आइल ननदी...’ भा रतीय लोक-संगीत के समृद्ध भण्डार में कुछ ऐसी संगीत शैलियाँ हैं, जिनका विस्तार क्षेत्रीयता की सीमा से बाहर निकल कर, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हुआ है। उत्तर प्रदेश के वाराणसी और मीरजापुर जनपद तथा उसके आसपास के पूरे पूर्वाञ्चल क्षेत्र में कजरी गीतों की बहुलता है। वर्षा ऋतु के परिवेश और इस मौसम में उपजने वाली मानवीय संवेदनाओं की अभियक्ति में कजरी गीत पूर्ण समर्थ लोक-शैली है। शास्त्रीय और उपशास्त्रीय संगीत के कलासाधकों द्वारा इस लोक-शैली को अपना लिये जाने से कजरी गीत आज राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर सुशोभित है। ‘स्वरगोष्ठी’ के आज के एक नए अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का स्वागत करता हूँ और प्रस्तुत करता हूँ कजरी गीतों का लोक-स्वरूप। पिछले अंक में आपने कजरी के आभिजात्य स्वरूप का रस-पान किया था। आज के अंक में हम कजरी के लोक-स्वरूप पर चर्चा करेंगे। कजरी की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, यह कहना कठिन है, परन्तु यह तो निश्चित है कि मानव को जब स्वर और शब्