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पुस्तक प्रिव्यू - उपन्यास “आमचो बस्तर” पर एक दृष्टि तथा कुछ उपन्यास अंश

उपन्यास –आमचो बस्तर लेखक- राजीव रंजन प्रसाद प्रकाशक – यश प्रकाशन, नवीन शहादरा, नई दिल्ली अभी बहुत समय नहीं गुजरा जब बस्तर का नाम अपरिचित सा था। आज माओवादी अतिवाद के कारण दिल्ली के हर बड़े अखबार का सम्पादकीय बस्तर हो गया है। वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैय्यर के शब्द हैं – ‘बस्तर अनेक सूरदास विशेषज्ञों का हाथी है, सब अपने अपने ढंग से उसका बखान कर रहे हैं। बस्तर को वे कौतुक से बाहर बाहर को देखते हैं और वैसा ही दिखाते हैं।‘ माओवाद पर चिंता जताते हुए इस अंचल के वयोवृद्ध साहित्यकार लाला जगदलपुरी कहते हैं कि ‘नक्सली भी यदि मनुष्य हैं तो उन्हें मनुष्यता का मार्ग अपनाना चाहिये।‘ अब प्रश्न उठता है कि इस अंचल की वास्तविकता क्या है? क्या वे कुछ अंग्रेजी किताबें ही सही कह रहे हैं जिनमें गुण्डाधुर और गणपति को एक ही तराजू में तौला गया है, भूमकाल और माओवाद पर्यायवाची करार दिये गये हैं। बस्तर में माओवाद के वर्तमान स्वरूप में एसे कौन से तत्व हैं जो उन्हें ‘भूमकाल’ शब्द से जोडे जाने की स्वतंत्रता देते हैं? क्या इसी जोडने मिलाने के खेल में बस्तर के दो चेहरे नहीं हो गये? एक चेहरा जो अनकहा है और दूसरा जिसपर क

११ फरवरी - आज का गाना

गाना:  चाँद जाने कहाँ खो गया चित्रपट: मैं चुप रहूँगी संगीतकार: चित्रगुप्त गीतकार: राजिंदर कृष्ण स्वर: रफ़ी , लता चाँद जाने कहाँ खो गया चाँद जाने कहाँ खो गया तुम को चेहरे से पर्दा हटाना ना था चांदनी को ये क्या हो गया चांदनी को ये क्या हो गया तुम को भी इस तरह मुस्कुराना ना था चाँद जाने कहाँ खो गया प्यार कितना जवान, रात कितनी हसीं आज चलते हुए थम गई है ज़मीन प्यार कितना जवान, रात कितनी हसीं आज चलते हुए थम गई है ज़मीन थम गई है ज़मीन आंख तारे झपकने लगे आंख तारे झपकने लगे ऐसी उलफ़त का जादू जगाना ना था चाँद जाने कहाँ खो गया चाँद जाने कहाँ खो गया तुम को चेहरे से पर्दा हटाना ना था चाँद जाने कहाँ खो गया प्यार में बेखबर, हम कहाँ आ गए मेरी आँखों में सपने से क्यों छा गए प्यार में बेखबर, हम कहाँ आ गए मेरी आँखों में सपने से क्यों छा गए क्यों छा गए दो दिलों की है मंजिल यहाँ दो दिलों की है मंजिल यहाँ तुम ना आते तो हम को भी आना ना था चांदनी को ये क्या हो गया चांदनी को ये क्या हो गया तुम को भी इस तरह मुस्कुराना ना था चाँद जाने कहाँ खो गया चाँद जाने कह

बोलती कहानियाँ - शत्रु - सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' - अनुभव प्रिय

'बोलती कहानियाँ' स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में दीपक बाबा की कहानी " ईमानदार प्रधान " का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार ' अज्ञेय ' द्वारा लिखित लघु कथा " शत्रु ", जिसको स्वर दिया है, दिल्ली पब्लिक स्कूल, पटना में नवीं कक्षा के छात्र अनुभव प्रिय ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 8 मिनट 16 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं तो अधिक जानकारी के लिए कृपया admin@radioplaybackindia.com पर सम्पर्क करें। "अज्ञेय" को मरणोपरांत भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'(1911-1987) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी "उसने देखा, एक स्त्री भूमि पर लेटी हुई थी।” ( 'अज्ञेय' की "शत्रु" स

१० फरवरी - आज का गाना

गाना:  इतनी शक्ति हमें दे न दाता चित्रपट: अंकुश संगीतकार: कुलदीप सिंह गीतकार: अभिलाष गायिका: आशा भोंसले इतनी शक्ति हमें दे न दाता मनका विश्वास कमज़ोर हो ना हम चलें नेक रास्ते पे हमसे भूलकर भी कोई भूल हो ना... हर तरफ़ ज़ुल्म है बेबसी है सहमा-सहमा-सा हर आदमी है पाप का बोझ बढ़ता ही जाये जाने कैसे ये धरती थमी है बोझ ममता का तू ये उठा ले तेरी रचना का ये अन्त हो ना... हम चले... दूर अज्ञान के हो अन्धेरे तू हमें ज्ञान की रौशनी दे हर बुराई से बचके रहें हम जितनी भी दे, भली ज़िन्दगी दे बैर हो ना किसीका किसीसे भावना मन में बदले की हो ना... हम चले... हम न सोचें हमें क्या मिला है हम ये सोचें किया क्या है अर्पण फूल खुशियों के बाटें सभी को सबका जीवन ही बन जाये मधुबन अपनी करुणा को जब तू बहा दे करदे पावन हर इक मन का कोना... हम चले... हम अन्धेरे में हैं रौशनी दे, खो ना दे खुद को ही दुश्मनी से, हम सज़ा पाये अपने किये की, मौत भी हो तो सह ले खुशी से, कल जो गुज़रा है फिरसे ना गुज़रे, आनेवाला वो कल ऐसा हो ना... हम चले नेक रास्ते पे हमसे, भुलकर भी कोई भूल

विशेषांक : भोजपुरी सिनेमा की स्वर्ण जयन्ती

क्षेत्रीय सिनेमा : एक सुनहरा पृष्ठ पचास वर्ष का हुआ भोजपुरी सिनेमा किशोरावस्था में किसी घटना या अवसर विशेष की स्मृतियाँ कई दशकों बाद जब इतिहास के सुनहरे पृष्ठ का रूप ले लेतीं हैं तो स्मृतियाँ सार्थक हो जाती हैं। आज ऐसा ही कुछ अनुभव मुझे भी हो रहा है। १२-१३ वर्ष की आयु में अपने दो और मित्रों के साथ पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ की वाराणसी के कई स्थलों पर हुई शूटिंग का चश्मदीद रहा हूँ। राजघाट स्थित गंगा नदी पर बने मालवीय पुल से अभिनेत्री कुमकुम (या उनके पुतले) का आत्महत्या के इरादे से नदी में छलांग लगाने का दृश्य हो या दशाश्वमेघ घाट के सामने बुढ़वा मंगल उत्सव के फिल्मांकन का दृश्य हो, आधी शताब्दी के बाद इन सभी स्मृतियों ने इस आलेख के लिए मुझे विवश किया। भा रतीय सिनेमा के सवाक युग से ही हिन्दी का वर्चस्व कायम रहा है। क्षेत्रीय और प्रादेशिक भाषाओं के सिनेमा का विकास भी हिन्दी सिनेमा के पगचिह्न पर चल कर हुआ है। हिन्दी भाषा की ही एक बोली या उपभाषा है- भोजपुरी, जो उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल और लगभग दो-तिहाई बिहार की अत्यन्त समृद्ध और प्रचलित बोली है। इसके अलावा देश क

९ फरवरी - आज का गाना

गाना:  धीरे धीरे मचल ऐ दिल-ए-बेक़रार चित्रपट: अनुपमा संगीतकार: हेमंत कुमार गीतकार: कैफी आज़मी गायिका: लता मंगेशकर धीरे धीरे मचल ऐ दिल-ए-बेक़रार कोई आता है यूँ तड़पके न तड़पा मुझे बालमा कोई आता है धीरे धीरे ... उसके दामन की ख़ुशबू हवाओं में है उसके कदमों की आहट फ़ज़ाओं में है मुझको करने दे, करने दे सोलह श्रिंगार कोई आता है धीरे धीरे मचल... रूठकर पहले जी भर सताऊँगी मैं जब मनाएंगे वो, मान जाऊँगी हैं मुझको करने दे, करने दे सोलह श्रिन्गार कोई आता है धीरे धीरे मचल... मुझको छुने लगिं उसकी पर्छाइयाँ दिलके नज़्दीक बजती हैं शहनाइयाँ मेरे सपनों के आँगन में गाता है प्यार कोई आता है धीरे धीरे मचल...

"वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी" - हर कोई अपना बचपन देखता है इस नज़्म में

कुछ गीत, कुछ ग़ज़लें, कुछ नज़्में ऐसी होती हैं जो हमारी ज़िन्दगियों से, हमारी बचपन की यादों से इस तरह से जुड़ी होती हैं कि उन्हें सुनते ही वह गुज़रा ज़माना आँखों के सामने आ जाता है। जगजीत सिंह के जन्मदिवस पर उनकी गाई सुदर्शन फ़ाकिर की इस नज़्म की चर्चा आज 'एक गीत सौ कहानियाँ' में सुजॉय चटर्जी के साथ... एक गीत सौ कहानियाँ # 6 बचपन एक ऐसा समय है जिसकी अहमियत उसके गुज़र जाने के बाद ही समझ आती है। बचपन में ऐसा लगता है कि न जाने कब बड़े होंगे, कब इस पढ़ाई-लिखाई से छुटकारा मिलेगा? पर बड़े होने पर यह अहसास होता है कि टूटे दिल से कहीं बेहतर हुआ करते थे टूटे घुटने, इस तनाव भरी ज़िन्दगी से कई गुणा अच्छा था वह बेफ़िक्री का ज़माना। पर अब पछताने से क्या फ़ायदा, गुज़रा वक़्त तो वापस नहीं आ सकता, बस यादें शेष हैं उस हसीन ज़िन्दगी की, उन बेहतरीन लम्हों की। बस एक फ़रियाद ही कर सकते हैं उपरवाले से कि ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी। और यही इल्तिजा शायर सुदर्शन फ़ाकिर नें भी की थी अपने इ