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‘ए हो जन्मी है बिटिया हमार...’ कन्या-जन्म पर पारम्परिक सोहर का अभाव है

सुर संगम- 46 – संस्कार गीतों में अन्तरंग पारिवारिक सम्बन्धों की सोंधी सुगन्ध संस्कार गीतों की नयी श्रृंखला - दूसरा भाग ‘सुर संगम’ के एक नये अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब लोक-संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। पिछले अंक से हमने संस्कार गीतों की श्रृंखला आरम्भ की है। प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार सम्पूर्ण मानव जीवन को १६ संस्कारों में बाँटा गया है। इन विशेष अवसरों पर विशेष लोक-धुनों में गीतों को गाने की परम्परा है। हमने पिछले अंक में जातकर्म संस्कार, अर्थात पुत्र-जन्म के मांगलिक अवसर पर गाये जाने ‘सोहर’ गीतों की चर्चा की थी। आज के अंक में हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाते हैं। लोकगीतों में छन्द से अधिक भाव और रस का महत्त्व होता है। प्रत्येक अवसरों के लिए प्रकृतिक रूप से उपजी धुने शताब्दियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रहीं हैं। लोक-गीतकार इन धुनों में अपने बोली के शब्दों को समायोजित करके गाने लगता है। इन गीतों में सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्धों की बात होती है, इसी प्रकार सोहर गीतों में सास-बहू, ननद-भाभी और देवर-भाभी के नोक-झोक के रोचक प्रसंग होते हैं। उल्लास और संवेदनशीलता का भाव

मिलिए २३-वर्षीय फ़िल्मकार हर्ष पटेल से

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 69 ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष' में मैं, सुजॉय चटर्जी, आप सभी का फिर एक बार स्वागत करता हूँ। दोस्तों, आज हम आपकी मुलाक़ात करवाने जा रहे हैं एक ऐसे फ़िल्म-मेकर से जिनकी आयु है केवल २३ वर्ष। ज़्यादा भूमिका न देते हुए आइए मिलें हर्ष पटेल से और उन्हीं से विस्तार में जाने उनके जीवन और फ़िल्म-मेकिंग् के बारे में। सुजॉय - हर्ष, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'आवाज़' पर। यह साहित्य, संगीत और सिनेमा से जुड़ी एक ई-पत्रिका है, इसलिए हमने आपको इस मंच पर निमंत्रण दिया और आपको धन्यवाद देता हूँ हमारे निमंत्रण को स्वीकार करने के लिए। हर्ष - आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद!

साथी रे, भूल न जाना मेरा प्यार....कोई कैसे भूल सकता है दादु के संगीत योगदान को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 795/2011/235 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, इन दिनों आप आनन्द ले रहे हैं सुरीले संगीतकार व अर्थपूर्ण गीतों के गीतकार रवीन्द्र जैन पर केन्द्रित लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' का। आज पाँचवीं कड़ी में हम आपको बताने जा रहे हैं रवीन्द्र जैन का हिन्दी फ़िल्म जगत में आगमन कैसे हुआ। ४० के दशक के अन्त और ५० के दशक के शुरुआती सालों में अलीगढ़ में रहते हुए ही रवीन्द्र जैन के अन्दर संगीत का बीजारोपण हो चुका था। वो गोष्ठियों में जाया करते, मुशायरों में जाया करते। उनमें शायर इक़बाल उनके अच्छे दोस्त थे। उनका एक और दोस्त था निसार जो रफ़ी, मुकेश और तमाम गायकों के गीत उन्हीं के अंदाज़ में गाया करते थे। इस तरह से वो शामें बड़ी हसीन हुआ करती थीं। कभी बाग में, कभी रेस्तोरां में, देर रात तक महफ़िलें चला करतीं और रवीन्द्र जैन उनमें हारमोनियम बजाया करते गीतों के साथ। अन्ताक्षरी में जब कोई अटक जाता तो वो तुरन्त गीत बता दिया करते। ६० के दशक में रवीन्द्र जैन कलकत्ता आ गए। वहाँ पर नामचीन फ़िल्मकार हृतिक घटक से उनकी मुलाकात हुई जिन्होंने उन्हें सुन कर यह कहा था कि वे ब

अकेला चल चला चल...मंजिल की पुकार सुनाता ये गीत दादु का रचा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 794/2011/234 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी साथियों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार और स्वागत है आप सभी का रवीन्द्र जैन के लिखे और स्वरबद्ध किए गीतों से सजी लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' की चौथी कड़ी में। आइए एक बार फिर रुख़ करते हैं विविध भारती के उसी साक्षात्कार की ओर जिसमें दादु बता रहे हैं अपने शुरुआती दिनों के बारे में। पिछली कड़ी में ज़िक्र आया था दादु के बड़े भाई डी. के. जैन का, जिनका रवीन्द्र जैन के जीवन में बड़ा महत्व है, आइए आज वहीं से बात को आगे बढ़ाते हैं। " भाईसाहब साहित्य कर रहे थे उन दिनों, उन्होंने डी.लिट किया, जैन ऑथर्स ऑफ़ फ़्रेन्च पे काम कर रहे थे, तो किताबें रहती थी उनके रूम में ढेर सारी, तो मैं वहीं बैठा रहता था उनके पास, उनको कहता था कि थोड़ा ज़ोर-ज़ोर से पढ़ें ताकि मैं अपने अन्दर समेट सकूँ उन रचनाओं को, उस साहित्य को सहेज के रख सकूँ। आप जो भी आज सुनते हैं वो सारा वहीं से अनुप्रेरीत है। और अलीगढ़ में मेरे ज़्यादातर दोस्त मुस्लिम रहे, मेरे घर के पास ही मोहल्ला है, उपर कोर्ट, दिन वहीं गुज़रता था, मेरे बचपन की एक बान्धवी मेरे

तू जो मेरे सुर में सुर मिला दे...दादु के इस मनुहार को भला कौन इनकार कर पाये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 793/2011/233 "तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले, संग गा ले, तो ज़िन्दगी हो जाये सफल"। यह बात किसी और के लिए सटीक हो न हो, रवीन्द्र जैन के लिए १००% सही है क्योंकि उनके सुरों में जिन जिन नवोदित गायक गायिकाओं नें सुर मिलाया, उन्हें प्रसिद्धि मिली, उन्हें यश प्राप्त हुआ, उनका करीयर चल पड़ा। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार सुजॉय चटर्जी का और इन दिनों इस स्तंभ में जारी है लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' जिसमें आप सुन रहे हैं गीतकार-संगीतकार रवीन्द्र जैन की फ़िल्मी रचनाएँ और जान रहे हैं उनके जीवन की दास्तान उनकी ही ज़ुबानी विविध भारती की शृंखला 'उजाले उनकी यादों के' के सौजन्य से। कल की कड़ी में आपने जाना कि किस तरह से जन्म से ही उनकी आँखों की रोशनी जाती रही और इस कमी को ध्यान में रखते हुए उनके पिताजी नें उन्हें गीत-संगीत की तरफ़ प्रोत्साहित किया। अब आगे की कहानी दादु की ज़ुबानी - " तो यहाँ अलीगढ़ में नाटकों में मास्टर जी. एल. जैन संगीत निर्देशन किया करते थे, आर्य-जैन समाज के, और उन्होंने सबसे पहले जो ग़ज़ल मुझे सिखाई थी,

श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम....दादु का ये गीत कितना सकून भरा है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 792/2011/232 गी तकार-संगीतकार-गायक रवीन्द्र जैन पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' की दूसरी कड़ी में आप सभी का फिर एक बार हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, जैसा कि कल हमने कहा था कि रवीन्द्र जैन की दास्तान शुरु से हम आपको बताएंगे, तो आज की कड़ी में पढ़िए उनके जीवन के शुरुआती दिनों का हाल दादु के ही शब्दों में (सौजन्य: उजाले उनकी यादों के, विविध भारती)। जब दादु से यह पूछा गया कि वो अपने बचपन के दिनों के बारे में बताएँ, तो उनका जवाब था - " बचपन तो अभी गया नहीं है, क्योंकि जहाँ तक ज्ञान का सम्बंध है, आदमी हमेशा बच्चा ही रहता है, यह मैं मानता हूँ। उम्र में भले ही हमने बचपन खो दिया हो, लेकिन ज्ञान में अभी बच्चे हैं। तो अलीगढ़ में थे मेरे माता-पिता, अलीगढ़ से ही जन्म मुझको मिला, अलीगढ़ में ही हो गया था शुरु ये गीत और संगीत का सिलसिला। डॉ. मोहनलाल, जो मेरे पिताश्री के कन्टेम्पोररी थे, मेरे पिताजी का नाम पंडित इन्द्रमणि ज्ञान प्रसाद जी, तो मोहनलाल जी नें जन्म के दिन ही आँखों का छोटा सा एक ऑपरेशन किया, उन्होंने आँखें खोल

हर हसीं चीज़ का मैं तलबगार हूँ...कहता हुआ आया वो सुरों का सौदागर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 791/2011/231 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी रसिक श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! दोस्तों, ७० के दशक के मध्य भाग से फ़िल्म-संगीत में व्यवसायिक्ता सर चढ़ कर बोलने लग पड़ी थी। धुनों में मिठास कम और शोर-शराबा ज़्यादा होने लगा। गीतों के बोल भी अर्थपूर्ण कम और चलताऊ क़िस्म के होने लगे थे। गीतकार और संगीतकार को न चाहते हुए भी कई बंधनों में बंध कर काम करने पड़ते थे। लेकिन तमाम पाबन्दियों के बावजूद कुछ कलाकार ऐसे भी हुए जिन्होंने कभी हालात के दबाव में आकर अपने उसूलों और कला के साथ समझौता नहीं किया। भले इन कलाकारों नें फ़िल्में रिजेक्ट कर दीं, पर अपनी कला का सौदा नहीं किया। ७० के दशक के मध्य भाग में एक ऐसे ही सुर-साधक का फ़िल्म जगत में आगमन हुआ था जो न केवल एक उत्कृष्ट संगीतकार हुए, बल्कि एक बहुत अच्छे काव्यात्मक गीतकार और एक सुरीले गायक भी हैं। यही नहीं, यह लाजवाब कलाकार पौराणिक विषयों के बहुत अच्छे ज्ञाता भी हैं। फ़िल्म-संगीत के गिरते स्तर के दौर में अपनी रुचिकर रचनाओं से इसके स्तर को ऊँचा बनाये रखने में उल्लेखनीय योगदान देने वाले इस श्रद्धेय कलाकार क