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ओल्ड इस गोल्ड - शनिवार विशेष - एक खास बातचीत में हिंदुस्तान की पहली पार्श्व गायिका पारुल घोष को याद किया उनकी परपोती श्रुति मुर्देश्वर कार्तिक ने

नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' की एक और विशेषांक के साथ हम उपस्थित हैं। जैसा कि आप जानते हैं भारत में बोलती फ़िल्मों की शुरुआत सन् १९३१ में हुई थी 'आलम आरा' के साथ। उस वक़्त अभिनेता अपनी ही आवाज़ में गीत भी गाते थे; यानी कि उस वक़्त आज की तरह पार्श्वगायन या प्लेबैक की तकनीक विकसित नहीं हुई थी। पार्श्वगायन की नीव रखी गई साल १९३५ में जब संगीतकार रायचंद बोराल ने कलकत्ते के न्यु थिएटर्स की फ़िल्म 'धूप छाँव' में पहली बार "गायकों" से गानें गवाए। इस फ़िल्म में के. सी. डे के गाये गीत "तेरी गठरी में लागा चोर मुसाफ़िर जाग ज़रा" को पहला प्लेबैक्ड गीत माना जाता है। गायिकाओं की बात करें तो इसी फ़िल्म में पारुल घोष, सुप्रभा सरकार और साथियों ने भी एक गीत गाया था, और इस तरह से ये दोनों गायिकाओं का नाम पहली बार दर्ज हुआ हिंदी सिनेमा की पार्श्वगायिकाओं की फ़ेहरिस्त में। यह बात आज से ठीक ७५ वर्ष पहले की है। और यह मेरा सौभाग्य ही कहूँगा कि हाल ही में मेरा परिचय हुआ पारुल जी की परपोती श्रुति मुर्देश्वर जी से, और एक अजीब सा रोमांच हो आया यह सोचकर कि श्रुति

गिरिजेश राव की कहानी "ढेला पत्ता"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की संस्मरणात्मक कहानी " आती क्या खंडाला? " का पॉडकास्ट उन्हीं की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं गिरिजेश राव की कहानी " ढेला पत्ता ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "ढेला पत्ता" का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 33 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट एक आलसी का चिठ्ठा पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। "पास बैठो कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं। तफसील पूछोगे तो कह दूँगा,मुझे कुछ नहीं पता " ~ गिरिजेश राव हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी "दोनों की बातों में कुछ खास नहीं होता था लेकिन दोनों बिना बातें किये रह नहीं पाते थे।" ( गिरिजेश राव की कहानी 'ढेला पत्ता'

अलविदा अलविदा....यही कहा होगा सुर्रैया ने दुनिया-ए-फानी को छोड़ते हुए अपने चाहने वालों से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 590/2010/290 सु रैया के गाये सुमधुर गीतों को सुनते हुए और उनकी चर्चा करते हुए हम आज आ पहुँचे हैं उन पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'तेरा ख़याल दिल से भुलाया ना जाएगा' की दसवीं और अंतिम कड़ी पर। आइए आज हम सुरैया की उस ज़िंदगी में थोड़ा झाँके जिसे वो फ़िल्मलाइन छोड़ने के बाद अंत तक जी रही थीं। हालाँकि उन्हें आर्थिक तौर पर कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन वो बहुत अकेली हो गई थीं। अंतिम दिनों में वो अपने वकील पर निर्भर थीं, जिन्होंने उनका ख़याल भी रखा, और सुरैया ने भी अपनी कुछ सम्पत्ति उनकी बेटियों के नाम कर दीं। लेकिन इसके अलावा भी सुरैया की बहुत सारी स्थायी सम्पत्ति थी, जिसमें थे वर्ली में एक पूरी इमारत जिसमें ६ फ़्लैट्स, गराज और आउटहाउसेस थे; इसके अलावा लोनावला में भी एक बंगला था। इतनी सारी जायदाद की मालकिन होने के बावजूद सुरैया एक किराये के फ़्लैट में रहती थीं। १९९८ में वो गुमनामी से बाहर निकलीं और स्क्रीन विडिओकॊन अवार्ड्स में शरीक हुईं, जिसमें अभिनेता सुनिल दत्त के हाथों से 'लाइफ़टाइम अचीवमेण्ट अवार्ड' ग्रहण किया। सफ़ेद सलवार कमी

नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाये ना बने...ग़ालिब का कलाम और सुर्रैया की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 589/2010/289 "आ ह को चाहिये एक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक"। मिर्ज़ा ग़ालिब के इस शेर के बाद हम सुरैया के लिये भी यही कह सकते हैं कि उनकी गायकी, उनके अभिनय में वो जादू था कि जिसका असर एक उम्र नहीं, बल्कि कई कई उम्र तक होता रहेगा। 'तेरा ख़याल दिल से भुलाया ना जाएगा', सिंगिंग् स्टार सुरैया को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस लघु शृंखला की आज नवी कड़ी में सुनिए १९५४ की फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' की एक अन्य ग़ज़ल "नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाये ना बने, क्या बने बात जहाँ बात बनाये ना बने"। ग़ालिब के इन ग़ज़लों को सुरों में ढाला था संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद ने। इस फ़िल्म का निर्देशन सोहराब मोदी ने किया था। ग़ालिब की ज़िंदगी पर आधारित इस फ़िल्म को बहुत तारीफ़ें नसीब हुए। ग़ालिब की भूमिका में नज़र आये थे भारत भूषण और सुरैया बनीं थीं चौधवीं, उनकी प्रेमिका, जो एक वेश्या थीं। फ़िल्म के अन्य कलाकारों में शामिल थे निगार सुल्ताना, दुर्गा खोटे, मुराद, मुकरी, उल्हास, कुमकुम और इफ़्तेखार। इस फ़िल्म को १९५५ में

"सातों बार बोले बंसी" और "जाने दो मुझे जाने दो" जैसे नगीनों से सजी है आज की "गुलज़ार-आशा-पंचम"-मयी महफ़िल

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११० बा द मुद्दत के फिर मिली हो तुम, ये जो थोड़ी-सी भर गई हो तुम, ये वज़न तुम पर अच्छा लगता है.. अभी कुछ दिनों पहले हीं भरी-पूरी फिल्मफेयर की ट्रॉफ़ी स्वीकार करते समय गुलज़ार साहब ने जब ये पंक्तियाँ कहीं तो उनकी आँखों में गज़ब का एक आत्म-विश्वास था, लहजे में पिछले ४८ सालों की मेहनत की मणियाँ पिरोई हुई-सी मालूम होती थीं और बालपन वैसा हीं जैसे किसी पाँचवे दर्ज़े के बच्चे को सबसे सुंदर लिखने या सबसे सुंदर कहने के लिए "इन्स्ट्रुमेंट बॉक्स" से नवाज़ा गया हो। उजले कपड़ों में देवदूत-से सजते और जँचते गुलज़ार साहब ने अपनी उम्र का तकाज़ा देते हुए नए-नवेलों को खुद पर गुमान करने का मौका यह कह कर दे दिया कि "अच्छा लगता है, आपके साथ-साथ यहाँ तक चला आया हूँ।" अब उम्र बढ गई है तो नज़्म भी पुरानी होंगी साथ-साथ, लेकिन "दिल तो बच्चा है जी", इसलिए हर दौर में वही "छुटभैया" दिल हर बार कुछ नया लेकर हाज़िर हो जाता है। यूँ तो यह दिल गुलज़ार साहब का है, लेकिन इसकी कारगुजारियों का दोष अपने मत्थे नहीं लेते हुए, गुलज़ार साहब "विशाल" पर सारा दोष मथ दे

धडकते दिल की तम्मना हो मेरा प्यार हो तुम....कितने कम हुए है इतने मासूम और मुकम्मल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 588/2010/288 सु रैया के गाये सुमधुर गीतों से सजी लघु शृंखला 'तेरा ख़याल दिल से भुलाया ना जाएगा' की आठवीं कड़ी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आप सभी हम हार्दिक स्वागत करते हैं। आज की कड़ी के लिए हमने जो गीत चुना है वह ना केवल सुरैया जी के संगीत सफ़र का एक अहम अध्याय रहा है, बल्कि इस गीत के संगीतकार के लिए भी एक मीलस्तंभ गीत सिद्ध हुआ था। ये कमचर्चित और अण्डर-रेटेड म्युज़िक डिरेक्टर थे ग़ुलाम मोहम्मद। १९६१ की फ़िल्म 'शमा' का बेहद मशहूर और ख़ूबसूरत गीत "धड़कते दिल की तमन्ना हो मेरा प्यार हो तुम, मुझे क़रार नहीं जब से बेक़रार हो तुम"। गीत नहीं, बल्कि ग़ज़ल कहें तो बेहतर होगा। कैफ़ी आज़्मी साहब ने क्या ख़ूब लफ़्ज़ पिरोये हैं इस ग़ज़ल में। ग़ुलाम मोहम्मद की तरह क़ैफ़ी साहब भी अण्डर-रेटेड रहे हैं, और उनकी लेखन प्रतिभा का फ़िल्म जगत उस हद तक लाभ नहीं उठा सका जितना उठा सकता था। आगे बढ़ने से पहले आइए इस ग़ज़ल के बाक़ी के शेर यहाँ लिखें... धड़कते दिल की तमन्ना हो मेरा प्यार हो तुम, मुझे क़रार नहीं जब से बेक़रार हो तुम। खिलाओ फूल किसी के किसी

पिया न रहे मन-बसिया..रंगरेज से दर्द-ए-दिल बयां कर रहे हैं "तनु वेड्स मनु" के संगीतकार कृष्णा ,गीतकार राजशेखर

Taaza Sur Taal (TST) - 05/2011 - TANU WEDS MANU "तनु वेड्स मनु".. यह नाम सुनकर आपके मन में कोई भी उत्सुकता उतरती नहीं होगी, इसका मुझे पक्का यकीन है। मेरा भी यही हाल था। एक बेनाम-सी फिल्म, अजीबो-गरीब नाम और अजीबो-गरीब जोड़ी मुख्य-पात्रों की। "माधवन" और "कंगना".. मैं अपने सपने में भी इस जोड़ी की कल्पना नहीं कर सकता था..। लेकिन एक दिन अचानक इस फिल्म की कुछ झलकियाँ यू-ट्युब पर देखने को मिलीं. हल्की-सी उत्सुकता जागी और जैसे-जैसे दृश्य बढते गए, मैं इस "बेढब"-सी अजबनी दुनिया से जुड़ता चला गया। झलकियाँ का ओझल होना था और मैं यह जान चुका था कि यह फिल्म बिन देखे हीं नकार देने लायक नहीं है। कुछ तो अलग है इसमें और इन्हीं दृश्यों के बीच जब "कदी साडी गली पुल (भुल) के भी आया करो" के बीट्स ढोलक पर कूदने लगे तो जैसे मेरे कानों ने पायल बाँध लिये और ये दो नटखट उचकने लगे अपनी-अपनी जगहों पर। फिर तो मुझे समझ आ चुका था कि ऐंड़ी पर खड़े होकर मुझे इस फिल्म के गानों की बाट जोहनी होगी। फिर भी मन में एक संशय तो ज़रूर था कि "कदी साडी गली".. ये गाना तो पुरा