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अनुराग शर्मा की कहानी आती क्या खंडाला?

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हरिशंकर परसाई की कहानी " उखड़े खंभे " का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक सामयिक कहानी " आती क्या खंडाला? ", उन्हीं की आवाज़ में। कहानी "आती क्या खंडाला?" का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 56 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा "आती क्या खंडाला?" का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।। ~ अनुराग शर्मा हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी "सब लोग बातें बनायेंगे, पहले ही हमारा नाम जोडते रहते हैं।" ( अनुराग शर्मा की "आती क्या खंडाला?" से एक अंश

आसमां के नीचे हम आज अपने पीछे, प्यार का जहाँ बसा के चले...लता और किशोर दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 555/2010/255 फ़ि ल्म संगीत के सुनहरे दौर के कुछ सदाबहार युगल गीतों से सज रही है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल इन दिनों। ये वो प्यार भरे तराने हैं, जिन्हे प्यार करने वाले दिल दशकों से गुनगुनाते चले आए हैं। ये गानें इतने पुराने होते हुए भी पुराने नहीं लगते। तभी तो इन्हे हम कहते हैं 'सदाबहार नग़में'। इन प्यार भरे गीतों ने वो कदमों के निशान छोड़े हैं कि जो मिटाए नहीं मिटते। आज इस 'एक मैं और एक तू' शृंखला में हमने एक ऐसे ही गीत को चुना है जिसने भी अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है। लता मंगेशकर और किशोर कुमार की सदाबहार जोड़ी का यह सदाबहार नग़मा है फ़िल्म 'ज्वेल थीफ़' का - "आसमाँ के नीचे, हम आज अपने पीछे, प्यार का जहाँ बसाके चले, क़दम के निशाँ बनाते चले"। मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस गीत को दादा बर्मन ने स्वरबद्ध किया था। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के शुरुआती दिनों में, बल्कि युं कहें कि कड़ी नं - ६ में हमने आपको इस फ़िल्म का " रुलाके गया सपना मेरा " सुनवाया था, और इस फ़िल्म की जानकारी भी दी थी। आज इस युगल गीत के फ़िल्मांक

दीवाना हुआ बादल, सावन की घटा छायी...जब स्वीट सिक्सटीस् में परवान चढा प्रेम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 554/2010/254 जी व जगत की तमाम अनुभूतियों में सब से प्यारी, सब से सुंदर, सब से सुरीली, और सब से मीठी अनुभूति है प्रेम की अनुभूति, प्यार की अनुभूति। यह प्यार ही तो है जो इस संसार को अनंतकाल से चलाता आ रहा है। ज़रा सोचिए तो, अगर प्यार ना होता, अगर चाहत ना होती, तो क्या किसी अन्य चीज़ की कल्पना भी हम कर सकते थे! फिर चाहे यह प्यार किसी भी तरह का क्यों ना हो। मनुष्य का मनुष्य से, मनुष्य का जानवरों से, प्रकृति से, अपने देश से, अपने समाज से। दोस्तों, यह 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल है, जो बुना हुआ है फ़िल्म संगीत के तार से। और हमारी फ़िल्मों और फ़िल्मी गीतों का केन्द्रबिंदु भी देखिए प्रेम ही तो है। प्रेमिक-प्रेमिका के प्यार को ही केन्द्र में रखते हुए यहाँ फ़िल्में बनती हैं, और इसलिए ज़ाहिर है कि फ़िल्मों के ज़्यादातर गानें भी प्यार-मोहब्बत के रंगों में ही रंगे होते हैं। दशकों से प्यार भरे युगल गीतों की परम्परा चली आई है, और एक से एक सुरीले युगल गीत हमें कलाकारों ने दिए हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर से चु्ने हुए

भुला नहीं देना जी भुला नहीं देना, जमाना खराब है दगा नहीं देना....कुछ यही कहना है हमें भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 553/2010/253 ३० और ४० के दशकों से एक एक मशहूर युगल गीत सुनने के बाद 'एक मैं और एक तू' शुंखला में आज हम क़दम रख रहे हैं ५० के दशक में। इस दशक में युगल गीतों की संख्या इतनी ज़्यादा बढ़ गई कि एक से बढ़कर एक युगल गीत बनें और अगले दशकों में भी यही ट्रेण्ड जारी रहा। अनिल बिस्वास, नौशाद, सी. रामचन्द्र, सचिन देव बर्मन, शंकर जयकिशन, रोशन, ओ. पी. नय्यर, हेमन्त कुमार, सलिल चौधरी जैसे संगीतकारों ने एक से एक नायाब युगल गीत हमें दिए। अब आप ही बतायें कि इस दशक का प्रतिनिधित्व करने के लिए हम इनमें से किस संगीतकार को चुनें। भई हमें तो समझ नहीं आ रहा। इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना किसी कमचर्चित संगीतकार की बेहद चर्चित रचना को ही बनाया जाये ५० के दशक का प्रतिनिधि गीत! क्या ख़याल है? तो साहब आख़िरकार हमने चुना लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी का गाया फ़िल्म 'बारादरी' का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत युगलगीत "भुला नहीं देना जी भुला नहीं देना, ज़माना ख़राब है दग़ा नहीं देना जी दग़ा नहीं देना"। संगीतकार हैं नौशाद नहीं, नाशाद। नाशाद का असली नाम था शौक़त अली। उनका जन्म १९२३ को

वार्षिक समीक्षा....हमें इंतज़ार है आपकी राय का

ताज़ा सुर ताल - वार्षिक समीक्षा सजीव - नये संगीत के चाहनेवालों का 'ताज़ा सुर ताल' के इस ख़ास अंक में बहुत बहुत स्वागत है, और सुजॊय तथा विश्व दीपक, आप दोनों का भी मैं स्वागत करता हूँ। सुजॊय - नमस्कार आप दोनों को। कितनी जल्दी समय बीत जाता है, मुझे ऐसा लग रहा है जैसे अभी हाल ही में २०१० की वार्षिक समीक्षा की थी, और देखिए देखते ही देखते एक साल गुज़र गया। विश्व दीपक - मेरी तरफ़ से भी आप दोनों को और सभी पाठकों को नमस्कार। आज बहुत ही अच्छा लग रहा है क्योंकि यह शायद पहला मौका है कि जब हम तीनों एक साथ किसी स्तंभ को प्रस्तुत कर रहे हैं। तो सजीव जी, आप ही बताइए कि हम तीनों मिलकर किस तरह से इस ख़ास अंक को आगे बढ़ाएँ। सजीव - ऐसा करते हैं कि कुछ विभाग या कैटेगरीज़ बना लेते हैं ठीक उस तरह से जिस तरह से वार्षिक पुरस्कार दिए जाते हैं, जैसे कि सर्वश्रेष्ठ गीत, सर्वश्रेष्ठ संगीतकार वगैरह। हम तीनों हर विभाग के लिए दो दो गीत सुझाते हैं। इस तरह से हर विभाग के लिए ६ गीत चुन लिए जाएँगे। फिर हम अपने पाठकों पर छोड़ेंगे कि वो हर विभाग के लिए इन ६ गीतों में कौन सा गीत चुनते हैं। कहिए क्या ख़याल है? Vie

हाथ सीने पे जो रख दो तो क़रार आ जाये....और धीरे धीरे प्रेम में गुजारिशों का दौर शुरू हुआ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 552/2010/252 'ए क मैं और एक तू' - फ़िल्म संगीत के सुनहरे दशकों से चुने हुए युगल गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की शुरुआत कल हमने की थी 'अछूत कन्या' फ़िल्म के उस युगल गीत से जो फ़िल्म संगीत इतिहास का पहला सुपरहिट युगल गीत रहा है। आज आइए इस शृंखला की दूसरी कड़ी में पाँव रखें ४० के दशक में। सन् १९४७ में देश के बंटवारे के बाद बहुत से कलाकार भारत से पाक़िस्तान चले गये, बहुत से कलाकार वहाँ से यहाँ आ गये, और बहुत से कलाकार अपने अपने जगहों पर कायम रहे। ए. आर. कारदार और महबूब ख़ान यहीं रह जाने वालों में से थे। लेकिन नूरजहाँ जैसी गायिका अभिनेत्री को जाना पड़ा। लेकिन जाते जाते १९४७ में वो दो फ़िल्में हमें ऐसी दे गईं जिनकी यादें आज धुंधली ज़रूर हुई हैं, लेकिन आज भी इनका ज़िक्र छिड़ते ही हमें ऐसा करार मिलता है कि जैसे किसी बहुत ही प्यारे और दिलअज़ीज़ ने अपना हाथ हमारे सीने पर रख दिया हो! शायद आप समझ रहे होंगे कि आज हम आपको कौन सा गाना सुनवाने जा रहे हैं। जी हाँ, नूरजहाँ और जी. एम. दुर्रानी की युगल आवाज़ों में १९४७ की फ़िल्म 'मिर्ज़

मैं बन की चिड़िया बन के.....ये गीत है उन दिनों का जब भारतीय रुपहले पर्दे पर प्रेम ने पहली करवट ली थी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 551/2010/251 न मस्कार दोस्तों! स्वागत है बहुत बहुत आप सभी का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस सुरीली महफ़िल में। पिछली कड़ी के साथ ही पिछले बीस अंकों से चली आ रही लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' सम्पन्न हो गई, और आज से एक नई लघु शृंखला का आग़ाज़ हम कर रहे हैं। और यहाँ पर आपको इस बात की याद दिला दूँ कि यह साल २०१० की आख़िरी लघु शृंखला होगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। जी हाँ, देखते ही देखते यह साल भी अब विदाई के मूड में आ गया है। तो कहिए साल के आख़िरी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' लघु शृंखला को कैसे यादगार बनाया जाए? क्योंकि साल के इन आख़िरी कुछ दिनों में हम सभी छुट्टी के मूड में होते हैं, हमारा मिज़ाज हल्का फुल्का होता है, मौसम भी बड़ा ख़ुशरंग होता है, इसलिए हमने सोचा कि इस लघु शृंखला को कुछ बेहद सुरीले प्यार भरे युगल गीतों से सजायी जाये। जब से फ़िल्म संगीत की शुरुआत हुई है, तभी से प्यार भरे युगल गीतों का भी रिवाज़ चला आ रहा है, और उस ज़माने से लेकर आज तक ये प्रेम गीत ना केवल फ़िल्मों की शान हैं, बल्कि फ़िल्म के बाहर भी सुनें तो एक अलग ही अनुभूति प्रदान