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ई मेल के बहाने यादों के खजाने - आज बारी है रोमेंद्र सागर जी की पसंद के गीत के

नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस साप्ताहिक अंक में आप सभी का स्वागत है। 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का एक ऐसा स्तंभ है जिसमें हम आप ही की बात करते हैं, और आप ही के पसंद के गीत सुनवाते हैं। फ़िल्मी गीत हर किसी के जीवन से जुड़ा होता है। कुछ गीत अगर हमें अपने बचपन की यादें ताज़ा कर देते हैं तो कुछ जवानी के दिनों के। कुछ गीतों से हमारा पीछे छोड़ आया प्यार वापस ज़िंदा हो जाता है तो कुछ गीत हमारे जुदाई के दिनों के हमसफ़र बन जाते हैं। हम भी यही चाहते हैं कि आप अपनी इन खट्टी मीठी यादों को हमारे साथ बाँटें इस साप्ताहिक अंक के ज़रिए। कोई तो गीत ऐसा ज़रूर होगा जिसे सुनकर आपको कोई ख़ास बात अपनी ज़िंदगी की एकदम से याद आ जाती होगी! तो लिख भेजिए हमें oig@hindyugm.com के पते पर, ठीक उसी तरह से जिस तरह हमारे दूसरे साथी लिख भेज रहे हैं। और अब आज के फ़रमाइशी गीत की बारी। इस बार लिखने वाले हैं हमारे रोमेन्द्र सागर साहब। रोमेन्द्र जी लिखते हैं ---- " अनीता सिंह जी की फरमाईश को देखा तो कुछ अपना भी मन मचल सा गया !एक गीत है मुकेश की आवाज़ में ...फिल्म "मन

सुनो कहानी: पानी की जाति - विष्णु प्रभाकर

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हरिशंकर परसाई की एक सुन्दर कहानी मुण्डन का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं विष्णु प्रभाकर की "पानी की जाति" , जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 4 मिनट 48 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। "पानी की जाति" का टेक्स्ट गद्य कोश पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मेरे जीने के लिए सौ की उमर छोटी है ~ विष्णु प्रभाकर (१२ जून १९१२ - ११ अप्रैल २००९) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी युवक ने उसे तल्खी से जवाब दिया, "हम मुसलमान हैं।" ( विष्णु प्रभाकर की "पानी की जाति" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें

बदरा छाए रे, कारे कारे अरे मितवा...कभी कभी खराब फिल्मांकन अच्छे खासे गीत को ले डूबते हैं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 515/2010/215 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले', और इसमें अब तक हमने आपको चार गानें सुनवा चुके हैं जिनमें कोई ना कोई भूल हुई थी, और उस भूल को नज़रंदाज़ कर गाने में रख लिया गया था। दोस्तों, अभी दो दिन पहले ही हमने 'बाप रे बाप' फ़िल्म का गीत सुनवाते वक़्त इस बात का ज़िक्र किया था कि किस तरह से फ़िल्मांकन के ज़रिए आशा जी की ग़लती को गीत का हिस्सा बना दिया था किशोर कुमार ने। लेकिन दोस्तों, अगर फ़िल्मांकन से इस ग़लती को सम्भाल लिया गया है, तो कई बार ऐसे भी हादसे हुए हैं कि फ़िल्मांकन की व्यर्थता की वजह से अच्छे गानें गड्ढे में चले गए। अब आप ही बताइए कि अगर गीत में बात हो रही है काले काले बादलों की, बादलों के गरजने की, पिया मिलन के आस की, लेकिन गाना फ़िल्माया गया हो कड़कते धूप में, वीरान पथरीली पहाड़ियों में, तो इसको आप क्या कहेंगे? जी हाँ, कई गानें ऐसे हुए हैं, जो कम बजट की फ़िल्मों के हैं। क्या होता है कि ऐसे निर्माताओं के पास धन की कमी रहती है, जिसकी वजह से उन्हें विपरीत हालातों में भी शूटिं

मैं प्यार का राही हूँ...मुसाफिर रफ़ी साहब ने हसीना आशा के कहा कुछ- सुना कुछ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 514/2010/214 'गी त गड़बड़ी वाले' शृंखला की आज है चौथी कड़ी। पिछले तीन कड़ियों में आपने सुने गायकों द्वारा की हुईं गड़बड़ियाँ। आज हम बात करते हैं एक ऐसी गड़बड़ी की जो किस तरह से हुई यह बता पाना बहुत मुश्किल है। यह गड़बड़ी है किसी युगल गीत में गायक और गायिका के दो अंतरों की लाइनों का आपस में बदल जाना। यानी कि गायक ने कुछ गाया, जिसका गायिका को जवाब देना है। और अगर यह जवाब गायिका दूसरे अंतरें में दे और दूसरे अंतरे में गायक के सवाल का जवाब वो पहले अंतरे में दे, इसको तो हम गड़बड़ई ही कहेंगे ना! ऐसी ही एक गड़बड़ी हुई थी फ़िल्म 'एक मुसाफ़िर एक हसीना' के एक गीत में। यह फ़िल्मालय की फ़िल्म थी जिसका निर्माण शशधर मुखर्जी ने किया था, राज खोसला इसके निर्देशक थे। ओ. पी. नय्यर द्वारा स्वरबद्ध यह एक आशा-रफ़ी डुएट था "मैं प्यार का राही हूँ"। गीतकार थे राजा मेहन्दी अली ख़ान। अब इस गीत में क्या गड़बड़ी हुई है, यह समझने के लिए गीत के पूरे बोल यहाँ पर लिखना ज़रूरी है। तो पहले इस गीत के बोलों को पढिए, फिर हम बात को आगे बढ़ाते हैं। मैं प्यार का राही हूँ, तेरी

मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना.. राहत साहब की दर्दीली आवाज़ में इस ग़मनशीं नज़्म का असर हज़ार गुणा हो जाता है

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०२ अ भी कुछ महीनों से हमने अपनी महफ़िल "गज़लगो" पर केन्द्रित रखी थी.. हर महफ़िल में हम बस शब्दों के शिल्पी की हीं बातें करते थे, उन शब्दों को अपनी मखमली, पुरकशिश, पुर-असर आवाज़ों से अलंकृत करने वाले गलाकारों का केवल नाम हीं महफ़िल का हिस्सा हुआ करता था। यह सिलसिला बहुत दिन चला.. हमारे हिसाब से सफल भी हुआ, लेकिन यह संभव है कि कुछ मित्रों को यह अटपटा लगा हो। "अटपटा"... "पक्षपाती"... "अन्यायसंगत"... है ना? शर्माईये मत.. खुलकर कहिए? क्या मैं आपके हीं दिल की बात कर रहा हूँ? अगर आप भी उन मित्रों में से एक हैं तो हमारा कर्त्तव्य बनता है कि आपकी नाराज़गी को दूर करें। तो दोस्तों, ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि वे सारी महफ़िलें "बड़े शायर" श्रृंखला के अंतर्गत आती थीं और "बड़े शायर" श्रृंखला की शुरूआत (जिसकी हमने विधिवत घोषणा कभी भी नहीं की थी) आज से ८ महीने और १० दिन पहले मिर्ज़ा ग़ालिब पर आधारित पहली कड़ी से हुई थी। ७१ से लेकर १०१ यानि कि पूरे ३१ कड़ियों के बाद पिछले बुधवार हमने उस श्रृंखला पर पूर्णविराम डाल दिया। और आज से

बोल मेरे मालिक क्या यही तेरा इन्साफ है....जब लता जी की इस छोटी सी गलती को नज़रंदाज़ कर दिया गया

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 513/2010/213 'गी त गड़बड़ी वाले', दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं यह शृंखला, जिसके अंतर्गत वो गानें शामिल हो रहे हैं जिनमें कोई कोई न कोई गड़बड़ी हुई है। अब तक हमने दो युगल गीत सुनें हैं जिनमें एक गायक ने ग़लती से दूसरे गायक की लाइन पर गा उठे हैं। सहगल साहब और आशा जी की ग़लतियों के बाद आज बारी स्वर कोकिला लता मंगेशकर की। जी नहीं, लता जी के किसी अन्य गायक की लाइन पर नहीं गाया, बल्कि उन्होंने एक शब्द का ग़लत उच्चारण किया है। छोटी "इ" के स्थान पर बड़ी "ई" गा बैठीं हैं लाता जी इस गीत में। यह है फ़िल्म 'हलाकू' का गीत "बोल मेरे मालिक तेरा क्या यही है इंसाफ़, जो करते हैं लाख सितम उनको तू करता माफ़"। इस गीत में लता ने यूंही "मालिक" की जगह "मलीक" गाया है। इस गीत को ध्यान से सुनने पर इस ग़लती को आप पकड़ सकते हैं। लेकिन यह गीत इतना सुंदर है, इतना कर्णप्रिय है कि इस ग़लती को नज़रंदाज़ करने को जी चाहता है। हसरत जयपुरी का लिखा गीत है और संगीत है शंकर जयकिशन का। क्योंकि यह ईरान की कह

राहत साहब के सहारे अल्लाह के बंदों ने संगीत की नैया को संभाला जिसे नॉक आउट ने लगभग डुबो हीं दिया था

ताज़ा सुर ताल ४१/२०१० विश्व दीपक - सभी दोस्तों को नमस्कार! सुजॊय जी, कैसी रही दुर्गा पूजा और छुट्टियाँ? सुजॊय - बहुत बढ़िया, और आशा है आपने भी नवरात्रि और दशहरा धूम धाम से मनाया होगा! विश्व दीपक - पिछले हफ़्ते सजीव जी ने 'टी.एस.टी' का कमान सम्भाला था और 'गुज़ारिश' के गानें हमें सुनवाए। सुजॊय - सब से पहले तो मैं सजीव जी से अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर दूँ। नाराज़गी इसलिए कि हम एक हफ़्ते के लिए छुट्टी पे क्या चले गए, कि उन्होंने इतनी ख़ूबसूरत फ़िल्म का रिव्यु ख़ुद ही लिख डाला। और भी तो बहुत सी फ़िल्में थीं, उन पर लिख सकते थे। 'गुज़ारिश' हमारे लिए छोड़ देते! विश्व दीपक - लेकिन सुजॊय जी, यह भी तो देखिए कि कितना अच्छा रिव्यु उन्होंने लिखा था, क्या हम उस स्तर का लिख पाते? सुजॊय - अरे, मैं तो मज़ाक कर रहा था। बहुत ही अच्छा रिव्यु था उनका लिखा हुआ। जैसा संगीत है उस फ़िल्म का, रिव्यु ने भी पूरा पूरा न्याय किया। चलिए अब आज की कार्यवाही शुरु की जाए। वापस आने के बाद जैसा कि मैं देख रहा हूँ कि बहुत सारी नई फ़िल्मों के गानें रिलीज़ हो चुके हैं। इसलिए आज भी दो फ़िल्मों के गा