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'ओल्ड इज़ गोल्ड' - ई-मेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें - ०१

नमस्कार दोस्तों! आज आप मुझे यहाँ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के स्तंभ में देख कर हैरान ज़रूर हो रहे होंगे कि भई शनिवार को तो 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल नहीं सजती है, तो फिर यह व्यतिक्रम कैसा! है न? दरअसल बात कुछ ऐसी है कि जब से हमने 'ओल इज़ गोल्ड' को दैनिक स्तंभ से बदल कर सप्ताह में पाँच दिन कर दिए हैं, हम से कई लोगों ने समय समय पर इसे फिर से दैनिक कर देने का अनुरोध किया है। हमारे लिए यह आसान तो नहीं था, क्योंकि अपनी रोज़-मर्रा की व्यस्त ज़िंदगी से समय निकाल कर ऐसा करना ज़रा मुश्किल सा हो रहा था, लेकिन आप सब के आग्रह और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आपकी दिलचस्पी को हम नज़रंदाज़ भी तो नहीं कर सकते थे। इसलिए हमें एक नई बात सूझी। और वह यह कि कम से कम शनिवार को हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल सजाएँगे ज़रूर, लेकिन उस स्वरूप में नहीं जिस स्वरूप में रविवार से गुरुवार तक सजाते हैं। बल्कि क्यों ना कुछ अलग हट के किया जाए इसमें। नतीजा यह निकला कि आज से सम्भवत: हर शनिवार की शाम यह ख़ास महफ़िल सजेगी, जो कहलाएगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड - ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें'। 'ईमेल

सुनो कहानी: रामचन्द्र भावे की वारिस

रामचन्द्र भावे की कन्नड कहानी वारिस 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अर्चना चावजी की आवाज़ में जयशंकर प्रसाद की अमर कहानी ' पुरस्कार ' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं रामचन्द्र भावे की कन्नड कहानी " वारिस ", जिसको स्वर दिया है कविता वर्मा ने। कहानी का हिन्दी अनुवाद डी.एन.श्रीनाथ ने किया है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 18 मिनट 39 सेकंड। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। कन्नड साहित्यकार रामचन्द्र भावे की सभी कहानियाँ अंत में सोचने पर विवश करती हैं। हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी पिताजी का व्यवहार न जाने क्यों विचित्र सा लगा। ( रामचन्द्र भावे की "वारिस" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्

मिलिए आवाज़ के नए वाहक जो लायेंगें फिर से आपके लिए रविवार सुबह की कॉफी में कुछ दुर्लभ गीत

दोस्तों यूँ तो आज शुक्रवार है, यानी किसी ताज़े अपलोड का दिन, पर नए संगीत के इस सफर को जरा विराम देकर आज हम आपको मिलवाने जा रहे हैं आवाज़ के एक नए वाहक से. दोस्तों आपको याद होगा हर रविवार हम आपके लिए लेकर आते थे शृंखला "रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत". जो हमारे नए श्रोता हैं वो पुरानी कड़ियों का आनंद यहाँ ले सकते हैं. कुछ दिनों तक इसे सजीव सारथी सँभालते रहे फिर काम बढ़ा तो तलाश हुई किसी ऐसे प्रतिनिधि की जो इस काम को संभाले. क्योंकि इस काम पे लगभग आपको पूरे हफ्ते का समय देना पड़ता था, दुर्लभ गीतों की खोज, फिर आलेख जिसमें विविधता आवश्यक थी. दीपाली दिशा आगे आई और कुछ कदम इस कार्यक्रम को और आगे बढ़ा दिया, उनके बाद किसी उचित प्रतिनिधि के अभाव में हमें ये श्रृखला स्थगित करनी पड़ी. पर कुछ दिनों पहले आवाज़ से जुड़े एक नए श्रोता मुवीन जुड़े और उनसे जब आवाज़ के संपादक सजीव ने इस शृंखला का जिक्र किया तो उन्होंने स्वयं इस कार्यक्रम को फिर से अपने श्रोताओं के लिए शुरू करने की इच्छा जतलाई. तो दोस्तों हम बेहद खुशी के साथ आपको बताना चाहेंगें कि इस रविवार से मुवीन आपके लिए फिर से लेकर

ठंडी हवा ये चाँदनी सुहानी.....और ऐसे में अगर किशोर दा सुनाएँ कोई कहानी तो क्यों न गुनगुनाये जिंदगी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 450/2010/150 'गी त अपना धुन पराई', आज हम आ पहुँचे हैं इस शृंखला की अंतिम कड़ी पर। पिछले नौ कड़ियों में आपने नौ अलग अलग संगीतकारों के एक एक गीत सुनें जिन गीतों की प्रेरणा उन्हे किसी विदेशी धुन से मिली थी। हमने उन विदेशी गीतों की भी थोड़ी चर्चा की। आज अंतिम कड़ी के लिए हमने चुना है संगीतकार किशोर कुमार को। जी हाँ, एक ज़बरदस्त गायक तो किशोर दा थे ही, एक अच्छे संगीतकार भी थे। उन्होने बहुत ज़्यादा फ़िल्मों में संगीत तो नहीं दिया, लेकिन जितने भी दिए लाजवाब दिए। उनकी धुनों से सजी 'झुमरू', 'दूर का राही' और 'दूर गगन की छाँव में' जैसे फ़िल्मों के संगीत को कौन भुला सकता है भला! तो आज हमने उनकी सन् १९६१ की फ़िल्म 'झुमरू' का एक गीत चुना है उन्ही का गाया हुआ - "ठण्डी हवा ये चांदनी सुहानी, ऐ मेरे दिल सुना कोई कहानी"। कुछ कुछ वाल्ट्स की रीदम जैसी इस गीत की धुन प्रेरित है १९५५ में बनी जुलिअस ल रोसा के "दोमानी" गीत से। "दोमानी" व्क इटालियन शब्द है जिसका अर्थ है "कल" (tomorrow)| गीत की शुरुआत तो हू-ब-ह

गोरे गोरे ओ बांके छोरे....प्रेरित धुनों पर थिरकने वाले गीतों की संख्या अधिक है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 449/2010/149 सं गीतकार सी. रामचन्द्र को क्रांतिकारी संगीतकारों की सूची में शामिल किया जाता है। ४० के दशक में जब फ़िल्म संगीत पंजाब, बंगाल और यू.पी. के लोक संगीत तथा भारतीय शास्त्रीय संगीत में ढल कर लोगों तक पहुँच रही थी, ऐसे में सी. रामचन्द्र ने पाश्चात्य संगीत को कुछ इस क़दर इंट्रोड्युस किया कि जैसे फ़िल्मी गीतों की प्रचलित धारा का रुख़ ही मोड़ दिया। इसमें कोई शक़ नहीं कि उनसे पहले ही विदेशी साज़ों का इस्तेमाल फ़िल्मी रचनाओ में शुरु हो चुका था, लेकिन उन्होने जिस तरह से विदेशी संगीत को भारतीय धुनों में ढाला, वैसे तब तक कोई और संगीतकार नहीं कर सके थे। १९४७ की फ़िल्म 'शहनाई' में "आना मेरी जान मेरी जान सन्डे के सण्डे" ने तो चारों तरफ़ तहलका ही मचा दिया था। उसके बाद १९५० की फ़िल्म 'समाधि' में वो लेकर आए "ओ गोरे गोरे ओ बांके छोरे, कभी मेरी गली आया करो"। इस गीत ने भी वही मुक़ाम हासिल कर लिया जो "सण्डे के सण्डे" ने किया था। उसके बाद १९५१ में फ़िल्म 'अलबेला' में फिर एक बार "शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के" ने

सरकती जाये है रुख से नक़ाब .. अमीर मीनाई की दिलफ़रेब सोच को आवाज़ से निखारा जगजीत सिंह ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९४ वो बेदर्दी से सर काटे 'अमीर' और मैं कहूँ उन से, हुज़ूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता। आज की महफ़िल इसी शायर के नाम है, जो मौत की माँग भी अपने अलहदा अंदाज़ में कर रहा है। इस शायर के क्या कहने जो औरों के दर्द को खुद का दर्द समझता है और परेशान हो जाता है। तभी तो उसे कहना पड़ा है कि: खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर' सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है इन दो शेरों के बाद आप समझ तो गए हीं होंगे कि मैं किन शायर कि बात कर रहा हूँ। अरे भाई, ये दोनों शेर दो अलग-अलग गज़लों के मक़ते हैं और नियमानुसार मक़ते में शायर का तखल्लुस भी शामिल होता है। तो इन दो शेरों में तखल्लुस है "अमीर"। यानि कि शायर का नाम है "अमीर" और पूरा नाम... "अमीर मीनाई"। अमीर मीनाई के बारे में बहुत कुछ तो नहीं है अंतर्जाल पर. जितना कि इनके समकालीन "दाग़ दहलवी" के बारे में है। और इसकी वज़ह जानकारों के हिसाब से यह है कि दाग़ उस जमाने के "हिन्दी और उर्दू" के सबसे बड़े शायर थे और उन्होंने हीं "हिन्दी-उर्दू" शायरी को "फ़ारस

आ अब लौट चलें.....धुन विदेशी ही सही पर पुकार एकदम देसी थी दिल से निकली हुई

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 448/2010/148 प राये धुनों को अपने अंदाज़ में ढाल कर हमारे फ़िल्मी संगीतकारों ने कैसे कैसे सुपरहिट गीत हमें दिए हैं, उसी के कुछ नमूने हम इन दिनों पेश कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'गीत अपना धुन पराई' के अंतर्गत, और साथ ही साथ उन मूल विदेशी धुनों से संबंधित थो़ड़ी बहुत जानकारियाँ भी दे रहे हैं जो इंटरनेट में गूगलिंग् के ज़रिए हमने खोज निकाला है। एक और संगीतकार जिन्होने बेशुमार विदेशी धुनें अपने गीतों में अपनाई, वो हैं सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन। आपको एक फ़ेहरिस्त यहाँ दे रहे हैं जिससे आपको अंदाज़ा हो जाएगा कि एस.जे की जोड़ी ने किन किन गीतों में यह शैली अपनाई। १. दिल उसे दो जो जाँ दे दे (अंदाज़) - 'With a little help from my friends' २. है ना बोलो बोलो (अंदाज़) - 'Papa loves mama' ३. कोई बुलाए और कोई आए (अपने हुए पराए) - 'Old Beirut' ४. ले जा ले जा (ऐन ईवनिंग् इन पैरिस) - The Shadows, "Man of Mystery" ५. जाने भी दे सनम मुझे (अराउण्ड दि वर्ल्ड) - 'I'll get you' by Beatles ६. आज की