Skip to main content

Posts

सुनो कहानी: एक गधे की वापसी - भाग 1 - अनुराग शर्मा के स्वर में

सुनो कहानी: एक गधे की वापसी - भाग 1 - कृश्न चन्दर 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में एक हिन्दी लोक कथा सात ठगों का किस्सा का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं कृश्न चन्दर की कहानी "एक गधे की वापसी" , जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 8 मिनट 56 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। यह तो कोमलांगियों की मजबूरी है कि वे सदा सुन्दर गधों पर मुग्ध होती हैं ~ पद्म भूषण कृश्न चन्दर (1914-1977) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी मैं महज़ एक गधा आवारा हूँ। ( "एक गधे की वापसी" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।) यदि आप इस पॉडकास्

एक नया अंदाज़ फिज़ा में बिखेरा "उड़न छूं" ने, जिसके माध्यम से वापसी कर रहे हैं बिश्वजीत और सुभोजित

Season 3 of new Music, Song # 11 दोस्तों, आवाज़ संगीत महोत्सव २०१० में आज का ताज़ा गीत है एक बेहद शोख, और चुलबुले अंदाज़ का, इसकी धुन कुछ ऐसी है कि हमारा दावा है कि आप एक बार सुन लेंगें तो पूरे दिन गुनगुनाते रहेंगें. इस गीत के साथ इस सत्र में लौट रहे हैं पुराने दिग्गज यानी हमारे नन्हें सुभोजित और गायक बिस्वजीत एक बार फिर, और साथ हैं हमारे चिर परिचित गीतकार विश्व दीपक तन्हा भी. जहाँ पिछले वर्ष परीक्षाओं के चलते सुभोजित संगीत में बहुत अधिक सक्रिय नहीं रह पाए वहीं बिस्वजीत ने करीब एक वर्ष तक गायन से दूर रह कर रियाज़ पर ध्यान देने का विचार बनाया था. मगर देखिये जैसे ही आवाज़ का ये नया सत्र शुरू हुआ और नए गानों की मधुरता ने उन्हें अपने फैसले पर फिर से मनन करने पर मजबूर कर दिया, अब कोई मछली को पानी से कब तक दूर रख सकता है भला. तो लीजिए, एक बार फिर सुनिए बिस्वजीत को, एक ऐसे अंदाज़ में जो अब तक उनकी तरफ़ से कभी सामने नहीं आया, और सुभो ने भी वी डी के चुलबुले शब्दों में पंजाबी बीट्स और वेस्टर्न अंदाज़ का खूब तडका लगाया है इस गीत में गीत के बोल - आते जाते काटे रास्ता क्यूँ, बड़ी जिद्दी है री तू हो

पल पल दिल के पास तुम रहती हो....कुछ ऐसे ही पास रहते है कल्याणजी आनंदजी के स्वरबद्ध गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 425/2010/125 क ल्याणजी-आनंदजी के संगीत सफ़र के विशाल सुर-भण्डार से १० मोतियाँ चुन कर उन पर केन्द्रित लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' को इन दिनों हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर चला रहे हैं। पिछले चार दिनों से हमने ६० के दशक के गानें सुनें, आइए आज हम आगे बढ़ निकलते हैं ७० के दशक में। ७० का दशक एक ऐसा दशक साबित हुआ कि जिसमें ५० और ६० के दूसरे अग्रणी संगीतकार कुछ पीछे लुढ़कते चले गए, और जिन तीन संगीतकारों के गीतों ने लोगों के दिलों पर व्यापक रूप से कब्ज़ा जमा लिया, वो संगीतकार थे राहुल देव बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और कल्याणजी-आनंदजी। इन तीनों संगीतकारों ने इस दशक में असंख्य हिट गीत दिए और अपार शोहरत हासिल की। आज हमने जिस गीत को चुना है, वह है फ़िल्म 'ब्लैकमेल' का अतिपरिचित "पल पल दिल के पास तुम रहती हो"। किशोर कुमार और कल्याणजी-आनंदजी के कम्बिनेशन के गानों का ज़िक्र हो और इस गाने की बात ना छिड़े यह असंभव है। १९७३ की फ़िल्म 'ब्लैकमेल' का यह गीत फ़िल्माया गया था, जी नहीं, धर्मेन्द्र पर नहीं, बल्कि राखी पर। राखी को अपने प्रेमी ध

फूल तुम्हें भेजा है खत में....एक बेहद संवेदनशील फिल्म का एक बेहद नर्मो नाज़ुक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 424/2010/124 क ल्याणजी-आनंदजी के संगीत की मिठास इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में घुल रही है। १९५९, १९६४ और १९६५ के बाद आज हम आ पहुँचे हैं साल १९६८ में। यह एक बेहद महत्वपूर्ण पड़ाव वाला साल है इस संगीतकार जोड़ी के करीयर का, क्योंकि इसी साल आई थी फ़िल्म 'सरस्वतीचन्द्र'। पंकज राग अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में लिखते हैं कि "चंदन सा बदन चंचल चितवन" सातवें दशक की युवा पीढ़ी का प्रेम गीत बनकर स्थापित है ही, लेकिन उससे कहीं भी कम नहीं है "फूल तुम्हे भेजा है ख़त में" का सौन्दर्य जो उस ज़माने की आहिस्ता आहिस्ता चलने वाली अपेक्षाकृत कम भाग दौड़ की ज़िंदगी के बीच पनपी रूमानी भावनाओं को बड़े ही मधुर आग्रह से प्रतिध्वनित करती है। क्या ख़ूब कहा है पंकज जी ने। लता जी और मुकेश जी की आवाज़ों में इंदीवर साहब का लिखा हुआ यह बेहद लोकप्रिय व मधुर युगल गीत आज हम लेकर आए हैं। इस फ़िल्म से जुड़े तथ्य तो हम पहले ही आपको दे चुके हैं जब हमने कड़ी नम्बर-१४ में "चंदन सा बदन" सुनवाया था। आज तो बस इसी गीत की बातें होंगी। दोस्तो, यह गीत है त

मोहब्बत तर्क की मैंने गरेबाँ सी लिया मैंने.. दिल पर पत्थर रखकर खुद को तोड़ रहे हैं साहिर और तलत

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८९ "स ना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं?" - मुमकिन है कि आपने यह पंक्ति पढी या सुनी ना हो, लेकिन इस पंक्ति के इर्द-गिर्द जो नज़्म बुनी गई थी, उससे नावाकिफ़ होने का तो कोई प्रश्न हीं नहीं उठता। यह वही नज़्म है, जिसने लोगों को गुरूदत्त की अदायगी के दर्शन करवाएँ, जिसने बर्मन दा के संगीत को अमर कर दिया, जिसने एक शायर की मजबूरियों का हवाला देकर लोगों की आँखों में आँसू तक उतरवा दिए और जिसने बड़े हीं सीधे-सपाट शब्दों में "चकला-घरों" की हक़ीकत बयान कर मुल्क की सच्चाई पर पड़े लाखों पर्दों को नेस्तनाबूत कर दिया... अभी तक अगर आपको इस नज़्म की याद न आई हो तो जरा इस पंक्ति पर गौर फरमा लें- "जिसे नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं?" पूरी की पूरी नज़्म वही है, बस एक पंक्ति बदली गई है और वो भी इसलिए क्योंकि फिल्म और साहित्य में थोड़ा फर्क होता है.. फिल्म में हमें अपनी बात खुलकर रखनी होती है। जहाँ तक मतलब का सवाल है तो "सना-ख़्वाने..." में पूरे पूरब का जिक्र है, वहीं "जिसे नाज़ है..." में अपने "हिन्दुस्तान" का बस। लेकिन इससे लफ़्ज़ो

कांकरिया मार के जगाया.....लता का चुलबुला अंदाज़ और निखरा कल्याणजी-आनंदजी के सुरों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 423/2010/123 क ल्याणजी-आनंदजी के स्वरबद्ध गीतों का सिलसिला जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' के अन्तर्गत। आज कल्याणजी-आनंदजी के संगीत का जो रंग आप महसूस करेंगे, वह रंग है लोक संगीत का, और साथ ही साथ छेड़-छाड़ का, मस्ती का, चुलबुलेपन का। यह एक बेहद यूनिक गीत है। यूनिक इसलिए कहा क्योंकि आम तौर पर हमारी फ़िल्मों में कुछ महफ़िलों में, पार्टियों में गाए जाने वाले किस्म के गीत होते हैं, कुछ लोक नृत्य के गीत होते हैं, और कुछ सड़क पर नाचती गाती टोलियों के टपोरी किस्म के नृत्य गीत होते हैं। लेकिन अगर इन तीनों विविध और एक दूसरे से बिलकुल भिन्न शैलियों को एक ही गाने में इस्तेमाल कर दिया जाए तो कैसा रहेगा? जी हाँ, कल्याणजी-आनंदजी ने यही कमाल तो कर दिखाया है आज के प्रस्तुत गीत में। फ़िल्म 'हिमालय की गोद में' का यह चुलबुला सा गीत लता मंगेशकर की आवाज़ में आज सुनिए इस महफ़िल में। माला सिंहा, जो एक रस्टिक, यानी कि गाँव की गोरी जो शहरी तौर तरीकों से बिल्कुल बेख़बर है, उसे मनोज कुमार एक शहरी पार्टी में ले जाते हैं और वहाँ उन्हे

बहुत कुछ खत्म होके भी हिमेश भाई और संगीत के दरम्यां कुछ तो बाकी है.. और इसका सबूत है "मिलेंगे मिलेंगे"

ताज़ा सुर ताल २३/२०१० सुजॊय - सभी श्रोताओं व पाठकों का स्वागत है 'ताज़ा सुर ताल' के एक और ताज़े अंक में। इस शुक्रवार वह फ़िल्म आख़िर रिलीज़ हो ही गई जिसकी लोग बड़ी बेसबरी से इंतज़ार कर रहे थे। 'रावण'। अभी दो दिन पहले एक न्यूज़ चैनल पर इस फ़िल्म से संबंधित 'ब्रेकिंग्‍ न्यूज़' का शीर्षक था "मिया पर बीवी हावी"। ग़लत नहीं कहा था उस न्यूज़ चैनल ने। हालाँकि अभिषेक ने अच्छा काम किया है, लेकिन ऐश की अदाकारी की तारीफ़ करनी ही पड़ेगी। देखते हैं फ़िल्म कैसा व्यापार करता है इस पूरे हफ़्ते में। विश्व दीपक - मैने रावण देखी और मुझे तो बेहद पसंद आई। मैने ना सिर्फ़ इस फिल्म का हिन्दी संस्करण देखा बल्कि इसका तमिल संस्करण (रावणन) भी देखा.. और दुगना आनंद हासिल किया । चलिए 'रावण' से आगे बढ़ते हैं। आज हम इस स्तंभ में जिस फ़िल्म के गानें सुनने जा रहे हैं, वह कई दृष्टि से अनोखा है। पहली बात तो यह कि इस फ़िल्म की मेकिंग बहुत पहले से ही शुरु हो गई थी जब शाहीद और करीना का ब्रेक-अप नहीं हुआ था। तभी तो यह जोड़ी नज़र आएगी इस फ़िल्म में। शायद यही बात फ़िल्म की सफलता का कारण