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मन के बंद कमरों को लौट चलने की सलाह देता एक रॉक गीत कृष्ण राजकुमार की आवाज़ में

Season 3 of new Music, Song # 04 दो स्तों, आवाज़ संगीत महोत्सव, सत्र ३ के चौथे गीत की है आज बारी. बतौर संगीतकार- गीतकार जोड़ी में ऋषि एस और सजीव सारथी ने गुजरे पिछले दो सत्रों में सुबह की ताजगी , मैं नदी , जीत के गीत , और वन वर्ल्ड , जैसे बेहद चर्चित और लोकप्रिय गीत आपकी नज़र किये हैं. इस सत्र में ये पहली बार आज साथ आ रहे हैं संगीत का एक नया (कम से कम युग्म के लिए) जॉनर लेकर, जी हाँ रॉक संगीत है आज का मीनू, रॉक संगीत में मुख्यता लीड और बेस गिटार का इस्तेमाल होता है जिसके साथ ताल के लिए ड्रम का प्रयोग होता है, अमूमन इस तरह के गीतों में एक लीड गायक/गायिका को सहयोग देने को एक या अधिक बैक अप आवाजें भी होती हैं. रॉक हार्ड और सोफ्ट हो सकता है. सोफ्ट रॉक अक्सर एक खास थीम को लेकर रचा जाता है. फिल्म "रॉक ऑन" के गीत इसके उदाहरण हैं. इसी तरह के एक थीम को लेकर रचा गया आज का ये सोफ्ट रॉक गीत है कृष्ण राज कुमार की आवाज़ में, जिन्हें ऋषि ने खुद अपनी आवाज़ में बैक अप दिया है. कृष्ण राज कुमार बतौर संगीत/गायक युग्म में पधारे थे " राहतें सारी " गीत के साथ. काव्यनाद के लिए आयोजित प्रति

पंचम, बख्शी साहब और किशोर दा का हो मेल तो गीत रचना हो जैसे खेल

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ०२ 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' रिवाइवल की दूसरी कड़ी में आज सुनिए फ़िल्म 'शालिमार' का गीत "हम बेवफ़ा हरग़िज़ ना थे, पर हम वफ़ा कर ना सके"। आनंद बक्शी का लिखा और राहुल देव बर्मन का स्वरब्द्ध किया यह गीत है जिसे किशोर कुमार और साथियों ने गाया था। क्योंकि यह गीत बक्शी साहब, पंचम दा और किशोर दा की मशहूर तिकड़ी का है, तो आज हम दोहराव कर रहे हैं उन बातों का जिनसे आप यह जान पाएँगे कि यह तिकड़ी बनी किस तरह थी। १९६९ में जब शक्ति सामंत ने एक बड़ी ही नई क़िस्म की फ़िल्म 'आराधना' बनाने की सोची तो उसमें उन्होने हर पक्ष के लिए नए नए प्रतिभाओं को लेना चाहा। बतौर नायक राजेश खन्ना और बतौर नायिका शर्मीला टैगोर को चुना गया। अब हुआ युं कि शुरुआत में यह तय हुआ था कि रफ़ी साहब बनेंगे राजेश खन्ना की आवाज़। लेकिन उन दिनों रफ़ी साहब एक लम्बी विदेश यात्रा पर गए हुए थे। इसलिए शक्तिदा ने किशोर कुमार का नाम सुझाया। शुरु शुरु में सचिनदा बतौर गीतकार शैलेन्द्र को लेना चाह रहे थे, लेकिन यहाँ भी शक्तिदा ने सुझाव दिया कि क्यों ना सचिनदा की जोड़ी उभरते गीतकार आनंद बक्शी क

खय्याम का संगीत था कुछ अलग अंदाज़ का, जिसमें शायरी और बोलों का भी होता था खास स्थान

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # 01 न मस्ते दोस्तों! जैसा कि कल की कड़ी में हमने आपको यह आभास दिया था कि आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर होगा कुछ अलग हट के, तो अब वह घड़ी आ गई है कि आपको इस बदलाव के बारे में बताया जाए। आज से लेकर अगले ४५ दिनों तक आपके लिए होगा 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल'। इसके तहत हम कुल ४५ गीत आपको सुनवाएँगे। लेकिन जो ख़ास बात है वह यह कि हम इन गीतों के ऒरिजिनल वर्ज़न नहीं सुनवाएँगे, बल्कि वो वर्ज़न जिन्हे 'हिंद युग्म' के आप ही के कुछ जाने पहचाने दोस्तों ने गाए हैं। यानी कि गानें वही पर अंदाज़ नए। दूसरे शब्दो में उन गीतों का रिवाइवल। हम आपसे बस यही निवेदन करना चाहेंगे कि आप इन गीतों का इनके ऒरिजिनल वर्ज़न के साथ तुलना ना करें। यह बस एक छोटी सी कोशिश है कि उस गुज़रे ज़माने के महान कलाकारों की कला को श्रद्धांजली अर्पित करने की। इन गीतों के साथ साथ आलेख में जो अतिरिक्त जानकारी हम आपको देंगे, उनमें से हो सकता है कि कुछ बातें हमने पहले भी किसी ना किसी गीत के साथ बताए होंगे, और कुछ जानकारी नयी भी हो सकते हैं। यानी एक तरफ़ गीतों का रिवाइवल, और दूसरी तरफ़ जानकारियों

ज़ुल्मतकदे में मेरे.....ग़ालिब को अंतिम विदाई देने के लिए हमने विशेष तौर पर आमंत्रित किया है जनाब जगजीत सिंह जी को

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८० आ ज से कुछ दो या ढाई महीने पहले हमने ग़ालिब पर इस श्रृंखला की शुरूआत की थी और हमें यह कहते हुए बहुत हीं खुशी हो रही है कि हमने सफ़लतापूर्वक इस सफ़र को पूरा किया है क्योंकि आज इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी है। इस दौरान हमने जहाँ एक ओर ग़ालिब के मस्तमौला अंदाज़ का लुत्फ़ उठाया वहीं दूसरी ओर उनके दु:खों और गमों की भी चर्चा की। ग़ालिब एक ऐसी शख्सियत हैं जिन्हें महज दस कड़ियों में नहीं समेटा जा सकता, फिर भी हमने पूरी कोशिश की कि उनकी ज़िंदगी का कोई भी लम्हा अनछुआ न रह जाए। बस यही ध्यान रखकर हमने ग़ालिब को जानने के लिए उनका सहारा लिया जिन्होंने किसी विश्वविद्यालय में तो नहीं लेकिन दिल और साहित्य के पाठ्यक्रम में ग़ालिब पर पी०एच०डी० जरूर हासिल की है। हमें उम्मीद है कि आप हमारा इशारा समझ गए होंगे। जी हाँ, हम गुलज़ार साहब की हीं बात कर रहे हैं। तो अगर आपने ग़ालिब पर चल रही इस श्रृंखला को ध्यान से पढा है तो आपने इस बात पर गौर ज़रूर किया होगा कि ग़ालिब पर आधारित पहली कड़ी हमने गुलज़ार साहब के शब्दों में हीं तैयार की थी, फिर तीसरी या चौथी कड़ी को भी गुलज़ार साहब ने संभाला था..... अब

मैंने रंग ली आज चुनरिया....मदन साहब के संगीत से शुरू हुई ओल्ड इस गोल्ड की परंपरा में एक विराम उन्हीं की एक और संगीत रचना पर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 410/2010/110 'प संद अपनी अपनी' शृंखला की आज है अंतिम कड़ी। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर युं तो इससे पहले भी पहेली प्रतियोगिता के विजेताओं को हमने अपनी फ़रमाइशी गानें सुनने और सुनवाने का मौका दिया है, लेकिन इस तरह से बिना किसी शर्त या प्रतियोगिता के फ़रमाइशी गीत सुनवाने का सिलसिला पहली बार हमने आयोजित किया है। आज इस पहले आयोजन की आख़िरी कड़ी है और इसमें हम सुनवा रहे हैं रश्मि प्रभा जी की फ़रमाइश पर फ़िल्म 'दुल्हन एक रात की' का लता मंगेशकर का गाया एक बड़ा ही सुंदर गीत "मैंने रंग ली आज चुनरिया सजना तेरे रंग में"। राजा मेहंदी अली ख़ान का गीत और मदन मोहन का संगीत। हमें ख़याल आया कि एक लम्बे समय से हमने 'ओल इज़ गोल्ड' पर मदन मोहन द्वारा स्वरबद्ध गीत नहीं सुनवाया है। तो लीजिए मदन जी के धुनों के शैदाईयों के लिए पेश है आज का यह गीत। युं तो चुनरिया रंगने की बात काफ़ी सारे गीतों में होती रही है, लेकिन इस गीत में जो मिठास है, जो सुरीलापन है, उसकी बात ही कुछ और है। इस फ़िल्म में रफ़ी साहब का गाया "एक हसीन शाम को दिल मेरा खो गया" गीत

मैं पल दो पल का शायर हूँ...हर एक पल के शायर साहिर हैं मनु बेतक्ल्लुस जी की खास पसंद

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 409/2010/109 आ पकी फ़रमाइशी गीतों के ध्वनि तरंगों पे सवार हो कर 'पसंद अपनी अपनी' शृंखला की नौवीं कड़ी में हम आज आ पहुँचे हैं। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है मनु बेतख़ल्लुस जी की पसंद पर एक गीत। अपनी इस पसंद के बारे में उन्होने हमें कुछ इस तरह से लिख भेजा है। "गीत तो जाने कितने ही हैं..जो बेहद ख़ास हैं...और ज़ाहिर है..हर ख़ास गीत से कुछ ना कुछ दिली अहसास गहरे तक जुड़े हुए हैं... क्यूंकि आवाज़ को हम काफी समय से पढ़ते/सुनते आ रहे हैं...और आज अपने उन खास गीतों कि फेहरिश्त जब दिमाग में आ रही है..तो ये भी याद आ रहा है के ये गीत तो पहले ही बजाया जा चुका है... हरे कांच की चूड़ियाँ...तकदीर का फ़साना....जीवन से भरी तेरी आँखें... और ना जाने कितने ही.....जो मन से गहरे तक जुड़े हैं... ऐसे में एक और गीत याद आ रहा है...हो सकता है ये भी बजाया जा चुका हो पहले...मगर दिल कर रहा है इसी गीत को फिर से सुनने का.... मुकेश कि आवाज़ में फिल्म कभी कभी कि नज़्म.... आमतौर पर इसके एक ही पहलू पर ज्यादा गौर किया गया है..में पल दो पल का शायर हूँ.... इसी नज़्म का एक और पहलू है..जो उतना

मैं कहीं कवि न बन जाऊं....ये गीत पसंद है "महफ़िल-ए-गज़ल" प्रस्तुतकर्ता विश्व दीपक तन्हा को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 408/2010/108 आ ज 'पसंद अपनी अपनी' में हम जिन शख़्स के पसंद का गीत सुनने जा रहे हैं, वह इसी हिंद युग्म से जुड़े हुए हैं। आप सभी के अतिपरिचित विश्व दीपक 'तन्हा' जी। 'महफ़िल-ए-ग़ज़ल' शृंखला के लिए वो जो मेहनत करते हैं, वो मेहनत साफ़ झलकती है उनके आलेखों में, ग़ज़लों के चुनाव में। क्योंकि वो ख़ुद भी एक कवि हैं, शायद यही वजह है कि इन्हे यह गीत बहुत पसंद है - "मैं कहीं कवि ना बन जाऊँ तेरे प्यार में ऐ कविता"। रफ़ी साहब की आवाज़ में यह है फ़िल्म 'प्यार ही प्यार' का गीत, हसरत जयपुरी के बोल और शंकर जयकिशन का संगीत। दोस्तों, यह वह दौर था जब शैलेन्द्र जी हमसे बिछड़ चुके थे और केवल हसरत साहब ही शंकर जयकिशन के लिए गानें लिख रहे थे। १९६८-६९ से १९७१-७२ के बीच हसरत साहब, शंकर जयकिशन और रफ़ी साहब ने एक साथ कई फ़िल्मों में काम किया जैसे कि 'यकीन', 'पगला कहीं का', 'प्यार ही प्यार', 'दुनिया', 'तुमसे अच्छा कौन है', 'सच्चाई', 'शिकार', 'धरती', आदि। पहले शैलेन्द्र चले गए, फिर १९७२ म