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कब से हूँ क्या बताऊँ जहां-ए-ख़राब में.. चचा ग़ालिब की हालत बयां कर रहे हैं मेहदी हसन और तरन्नुम नाज़

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७५ यू सुफ़ मिर्जा, मेरा हाल सिवाय मेरे ख़ुदा और ख़ुदाबंद के कोई नहीं जानता। आदमी कसरत-ए-ग़म से सौदाई हो जाते हैं, अक़्‍ल जाती रहती है। अगर इस हजूम-ए-ग़म में मेरी कुव्वत मुतफ़क्रा में फ़र्क आ गया हो तो क्या अजब है? बल्कि इसका बावर न करना ग़ज़ब है। पूछो कि ग़म क्या है? ग़म-ए-मर्ग, ग़म-ए-‍फ़िराक़, ग़म-ए-रिज़्क, ग़म-ए-इज्ज़त? ग़म-ए-मर्ग में क़िलआ़ नामुबारक से क़ताअ़ नज़र करके, अहल-ए-शहर को गिनता हूँ। ख़ुदा ग़म-ए-फ़िराक को जीता रखे। काश, यह होता कि जहाँ होते, वहाँ खुश होते। घर उनके बेचिराग़, वह खुद आवारा। कहने को हर कोई ऐसा कह सकता है़, मगर मैं अ़ली को गवाह करके कहता हूँ कि उन अमावत के ग़म में और ज़ंदों के ‍फ़िराक़ में आ़लम मेरी नज़र में तीर-ओ-तार है। हक़ीक़ी मेरा एक भाई दीवाना मर गया। उसकी बेटी, उसके चार बच्चे, उनकी माँ, यानी मेरी भावज जयपुर में पड़े हुए हैं। इन तीन बरस में एक रुपया उनको नहीं भेजा। भतीजी क्या कहती होगी कि मेरा भी कोई चच्चा है। यहाँ अग़निया और उमरा के अज़दवाज व औलाद भीख माँगते फिरें और मैं देखूँ। इस मुसीबत की ताब लाने को जिगर चाहिए। अब ख़ास दुख रोता हूँ। एक

आपकी याद आती रही...छाया गांगुली की आवाज़ और जयदेव का संगीत गूंजता रहा रात भर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 375/2010/75 स मानांतर सिनेमा की बात चल रही हो तो ऐसे में फ़िल्मकार मुज़फ़्फ़र अली का ज़िक्र करना बहुत ज़रूरी हो जाता है। मुज़फ़्फ़र अली, जिन्होने 'गमन', 'उमरावजान', 'अंजुमन' जैसी फ़िल्मों का निर्माण व निर्देशन किया, पटकथा और संवाद में भी मह्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके अलावा समानांतर सिनेमा के दो और प्रमुख स्तंभ जिनके नाम मुझे इस वक़्त याद आ रहे हैं, वो हैं गोविंद निहलानी और श्याम बेनेगल। वैसे आज हम ज़िक्र मुज़फ़्फ़र अली साहब का ही कर रहे हैं, क्योंकि आज जिस गीत को हमने चुना है वह है फ़िल्म 'गमन' का। १९७८ की इस फ़िल्म को लोगों ने ख़ूब सराहा था। अपनी ज़िंदगी को सुधारने संवारने के लिए लखनऊ निवासी ग़ुलाम हुसैन (फ़ारुख़ शेख़) बम्बई आकर काम करने का निश्चय कर लेता है, अपनी बीमार माँ और पत्नी (स्मिता पाटिल) को पीछे लखनऊ में ही छोड़ कर। बम्बई आने के बाद उसका करीबी दोस्त लल्लुलाल तिवारी (जलाल आग़ा) उसके टैक्सी धोने के काम पर लगा देता है। काफ़ी जद्दोजहद करने के बाद भी ग़ुलाम इतने पैसे नहीं जमा कर पाता जिससे कि वह लखनऊ एक बार वापस जा सके। उध

कुछ कुछ सबको मिलता है- गुनगुनाते लम्हे का नया एपीसोड

आज है माह का तीसरा मंगलवार और मौका है गुनगुनाते लम्हे का। इस कार्यक्रम के माध्यम से हम किसी एक कहानी को गीतों की चाश्‍नी में डुबोते हैं ताकि आप उसे पूरा रस लेकर सुन सकें। इस बार की कहानी थोड़ी लम्बी है। लेकिन कहानी की लेखिका दीपाली आब का मानना है कि आप इसे सुनकर बिलकुल बोर नहीं होगें। तो चलिए आपके साथ हम भी आनंद लेते हैं इस कहानी का- इस बार की कहानी में आवाज़/एंकरिंग/कहानी तकनीक दीपाली आब शैलेश भारतवासी आप भी चाहें तो भेज सकते हैं कहानी लिखकर गीतों के साथ, जिसे देंगी रश्मि प्रभा अपनी आवाज़! जिस कहानी पर मिलेगी शाबाशी (टिप्पणी) सबसे ज्यादा उनको मिलेगा पुरस्कार हर माह के अंत में 500 / नगद राशि। हाँ यदि आप चाहें खुद अपनी आवाज़ में कहानी सुनाना, तो भी आपका स्वागत है.... 1) कहानी मौलिक हो। 2) कहानी के साथ अपना फोटो भी ईमेल करें। 3) कहानी के शब्द और गीत जोड़कर समय 35-40 मिनट से अधिक न हो, गीतों की संख्या 7 से अधिक न हो।। 4) आप गीतों की सूची और साथ में उनका mp3 भी भेजें। 5) ऊपर्युक्त सामग्री podcast.hindyugm@gmail.com पर ईमेल करें।

कुछ नया नहीं है "सदियाँ" के संगीत में, अदनान सामी और समीर ने किया निराश

ताज़ा सुर ताल ११/२०१० सजीव - सुजॊय, तुम्हे याद होगा, २००५ में एक फ़िल्म आई थी 'लकी', जिसमें सलमान ख़ान थे। याद है ना उस फ़िल्म का संगीत? सुजॊय - बिल्कुल याद है, उसमें अदनान सामी का संगीत था और उसके गानें ख़ूब चले थे। लेकिन आज अचानक उस फ़िल्म का ज़िक्र क्यों? सजीव - क्योंकि आज हम 'ताज़ा सुर ताल' में जिस फ़िल्म के गीतों की चर्चा करने जा रहे हैं, उस फ़िल्म का संगीत ही ना केवल अदनान सामी ने तैयार किया है, बल्कि गीतों के रीदम और धुनें भी काफ़ी हद तक 'लकी' के गीतों से मिलती जुलती है। आज 'ताज़ा सुर ताल' में ज़िक्र आने वाली फ़िल्म 'सदियाँ' के संगीत की। सुजॊय - यह बात तो सही है कि अदनान सामी का रीदम उनके गीतों की पहचान है। जैसे हम गीत सुन कर बता सकते हैं कि गीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का है या कल्याणजी आनंदजी का या फिर राहुल देव बर्मन का, ठीक वैसे ही अदनान साहब का जो बेसिक रीदम है, वह झट से पहचाना जा सकता है। हम किस रीदम की तरफ़ इशारा कर रहे हैं, हमारे श्रोता इस फ़िल्म के गीतों को सुनते हुए ज़रूर महसूस कर लेंगे। सजीव - इससे पहले कि गीतों का सिलसिला शुर

सांझ ढले गगन तले....एक उदास अकेली शाम की पीड़ा वसंत देसाई के शब्दों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 374/2010/74 अ स्सी के दशक के फ़िल्मी गीतों के ज़िक्र से कुछ लोग अपना नाक सिकुड़ लेते हैं। यह सच है कि ८० के दशक में फ़िल्म संगीत के स्तर में काफ़ी गिरावट आ गई थी, लेकिन कई अच्छे गीत भी बने थे। पूरे के पूरे दशक को बदनाम करने से इन अच्छे गीतों के साथ नाइंसाफ़ी वाली बात हो जाएगी। और किसी भी गीत के स्तर को उसके बनने वाले समय से जोड़ा नहीं जाना चाहिए। जो चीज़ वाक़ई अच्छी है, हमें उसके बनने वाले समय से क्या! और दोस्तों, ८० का दशक एक ऐसा भी दशक रहा जिसमें सब से ज़्यादा आर्ट फ़िल्में बनीं। सिनेमा के इस विधा को हम पैरलेल सिनेमा या आर्ट फ़िल्मों के नाम से जानते हैं। युं तो कलात्मक फ़िल्मों में बहुत ज़्यादा गीत संगीत की गुंजाइश नहीं होती है, लेकिन किसी किसी फ़िल्म के लिए कुछ गानें भी बने हैं। आर्ट फ़िल्मों में संगीत देने वाले संगीतकारों में अजीत वर्मन और वनराज भाटिया का नाम सब से पहले ज़हन में आता है। लेकिन आज हम एक ऐसी फ़िल्म का गीत सुनने जा रहे हैं जिसके संगीतकार हैं लक्ष्मीकांत प्यारेलाल। यह फ़िल्म है 'उत्सव', जो बनी थी सन् १९८४ में। वैसे इस फ़िल्म को पूरी तरह

तुम्हें हो न हो मुझको तो इतना यकीं है....रुना लैला की आवाज़ में गुलज़ार -जयदेव का रचा एक चुलबुला गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 373/2010/73 '१० गीत समानांतर सिनेमा के' लघु शृंखला के लिए आज हमने जिस गीत का चुनाव किया है, वह केवल फ़िल्म की दृष्टि से ही लीग से बाहर नहीं है, बल्कि इस गीत को जिस गायिका ने गाया है, वो भी हिंदी फ़िल्मी गीतों में बहुत कम सुनाई दी हैं। आज ज़िक्र गायिका रुना लैला की, और रुना जी की याद आते ही सब से पहले ज़हन में जो चुनिंदा गीत आ जाते हैं वे हैं "फुलोरी बिना चटनी कैसे बनी", "मेरा बाबू छैल छबीला मैं तो नाचूँगी", "दे दे प्यार दे", "दो दीवानें शहर में" और "तुम्हे हो ना हो मुझको तो इतना यक़ीं है"। जी हाँ, यही आख़िरी गीत आज हम सुनने ज रहे हैं। १९७७ की फ़िल्म 'घरोंदा' का यह गीत है। ७० के दशक से इस तरह की 'पैरलेल सिनेमा' या समानांतर सिनेमा मज़बूती पकड़ रही थी, जिनमें आम जनता के जीवन से जुड़ी सामाजिक मुद्दों को उठाया जाने लगा। समाज की सच्चाइयों पर से पर्दा उठाया जाने लगा। 'घरोंदा' एक ऐसी ही हक़ीक़त दर्शाने वाली फ़िल्म थी एक जोड़े की जो बम्बई में अपना फ़्लैट ख़रीदने के सपने देखा करते हैं। लेक

काव्यनाद की AIR FM Rainbow पर घंटे भर हुई चर्चा

होली के अवसर पर एआईआर एफ रेन्बो पर पूरा 1 घंटा काव्यनाद की चर्चा हुई। सजीव सारथी की लाइव बातचीत और इन्हीं के पसंद के गाने, साथ में काव्यनाद का एक गीत भी बजाया गया जिसे DTH और FM रेडियो के माध्यम से पूरे हिन्दुस्तान ने सुना। यह काव्यनाद की सफलता ही कही जायेगी कि इसे दुनिया भर में एक विशेष तरह का प्रयास माना जा रहा है। AIR FM Rainbow के कलाकार कैसे-कैसे कार्यक्रम में सजीव से इसी विषय पर बातचीत की गई। इससे पहले भी AIR FM Rainbow पर निखिल आनंद गिरि और सजीव सारथी का इंटरव्यू प्रसारित हो चुका है। 'पहला सुर' के विमोचन के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के कम्यूनिटी रेडियो DU-FM पर सजीव सारथी से प्रदीप शर्मा की लम्बी बातचीत प्रसारित हुई थी। लेकिन बहुत कम मौकों पर हम इस तरह के प्रसारणों को रिकॉर्ड कर पाते हैं, लेकिन इस बार विनीत भाई ने इसे रिकॉर्ड कर दिया हम आपको सुनवा पा रहे हैं। ग़ौरतलब है कि 'काव्यनाद' में प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी, दिनकर और गुप्त की प्रतिनिधि कविताओं को संगीतबद्ध करके संकलित किया गया है, जिसका विमोचन 1 फरवरी 2010 को ‍ 19वें विश्व पुस्तक मेला में अशोक बा