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देख ली तेरी खुदाई...न्याय शर्मा, जयदेव और तलत ने रचा निराशा का एक संसार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 358/2010/58 'द स महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़', इस शृंखला की आज है आठवीं कड़ी, और पिछले सात ग़ज़लों की तरह आज की ग़ज़ल भी ग़मज़दा ही है। १९६३ की फ़िल्म 'किनारे किनारे' तो फ़िल्म की हैसियत से तो नहीं चली थी, लेकिन इस फ़िल्म के गीत संगीत ने लोगों के दिलों में अच्छी ख़ासी जगह ज़रूर बनाई, जो जगह आज भी बरक़रार है। न्याय शर्मा के लिखे गीत और ग़ज़लें थीं, तो जयदेव का संगीत था। मन्ना डे और मुकेश के साथ साथ इस फ़िल्म में तलत महमूद साहब ने भी एक ऐसी ग़ज़ल गाई जो उनके करीयर की एक बेहद लोकप्रिय और कामयाब ग़ज़ल साबित हुई। याद है ना आपको "देख ली तेरी खुदाई बस मेरा दिल भर गया"? आज इसी ग़ज़ल को यहाँ सुनिए और हमें यक़ीन है कि एक लम्बे समय से आपने इस ग़ज़ल को नहीं सुना होगा। वैसे हमने इस फ़िल्म से मुकेश की आवाज़ में " जब ग़म-ए-इश्क़ सताता है तो हँस लेता हूँ " ग़ज़ल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में सुनवा चुके हैं और इस फ़िल्म से संबंधित जानकारी भी दे चुके हैं और न्याय शर्मा से जुड़ी कुछ बातें भी आपके साथ बाँटा हैं। आज करते हैं तलत महमूद साहब की

सुनो कहानी: हमारा मुल्क - इब्ने इंशा

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में असगर वज़ाहत की एक कहानी " आग " का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं इब्ने इंशा की लघुकथा " हमारा मुल्क ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "हमारा मुल्क" का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 19 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट नवभारत टाइम्स पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का। ~ इब्ने इंशा (1927-1978) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी नहीं, इसमें पाकिस्तानी कौम नहीं रहती। ( इब्ने इंशा की "हमारा मुल्क" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।) यदि

जब छाए कहीं सावन की घटा....याद आते हैं तलत साहब और भी ज्यादा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 357/2010/57 द र्द भरे गीतों के हमदर्द तलत महमूद की मख़मली आवाज़ और कोमल स्वभाव से यही निचोड़ निकलता है कि फूल से भी चोट खाने वाला नाज़ुक दिल था उनका। और वैसी ही उनके गीत जो आज भी हमें सुकून देते हैं, हमारे दर्द के हमदर्द बनते हैं। तलत साहब का रहन सहन, उनका स्वभाव, उनके गीतों की ही तरह संजीदा और उनके दिल वैसा ही नाज़ुक था, बिल्कुल उनके नग़मों की तरह; सॊफ़्ट स्पोकेन नेचर वाली तलत साहब के अमर, लाजवाब गीतों और ग़ज़लों को आज भी चाहते हैं लोग। और यही वजह है कि इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हमने आयोजित की है उनकी गाई हुई ग़ज़लों पर आधारित एक ख़ास शृंखला 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। आज हम जिस ग़ज़ल को सुनवाने जा रहे हैं वह है सन् १९६० की एक फ़िल्म का। दोस्तों, ५० का दशक तलत महमूद का दशक था। या युं कहिए कि ५० के दशक मे तलत साहब सब से ज़्यादा सक्रीय भी रहे और सब से ज़्यादा उनके कामयाब गानें इस दशक में बनें। ६० के दशक के आते आते फ़िल्म संगीत में जो बदलाव आ रहे थे, गीतों से और फ़िल्मों से मासूमियत जिस तरह से कम होती जा रही थी, ऐसे में तलत साहब का क

हर शाम शाम-ए-ग़म है, हर रात है अँधेरी...शेवन रिज़वी का दर्द और तलत का अंदाज़े बयां

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 356/2010/56 'द स महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़' की आज की कड़ी में फिर एक बार शायर शेवन रिज़्वी का क़लाम पेश-ए-ख़िदमत है। दोस्तों, तलत महमूद ने "शाम-ए-ग़म" पर बहुत सारे गीत गाए हैं। दो जो सब से ज़्यादा मशहूर हुए, वो हैं "शाम-ए-ग़म की क़सम आज ग़मगीं हैं हम, आ भी जा" और "फिर वही शाम, वही ग़म, वही तन्हाई है, दिल को समझाने तेरी याद चली आई है"। हमने इन दो गीतों का ज़िक्र यहाँ इसलिए किया क्योंकि आज जिस ग़ज़ल की बारी है इस महफ़िल में, वह भी 'शाम-ए-ग़म' से ही जुड़ा हुआ है। जैसा कि हमने बताया शेवन रिज़्वी की लिखी हुई ग़ज़ल, तलत साहब की आवाज़ और संगीत है हाफ़िज़ ख़ान का। जी हाँ, वही हाफ़िज़ ख़ान, जो ख़ान मस्ताना के नाम से गाने गाया करते थे, ठीक वैसे ही जैसे सी. रामचन्द्र चितलकर के नाम से। ख़ैर, यह ग़ज़ल है फ़िल्म 'मेरा सलाम' का, जो बनी थी सन् १९५७ में। इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे भारत भूषण और बीना राय। तलत साहब ने इस फ़िल्म में आज की इस ग़ज़ल के अलावा एक और मशहूर ग़ज़ल गाई थी "सलाम तुझको ऐ दुनिया अब आख़िरी है

'काव्यनाद' और 'सुनो कहानी' की बम्पर सफलता

हिन्द-युग्म ने 19वें विश्व पुस्तक मेले (जो 30 जनवरी से 7 फरवरी 2010 के दरम्यान प्रगति मैदान, नई दिल्ली में आयोजित हुआ) में बहुत-सी गतिविधियों के अलावा दो नायाब उत्पादों का भी प्रदर्शन और विक्रय किया। वे थे प्रेमचंद की 15 कहानियों का ऑडियो एल्बम ‘सुनो कहानी’ और जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, रामधारी सिंह दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त की प्रतिनिधि कविताओं के संगीतबद्ध स्वरूप का एल्बम ‘काव्यनाद’ । ये दोनों एल्बम विश्व पुस्तक मेला में सर्वाधिक बिकने वाले उत्पादों में से थे। दोनों एल्बमों की 500 से भी अधिक प्रतियों को साहित्य प्रेमियों ने खरीदा। इस एल्बम के ज़ारी किये जाने से पहले हिन्द-युग्म के संचालकों को भी इसकी इस लोकप्रियता और सफलता का अंदाज़ा नहीं था। 1 फरवरी 2010 को प्रगति मैदान के सभागार में इन दोनों एल्बमों के विमोचन का भव्य समारोह भी आयोजित किया गया जिसमें वरिष्ठ कवि अशोक बाजपेयी , प्रसिद्ध कथाकार विभूति नारायण राय और संगीत-विशेषज्ञ डॉ॰ मुकेश गर्ग ने भाग लिया। ‘काव्यनाद’ और ‘सुनो कहानी’ कहानी की इस सफलता के बाद ऑल इंडिया रेडिय

तेरा ख़याल दिल को सताए तो क्या करें...तलत साहब को उनकी जयंती पर ढेरों सलाम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 355/2010/55 आ ज २४ फ़रवरी है, फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध पार्श्व गायक तलत महमूद साहब का जनमदिवस। उन्ही को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ख़ास पेशकर इन दिनों आप सुन रहे हैं 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। दोस्तों, इस शृंखला में हमने दस ऐसे लाजवाब ग़ज़लों को चुना है जिन्हे दस अलग अलग शायर-संगीतकार जोड़ियों ने रचे हैं। अब तक हमने साहिर - सचिन, मजरूह - जमाल सेन, नक्श ल्यायलपुरी - स्नेहल, और शेवन रिज़्वी - धनीराम/ख़य्याम की रचनाएँ सुनवाए हैं। आज एक और नायाब जोड़ी की ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है। यह जोड़ी है प्रेम धवन और पंडित गोबिन्दराम की। लेकिन आज की ग़ज़ल का ज़िक्र अभी थोड़ी देर में हम करेंगे, उससे पहले आपको हम बताना चाहेंगे कि किस तरह से तलत महमूद साहब ने अपना पहला फ़िल्मी गीत रिकार्ड करवाया था। तलत महमूद जब बम्बई में जमने लगे थे तब एक अफ़वाह फैल गई कि वो गाते वक़्त नर्वस हो जाते हैं। उनके गले की लरजिश को नर्वसनेस का नाम दिया गया। इससे उनके करीयर पर विपरीत असर हुआ। तब संगीतकार अनिल बिस्वास ने यह बताया कि उनके गले की यह कम्पन ही उनकी आवाज़ की खासियत है

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है.. ग़ालिब के दिल से पूछ रही हैं शाहिदा परवीन

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७२ पू छते हैं वो कि "ग़ालिब" कौन है, कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या अब जबकि ग़ालिब खुद हीं इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं कि ग़ालिब को जानना और समझना इतना आसान नहीं तभी तो वो कहते हैं कि "हम क्या बताएँ कि ग़ालिब कौन है", तो फिर हमारी इतनी समझ कहाँ कि ग़ालिब को महफ़िल-ए-गज़ल में समेट सकें.. फिर भी हमारी कोशिश यही रहेगी कि इन दस कड़ियों में हम ग़ालिब और ग़ालिब की शायरी को एक हद तक जान पाएँ। पिछली कड़ी में हमने ग़ालिब को जानने की शुरूआत कर दी थी। आज हम उसी क्रम को आगे बढाते हुए ग़ालिब से जुड़े कुछ अनछुए किस्सों और ग़ालिब पर मीर तक़ी मीर के प्रभाव की चर्चा करेंगे। तो चलिए पहले मीर से हीं रूबरू हो लेते हैं। सौजन्य: कविता-कोष मोहम्मद मीर उर्फ मीर तकी "मीर" (१७२३ - १८१०) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। मीर का जन्म आगरा मे हुआ था। उनका बचपन अपने पिता की देख रेख मे बीता। पिता के मरणोपरांत ११ की वय मे वो आगरा छोड़ कर दिल्ली आ गये। दिल्ली आ कर उन्होने अपनी पढाई पूरी की और शाही शायर बन गये। अहमद शाह अब्दाली के दिल्ली पर हमले के बाद वह अशफ-उद-दुलाह