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मार कटारी मर जाना ये अखियाँ किसी से मिलाना न....अमीरबाई कर्नाटकी की आवाज़ में एक अनूठा गाना

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 348/2010/48 १९४७ का साल भारत के इतिहास का शायद सब से महत्वपूर्ण साल रहा होगा। इस साल के महत्व से हम सभी वाकिफ हैं। १५ अगस्त १९४७ को इस देश ने पराधीनता की सारी ज़ंजीरों को तोड़ कर एक स्वाधीन वातावरण में सांस लेना शुरु किया था। एक नए भारत की शुरुआत हुई थी इस साल। हालाँकि आज़ादी की ख़ुशी १५ अगस्त के दिन आई थी, लेकिन इस साल की शुरुआत एक बेहद दुखद घटना से हुई थी। और यह दुखद घटना थी हिंदी सिनेमा के पहले सिंगिंग् सुपरस्टार कुंदन लाल सहगल का निधन। १८ जनवरी १९४७ को वो चल बसे और एक पूरा का पूरा युग उनके साथ समाप्त हो गया। उनके अकाल निधन से फ़िल्म संगीत को जो क्षति पहुँची, उसकी भरपाई हो सकता है कि अगली पीढ़ी ने कर दी हो, लेकिन दूसरा सहगल फिर कभी नहीं जन्मा। एक तरफ़ सहगल का सितारा डूब गया, तो दूसरी तरफ़ से एक ऐसी गायिका का उदय हुआ इस साल जो फ़िल्म संगीत का सब से उज्वल सितारा बनीं और ६ दशकों तक इस इंडस्ट्री पर राज करती रहीं। लता मंगेशकर। जी हाँ, १९४७ में ही लता जी का गाया पहला एकल प्लेबैक्ड सॊंग् "पा लागूँ कर जोरी रे" फ़िल्म 'आप की सेवा में' में सुनाई दी

मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता.. चलिए याद करें हम ग़म-ए-रोज़गार से खस्ताहाल चचा ग़ालिब को

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७१ हो गा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने शायर तो वो अच्छा है प' बदनाम बहुत है। इस शेर को पढने के बाद आप समझ हीं गए होंगे कि आज की महफ़िल किसकी शान में सजी है। आज से बस दो दिन पहले यानि कि १५ फरवरी को इस महान शायर की मौत की १४१वीं बरसी थी। संयोग देखिए कि उससे महज़ दो दिन पहले यानि कि १३ फरवरी को इस शायर के सच्चे और एकमात्र उत्तराधिकारी फैज़ अहमद फ़ैज़ की भी बरसी थी.. फ़र्क बस इतना था कि फ़ैज़ ने १३ फ़रवरी को जन्म लिया था तो १५ फ़रवरी को ग़ालिब ने अपनी अंतिम साँसें ली थीं। आज हमारे बीच फ़ैज़ भी नहीं हैं। इसलिए हम आज अपनी महफ़िल की ओर से इन दोनों महान शायरों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। आपने शायद यह गौर किया हो कि हमारी महफ़िल में आज से पहले फ़ैज़ की चार गज़लें/नज़्में शामिल हो चुकी हैं, लेकिन हमने आज तक ग़ालिब की एक भी गज़ल महफ़िल में पेश नहीं की है। अब यह तो हो हीं नहीं सकता कि कोई महफ़िल सजे, सजती रहे और सजते-सजते सत्तर रातें गुजर जाएँ लेकिन उस महफ़िल में उस शायर का नाम न लिया जाए जिसके बिना महफ़िल क्या, शायरी की छोटी-सी गुफ़्तगू भी अधूरी है। और फिर अगर ऐसा हमारी

आवाज़ दे कहाँ है...ओल्ड इस गोल्ड में पहली बार बातें गायक/अभिनेता सुरेन्द्र की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 347/2010/47 ४० का दशक हमारे देश के इतिहास में राष्ट्रीय जागरण के दशक के रूप में याद किया जाता है। राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से इस दौर ने इस देश पर काफ़ी असरदार तरीके से प्रभाव डाला था। द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होते ही फ़िल्म निर्माण पर लगी रोक को उठा लिया गया जिसके चलते फ़िल्म निर्माण कार्य ने एक बार फिर से रफ़्तार पकड़ ली और १९४६ के साल में कुल १५५ हिंदी फ़िल्मों का निर्माण किया गया। लेकिन सही मायने में जिन दो फ़िल्मों ने बॊक्स ऒफ़िस पर झंडे गाढ़े, वो थे 'अनमोल घड़ी' और 'शाहजहाँ'। एक में नूरजहाँ - सुरैय्या, तो दूसरे में के. एल. सहगल। लेकिन दोनों फ़िल्मों के संगीतकार नौशाद साहब। वैसे हमने इन दोनों ही फ़िल्मों के गानें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में बजाए हैं, लेकिन जब इस साल का प्रतिनिधित्व करने वाले किसी गीत को चुनने की बात आती है तो इन्ही दो फ़िल्मों के नाम ज़हन में आते हैं, और आने भी चाहिए। क्योंकि हमने 'शाहजहाँ' फ़िल्म के दो गीत सुनवाएँ हैं, तथा सहगल साहब और इस फ़िल्म से जुड़ी तमाम बातें भी बता चुके हैं, तो क्यों ना आज फ़िल्म

गुनगुनाते लम्हे में इस बार गौरव शर्मा की कहानी

दोस्तो, हर महीने के पहले और तीसरे मंगलवार को आवाज़ लेकर आता है एक कहानी-गीतों की जुबानी। इस कार्यक्रम के माध्यम से हम अपने श्रोताओं को रेडियो के उसी जमाने में पहुँचा देना चाहते हैं जब पूरा हिन्दुस्तान एक साथ एक कहानी को फिल्मों गीतों के माध्यम से ग्रहण करता था। 19वाँ पुस्तक मेला में हमने अपनी विवरण पुस्तिका में इस बात का ज़िक्र किया कि जल्द ही हम एक वेबरेडियो लॉन्च करेंगे। यह पाक्षिक वेबरेडियो उसी की एक टेस्टिंग है। आज की कहानी गौरव शर्मा की है। आवाज़ हमेशा की तरह अपराजिता कल्याणी की है और तकनीक खुश्बू की है। नीचे के प्लेयर से सुनें- आप भी चाहें तो भेज सकते हैं कहानी लिखकर गीतों के साथ, जिसे दूंगी मैं अपनी आवाज़! जिस कहानी पर मिलेगी शाबाशी (टिप्पणी) सबसे ज्यादा उनको मिलेगा पुरस्कार हर माह के अंत में 500 / नगद राशि। हाँ यदि आप चाहें खुद अपनी आवाज़ में कहानी सुनाना तो आपका स्वागत है.... 1) कहानी मौलिक हो। 2) कहानी के साथ अपना फोटो भी ईमेल करें। 3) कहानी के शब्द और गीत जोड़कर समय 35-40 मिनट से अधिक न हो, गीतों की संख्या 7 से अधिक न हो।। 4) आप गीतों की सूची और साथ में उनका mp3 भी भेजें।

दिया जलाकर आप बुझाया तेरे काम निराले...याद करें नूरजहाँ और उनकी सुरीली आवाज़ को इस गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 346/2010/46 इ न दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अंतर्गत हम आपको ४० के दशक के हर साल का एक सुपरहिट गीत सुनवा रहे हैं अपनी ख़ास लघु शृंखला 'प्योर गोल्ड' में। आज इसकी छठी कड़ी में बारी है साल १९४५ की। ८ सितंबर १९४५। द्वितीय विश्व युद्ध का समापन। जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरा कर विश्व के मानचित्र से उनका अस्तित्व ही मिटा दिया गया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का रहस्यात्मक तरीक़े से ग़ायब हो जाना और संभवत: ताइपेइ के एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु के चर्चे ही १९४५ के मुख्य विषय थे। भारत का स्वाधीनता संग्राम भी पूरे शबाब पर थी। फ़िल्म उद्योग भी इससे बेअसर नहीं रह पाई। कारखानों में बंदूक, बम, और हथियार का उत्पादन इतना ज़्यादा बढ़ चुका था कि जिससे बहुत ज़्यादा मात्रा में आर्थिक लाभ हो रहे थे। इस विशाल धन राशी को कई गुणा और बढ़ाने के उद्येश्य से इन्हे फ़िल्म निर्माण में लगाया जाने लगा। फ़िल्मस्टार्स के पारिश्रमिक कई गुणा बढ़ गए, जिसका एक हिस्सा आयकर से मुक्त भी किया जाने लगा। इस वजह से वो बड़ी हस्तियाँ जो कभी फ़िल्म स्टुडियोज़ के कर्मच

उन सगीत प्रेमियों के लिए जिन्हें आज का संगीत शोर शराबा लगता है उनके लिए है "रोड टू संगम" का संगीत

ताज़ा सुर ताल ०७/ 2010 सुजॊय - सजीव, बहुत ही अफ़सोस की यह बात है कि आजकल कला को लेकर भी हमरे देश में राजनीति और साम्प्रदायिक मनमुटाव हो रही है। मेरा इशारा मुंबई में 'माइ नेम इज़ ख़ान' के प्रदर्शन के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध की तरफ़ है। क्या आपको नहीं लगता कि फ़िल्म निर्माण एक कला है और किसी भी कला को इस तरफ़ की चीज़ों से दूर रखी जानी चाहिए? सजीव - बिल्कुल! अगर किसी को किसी के ख़िलाफ़ जाना हो तो न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया जा सकता है, ना कि उसके फ़िल्म के प्रदर्शन को रोक कर अपनी शक्ति का परिचय देनी चाहिए। ख़ैर, यह सब तो चलता ही रहेगा। अच्छा सुजॊय, हम अफ़सोस की बात कर रहे हैं तो एक अफ़सोस यह भी रहा है कि बहुत सी फ़िल्में हैं जो बेहद उत्कृष्ट होते हुए भी आम जनता तक सही रूप से नहीं पहुँच पाती है, क्योंकि फ़िल्म के निर्माता के पास उतना आर्थिक ज़ोर नहीं होता है कि अपनी फ़िल्म का ढोल पीट पीट कर प्रचार करें। कई फ़िल्में तो किसी थिएटर पर भी नहीं लगती, बल्कि सिर्फ़ फ़िल्म महोत्सवों में ही दिखाई जाती है। ऐसे में फ़िल्म लोगों तक नहीं पहुँचती है और उनका संगीत भी गुमनामी के अंधेरे में खो जाता

अखियाँ मिलके जिया भरमा के चले नहीं जाना...जोहराबाई अंबालेवाली की आवाज़ थी जैसे कोई जादू

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 345/2010/45 १९४४ का साल फ़िल्म संगीत के इतिहास का एक और महत्वपूर्ण साल रहा, लेकिन इस साल की शुरुआत भारतीय सिनेमा के भीष्म पितामह दादा साहब फाल्के के निधन से हुआ था। दिन था १६ फ़रवरी। दादा साहब ने पहली भारतीय फ़िल्म 'दि बर्थ ऒफ़ ए पी प्लाण्ट' का निर्माण किया था जिसमें एक बीज के एक पौधे में परिनत होते हुए दिखाया गया था। देश की पहला कहानी केन्द्रित फ़िल्म 'राजा हरीशचन्द्र' का निर्माण भी दादा साहब ने ही किया था जिसका प्रदर्शन २१ अप्रैल १९१३ को बम्बई के कोरोनेशन सिनेमा में किया गया था। उनके उल्लेखनीय फ़िल्मों में शामिल हैं 'लंका दहन' ('१९१६), 'हाउ फ़िल्म्स कैन मेड' (१९१७), 'श्री कृष्ण जनम' (१९१८), 'कालिया दमन' (१९१९), और 'भक्त प्रह्लाद' (१९२६)। ये सब मूक फ़िल्में थीं। दादा साहब को सम्मान स्वरूप उनके नाम पर भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' की स्थापना की गई और इसका पहला पुरस्कार १९७० में देवीका रानी को दिया गया था। ख़ैर, वापस आते हैं १९४४ के साल पर। यह साल नौशाद साहब के कर