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मैं तेरी हूँ तू मेरा है....मधुबाला जावेरी का नटखट अंदाज़ निखारा हंसराज बहल ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 337/2010/37 'ह मारी याद आएगी' के आज के अंक में गूंजने वाली है एक और बेहद मधुर गायिका की आवाज़। वक़्त के साथ साथ इस गायिका की यादें ज़रा धुंधली सी हो गई है और आज शायद ही आम ज़िंदगी में हम रोज़ इन्हे याद करते हैं, लेकिन किसी ज़माने में इनके गाए गीतों से संगीत रसिक काफ़ी मुतासिर हुआ करते थे। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की एक और कमचर्चित गायिका मधुबाला ज़वेरी हैं आज के इस कड़ी की आवाज़। चर्चित कलाकारों के बारे में तो बहुत सारे तथ्य हमें कहीं ना कहीं से मिल ही जाते हैं, लेकिन इन कमचर्चित फ़नकारों के बारे में जानकारी इकट्ठा करना कभी कभी बेहद मुश्किल सा हो जाता है। मधुबाला ज़वेरी के बारे में भी बहुत ज़्यादा जानकारी तो हम एकत्रित नहीं कर सके, लेकिन यहाँ वहाँ से कुछ कुछ बातें हमने मालूम ज़रूर किए हैं ख़ास इस कड़ी को संवारने के लिए। मधुबाला जी का जन्म सन् १९३२ के करीब हुआ था। 'करीब' हम इसलिए कह रहे हैं दोस्तों क्योंकि उनकी जन्म तिथि हम मालूम नहीं कर पाए, लेकिन ३० जुलाई २००६ को मुंबई के चार्नी रोड हॊल में मधुबाला जी के सम्मान में एक कार्यक्रम का आयोजन किया

सुनो कहानी: संस्कृति के रखवाले

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में इस्मत चुगताई की आत्मकथा ''कागज़ी है पैरहन'' से एक बहुत ही सुन्दर, मार्मिक प्रसंग का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी " संस्कृति के रखवाले ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "गरजपाल की चिट्ठी" का कुल प्रसारण समय 2 मिनट 25 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।। ~ अनुराग शर्मा हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी तो अपने बच्चों को हिन्दी नहीं सिखायेंगे क्या? ( अनुराग शर्मा की " संस्कृति के रखवाले &q

हँसता हुआ नूरानी चेहरा ....क्यों न हो ओल्ड इस गोल्ड के सुनहरे गीतों को सुनते हुए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 336/2010/36 इ न दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर चल रहा है फ़िल्म संगीत के सुनहरे युग के कुछ कमचर्चित लेकिन बेहद प्रतिभावान पार्श्वगायिकाओं पर समर्पित शृंखला 'हमारी याद आएगी'। आज की कड़ी में ज़िक्र एक अनोखी आवाज़ की। मिट्टी की सौंधी सौंधी ख़ुशबू जैसी आवाज़ वाली ये हैं कमल बारोट। कमल बारोट ने उस दौर में फ़िल्म जगत में क़दम रखा जब दुनिया बस दो आवाज़ों की दीवानी बन चुकी थी, लता और आशा की। ऐसे में किसी नई गायिका के लिए यहाँ पर जगह बनाना बेहद मुश्किल था और ना ही यह हर किसी के बस की बात थी। सुधा मल्होत्रा, सुमन कल्याणपुर, मिनू पुरुशोत्तम, उषा मंगेशकर, मुबारक़ बेग़म के साथ साथ कमल बारोट ने भी गाना शुरु तो किया, लेकिन इन गायिकाओं को बड़े बैनर्स की फ़िल्मों में गाने के अवसर ज़्यादा नहीं मिलते थे। और अगर मिले तो किसी दूसरी बड़ी गायिका के साथ युगल गीत में या फिर कई अवाज़ों वाले किसी समूह गीत में। इन सारी कठिनाइयों और चुनौतियों को स्वीकार किया कमल बारोट ने और जब जैसे गानें उनकी झोली में आए, वो बस गाती चलीं गईं। लता जी और आशा जी के साथ उनके गाए कई गीत बेहद मशहूर हु

तुम अपना रंजो गम, अपनी परेशानी मुझे दे दो....कितनी आत्मीयता के कहा था जगजीत कौर ने इन अल्फाजों को, याद कीजिये ज़रा...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 335/2010/35 "मे री याद आएगी आती रहेगी, मुझे तू भुलाने की कोशिश ना करना"। दोस्तों, कुछ आवाज़ें भुलाई नहीं भूलती। ये आवाज़ें भले ही बहुत थोड़े समय के लिए या फिर बहुत चुनिंदा गीतों में ही गूंजी, लेकिन इनकी गूंज इतनी प्रभावी थे कि ये आज भी हमारी दिल की वादियों में प्रतिध्वनित होते रहते हैं। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं पर केन्द्रित लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' की आज की कड़ी में एक और अनूठी आवाज़ वाली गायिका का ज़िक्र। ये वो गायिका हैं जिन्होने हमारा रंज-ओ-ग़म और परेशानियाँ हम से अपने सर ले लिया था। आप यक़ीनन समझ गए होंगे कि हम आज बात कर रहे हैं गायिका जगजीत कौर की। जगजीत जी ने फ़िल्मों के लिए बहुत कम गीत गाए हैं लेकिन उनका गाया हर एक गीत ख़ास मुकाम रखता है अच्छे संगीत के रसिकों के दिलों में। जगजीत कौर १९४८-४९ में बम्बई आ गईं थीं। उन्होने संगीतकार श्याम सुंदर के साथ फ़िल्म 'लाहौर' ('४९) के गीतों, "नज़र से...", "बहारें फिर भी आएँगी..." आदि की रिहर्सल की थीं, लेकिन बाद में वे गीत लता जी से गवा

सलामे हसरत कबूल कर लो...इस गीत में सुधा मल्होत्रा की आवाज़ का कोई सानी नहीं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 334/2010/34 फ़ि ल्म संगीत के कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं को याद करने का सिलसिला जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की विशेष लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' के तहत। ये कमचर्चित गायिकाएँ फ़िल्म संगीत के मैदान के वो खिलाड़ी हैं जिन्होने बहुत ज़्यादा लम्बी पारी तो नहीं खेली, पर अपनी छोटी सी पारी में ही कुछ ऐसे सदाबहार गानें हमें दे गए हैं कि जिन्हे हम आज भी याद करते हैं, गुनगुनाते हैं, हमारे सुख दुख के साथी बने हुए हैं। यह हमारी बदकिस्मती ही है कि अत्यंत प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी ये कलाकार चर्चा में कम ही रहे, प्रसिद्धी इन्हे कम ही मिली, और आज की पीढ़ी के लिए तो इनकी यादें दिन ब दिन धुंधली होती जा रही हैं। पर अपने कुछ चुनिंदा गीतों से अपनी अमिट छाप छोड़ जाने वाली ये गायिकाएँ सुधी श्रोताओं के दिलों पर हमेशा राज करती रहेंगी। आज एक ऐसी ही प्रतिभा संपन्न गायिका का ज़िक्र इस मंच पर। आप हैं सुधा मल्होत्रा। जी हाँ, वही सुधा मल्होत्रा जिन्होने 'नरसी भगत' में "दर्शन दो घनश्याम", 'दीदी' में "तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको", 'क

मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था.. इक़बाल अज़ीम के बोल और नय्यारा नूर की आवाज़.. फिर क्यूँकर रंज कि बुरा हुआ

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६९ इं सानी मन प्रशंसा का भूखा होता है। भले हीं उसे लाख ओहदे हासिल हो जाएँ, करोड़ों का खजाना हाथ लग जाए, फिर भी सुकून तब तक हासिल नहीं होता, जब तक कोई अपना उसके काम, उसकी नियत को सराह न दे। ऐसा हीं कुछ आज हमारे साथ हो रहा है। जहाँ तक आप सबको मालूम है कि आज महफ़िल-ए-गज़ल की ६९वीं कड़ी है और यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते हमने दस महिने का सफ़र तय कर लिया है.. इस दौरान बहुत सारे मित्रों ने टिप्पणियों के माध्यम से हमारी हौसला-आफ़ज़ाई की और यही एकमात्र कारण था जिसकी बदौलत हमलोग निरंतर बिना रूके आगे बढते रहे.. फिर भी दिल में यह तमन्ना तो जरूर थी कि कोई सामने से आकर यह कहे कि वाह! क्या कमाल की महफ़िल सजाते हैं आप.. गज़लों को सुनकर और बातों को गुनकर दिल बाग-बाग हो जाता है। यही एक कमी खलती आ रही थी जो दो दिन पहले पूरी हो गई। दिल्ली के प्रगति मैदान नें चल रहे वार्षिक विश्व पुस्तक मेला में लगे "हिन्द-युग्म" के स्टाल पर जब आवाज़ का कार्यक्रम रखा गया तो देश भर से आवाज़ के सहयोगी और प्रशंसक जमा हुए और उस दौरान कई सारे लोगों ने हमसे महफ़िल-ए-गज़ल की बातें कीं और आवाज़ के इस प्रयास क

रसिया रे मन बसिया रे तेरे बिना जिया मोरा लागे ना...एक गीत मीना कपूर को समर्पित

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 333/2010/33 फ़ि ल्म संगीत के सुनहरे दौर की कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ख़ास लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' की तीसरी कड़ी में आज बातें गायिका मीना कपूर की। जी हाँ, वही मीना कपूर जो एक सुरीली गायिका होने के साथ साथ सुप्रसिद्ध संगीतकार अनिल बिस्वास जी की धर्मपत्नी भी हैं। अनिल दा तो नहीं रहे, मीना जी आजकल दिल्ली में रहती हैं। दोस्तों, आप में से कई पाठक हर मंदिर सिंह 'हमराज़' के नाम से वाकिफ होंगे जिन्होने फ़िल्मी गीत कोश का प्रकाशन किया एक लम्बे समय से शोध कार्य करने के बाद। इस शोध कार्य के दौरान वे फ़िल्म जगत के तमाम कलाकारों से ख़ुद जा कर मिले और तमाम जानकारियाँ बटोरे। उनकी निष्ठा और लगन का ही नतीजा है कि १९३१ से लेकर ८० के दशक तक के सभी फ़िल्मों के सभी गीतों के डिटेल्स उनके बनाए गीत कोश में दर्ज है। तो एक बार वे दिल्ली में अनिल दा के घर भी गए थे। आइए उन्ही की ज़बानी में सुनें उस मुलाक़ात के बारे में जिसमें अनिल दा के साथ साथ मीना जी से भी उनकी भेंट हुई और मीना जी के गाए शुरु शुर के गीतों के बारे में कुछ दुर्लभ बा