Skip to main content

Posts

वो शाम कुछ अजीब थी...जब किशोर दा की संजीदा आवाज़ में हेमंत दा के सुर थे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 323/2010/23 आ ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस कड़ी की शुरुआत में हम श्रद्धांजली अर्पित करते हैं इस देश के अन्यतम वीरों में से एक, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को, जिनकी आज जयंती है। उन पर कई फ़िल्में बनीं हैं, आज इस वक़्त मुझे ऐसी ही किसी फ़िल्म के जिस गीत की याद आ रही है वह है "झंकारो झंकारो झननन झंकारो, झंकारो अग्निवीणा, आज़ाद होके बंधुओं जीयो, ये जीना कोई जीना, ये जीना क्या जीना"। आइए अब आगे बढ़ते हैं और इंदु जी के पसंद का तीसरा गीत सुनते हैं ख़ामोशी से। मेरा मतलब है फ़िल्म 'ख़ामोशी' से। वैसे दोस्तों, यह गीत इतना भावुक और नायाब है कि इसे बिल्कुल ख़ामोश होकर ही सुनें तो बेहतर है। "वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है, वो कल भी पास पास थी, वो आज भी करीब है"। गुलज़ार साहब के बेहद बेहद बेहद असरदार बोल, हेमन्त कुमार का दिल को छू लेनेवाला संगीत, और उस पर किशोर कुमार की गम्भीर गायकी, कुल मिलाकर एक ऐसा गीत बना है कि दशकों बाद भी आज जब भी कभी इस गीत को सुनते हैं तो हर बार यह दिल को उतना ही छू जाता है जितना कि उस दौर के लोगों का छूता होगा। आख़ि

सुनो कहानी: गरजपाल की चिट्ठी - अनुराग शर्मा

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हरिशंकर परसाई की कहानी " अशुद्ध बेवकूफ " का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी " गरजपाल की चिट्ठी ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "गरजपाल की चिट्ठी" का कुल प्रसारण समय 7 मिनट 32 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।। ~ अनुराग शर्मा हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी वासंती के नाम की चिट्ठी जाती तो रोज़ थी मगर किसी ने कभी वासंती की कोई चिट्ठी आते न देखी। ( अनुराग शर्मा की " गरजपाल की चिट्ठी " से एक अंश ) नीचे के प

बलमा माने ना बैरी चुप ना रहे....चित्रगुप्त का रचा एक और चुलबुला नगमा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 322/2010/22 इं दु जी के पसंद के गीत आजकल ओल्ड इज़ गोल्ड की शान बनें हुए हैं। कल के गीत में रोने रुलाने की बात थी। चलिए आज मूड को ज़रा बदलते हैं और एक ख़ुशनुमा गीत सुनते हैं लता जी की ही आवाज़ में। शास्त्रीय संगीत पर आधारित यह रचना है फ़िल्म 'ओपेरा हाउस' का। मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे और चित्रगुप्त के संगीतबद्ध किए इस गीत के बोल हैं "बलमा माने ना बैरी चुप ना रहे, लगी मन की कहे हाए पा के अकेली मोरी बैयाँ गहे"। इंदु जी कहती हैं कि " बचपन में एक म्युज़िक कॊम्पीटिशन में पहला इनाम जीता था इसे गा कर, बस तभी से पसंद है। जब भी सुनती हूँ जैसे बचपन के वो दिन सामने आ जाते हैं। खूबसूरत गीत तो है ही, बी.सरोजा देवी का नृत्य व हाव भाव मनमोहक है, कमाल है। " इंदु जी, चलिए इसी बहाने हम सब को यह पता चल गया कि आप गाती भी हैं। अगर संभव हो तो अपनी आवाज़ में इस गीत को रिकार्ड कर हमें ज़रूर भेजिएगा। जैसा कि आप बता ही चुकी हैं कि यह गीत फ़िल्माया गया है बी. सरोजा देवी पर, इस फ़िल्म के अन्य कलाकार थे अजीत, के. एन. सिंह, ललिता पवार, और बेला बोस प्रमुख। ए. ए. नड

मेरी दास्ताँ मुझे ही मेरा दिल सुना के रोये कभी ...उषा खन्ना के संगीत में उभरा लता का दर्द

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 321/2010/21 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर आज से एक बार फिर से छा रहा है फ़रमाइशी रंग। शरद तैलंग, स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा', पूर्वी, और पराग सांकला के बाद 'ओल्ड इज़ गोल्ड पहेली प्रतियोगिता' की विजेयता बनीं हैं हमारी इंदु जी। इसलिए आज से अगले पाँच दिनों तक हम सुनने जा रहे हैं इंदु जी की पसंद के पाँच गानें बिल्कुल बैक टू बैक। यकीन मानिए दोस्तों, कि इंदु जी ने ऐसे ऐसे नायाब गानें चुन कर हमें भेजे हैं कि इन्हे सुनवाते हुए हम जितना आनंद महसूस कर रहे हैं उतना ही मज़ा हमें आया इन गीतों पर आलेख लिखते हुए। तो शुरुआत करते हैं लता मंगेशकर के गाए फ़िल्म 'आओ प्यार करें' के एक बड़े ही ख़ूबसूरत गाने से, जिसके बोल हैं "मेरी दास्ताँ मुझे ही मेरा दिल सुना के रोये"। गीतकार राजेन्द्र कृष्ण के बोल और संगीतकार उषा खन्ना की तर्ज़। उषा जी के स्वरबद्ध किए उत्कृष्ट रचनाओं में से एक है आज का प्रस्तुत गीत। इस फ़िल्म के बारे में हम अभी बात करेंगे, लेकिन उससे पहले इंदु जी के चार शब्द भी जान लें कि इस गीत की उन्होने फ़रमाइश क्यों की हैं। इंदु जी लिखती हैं कि &qu

एक धुंध से आना है एक धुंध में जाना है, गहरी सच्चाईयों की सहज अभिव्यक्ति यानी आवाज़े महेंदर कपूर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 320/2010/20 औ र आज हम आ पहुँचे हैं 'स्वरांजली' की अंतिम कड़ी में। गत ९ जनवरी को पार्श्वगायक महेन्द्र कपूर साहब की जयंती थी। आइए आज 'स्वरांजली' की अंतिम कड़ी हम उन्ही को समर्पित करते हैं। महेन्द्र कपूर हमसे अभी हाल ही में २७ सितंबर २००८ को जुदा हुए हैं। ९ जनवरी १९३४ को जन्मे महेन्द्र कपूर साहब के गाए कुछ गानें आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन चुके हैं। बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्मों में अक्सर हमने उनकी आवाज़ पाई है। साहिर लुधियानवी के बोल, रवि का संगीत और महेन्द्र कपूर की आवाज़ चोपड़ा कैम्प के कई फ़िल्मों मे साथ साथ गूंजी। इस तिकड़ी के हमने फ़िल्म 'गुमराह' के दो गानें सुनवाए हैं, " आप आए तो ख़याल-ए-दिल-ए-नाशाद आया " और " चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों "। आज भी हम एक ऐसा ही गीत लेकर आए हैं, लेकिन यह फ़िल्म बी. आर. चोपड़ा की दूसरी फ़िल्मों से बिल्कुल अलग हट के है। यह है १९७३ की फ़िल्म 'धुंध' का शीर्षक गीत, "संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है, एक धुंध से आना है एक धुंध में जाना है"। साहिर लुधिय

गजरा बना के ले आ... एक मखमली नज़्म के बहाने अफ़शां और हबीब की जुगलबंदी

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६७ क भी-कभी यूँ होता है कि आप जिस चीज से बचना चाहो, जिस चीज से कन्नी काटना चाहो, वही चीज आपकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा हो जाती है, आपकी पहचान बन जाती है। यह ज्यादातर इश्क़ में होता है और वो भी हसीनाओं के साथ। हसीनाएँ पहले-पहल तो आपको नज़र-अंदाज करती हैं, लेकिन धीरे-धीरे आप उनकी नज़र में बस जाते हैं। क्या आपने भी कभी यह महसूस किया है? किया हीं होगा... इश्क़ का यह नियम है। वैसे यहाँ पर मैं जिस कारण से इस मुद्दे को उठा रहा हूँ, उसकी जड़ में इश्क़ या हसीनाएँ नहीं हैं, बल्कि "आलस्य" है। अब आप सोचेंगे कि महफ़िल-ए-गज़ल में आलस्य की बातें.. तो जी हाँ, पिछली मर्तबा मैंने आलेख की लंबाई कम होने की वज़ह समय की कमी को बताया था, जो कि तब के लिए सच था, लेकिन वही ४५ मिनट वाला किस्सा आज फिर से दुहराया जा रहा है... और इस बार सबब कुछ और है। लेखक ने सामग्रियाँ समय पर जुटा लीं थीं, लेकिन उसी समय उसे(मुझे) आलस्य ने आ घेरा.. महसूस हुआ कि आलेख तो ४५ मिनट में भी लिखा जा सकता है और अच्छा लिखा जा सकता है, (जैसा कि सजीव जी की टिप्पणी से मालूम पड़ा) तो क्यों न सुबह उठकर हीं गज़ल की महफ़िल

तेरी राहों में खड़े हैं दिल थाम के...गीतकार कमर जलालाबादी को याद कीजिये स्वराजन्ली लता के स्वरों की देकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 319/2010/19 ९ जनवरी २००३ को हम से बिछड़ गए थे फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार क़मर जलालाबादी और जैसे हर तरफ़ से उन्ही का लिखा हुआ गीत गूंज उठा कि "फिर तुम्हारी याद आई ऐ सनम, हम ना भूलेंगे तुम्हे अल्लाह क़सम"। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में क़मर साहब को हमारी 'स्वरांजली'। क़मर जलालाबादी की ख़ूबी सिर्फ़ गीत लेखन तक ही सीमीत नहीं रही। वो एक आदरणीय शायर और इंसान थे। फ़िल्म जगत की चकाचौंध में रह कर भी वो एक सच्चे कर्मयोगी का जीवन जीते रहे। १९५० के दशक में कामयाबी की शिखर पर पहुँचने के बाद भी उनकी सादगी पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनकी संजीदगी उनके गीतों से छलक पड़ी। दोस्तो, क़मर साहब के साथ हुस्नलाल भगतराम और ओ. पी. नय्यर की अच्छी ट्युनिंग् जमी थी। बाद मे संगीतकार जोड़ी कल्याणजी आनंदजी के साथ तो एक लम्बी पारी उन्होने खेली और कई महत्वपूर्ण गानें इस जोड़ी के नाम किए। सन् १९६० में जिस फ़िल्म से क़मर साहब और कल्याणजी-आनंदजी की तिकड़ी बनी थी, वह फ़िल्म थी 'छलिया'। इस फ़िल्म के सभी गानें सुपर डुपर हिट हुए। उस समय शंकर जयकिशन और शैलेन्द्र-हसरत