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कैसे दिन बीते कैसे बीती रतिया....पंडित रवि शंकर और शैलेन्द्र की जुगलबंदी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 299 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं शरद तैलंग जी के पसंद के पाँच गानें बिल्कुल बैक टू बैक। आज है उनके चुने हुए चौथे गाने की बारी। फ़िल्म 'अनुराधा' से यह है लता जी का गाया "कैसे दिन बीते कैसे बीती रतिया, पिया जाने ना"। इस फ़िल्म का एक गीत हमने 'दस राग दस रंग' शृंखला के दौरान आपको सुनवाया था। याद है ना आपको राग जनसम्मोहिनी पर आधारित गीत " हाए रे वो दिन क्यों ना आए "? फ़िल्म 'अनुराधा' के संगीतकार थे सुविख्यात सितार वादक पंडित रविशंकर, जिन्होने इस फ़िल्म के सभी गीतों में शास्त्रीय संगीत की वो छटा बिखेरी कि हर गीत लाजवाब है, उत्कृष्ट है। इस फ़िल्म में उन्होने राग मंज खमाज को आधार बनाकर दो गानें बनाए। एक है "जाने कैसे सपनों में खो गई अखियाँ" और दूसरा गीत है "कैसे दिन बीते कैसे बीती रतिया", और यही दूसरा गीत पसंद है शरद जी का। शैलेन्द्र की गीत रचना है और लता जी की सुरीली आवाज़। वैसे हम इस फ़िल्म के बारे में सब कुछ "हाए रे वो दिन..." गीत के वक़्त ही बता चुके हैं। यहाँ तक कि फ

ज़िंदगी मेरे घर आना...फ़ाकिर के बोलों पर सुर मिला रहे हैं भूपिन्दर और अनुराधा..संगीत है जयदेव का

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६३ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शामिख जी की पसंद की अंतिम नज़्म लेकर। इस नज़्म को जिन दो फ़नकारों ने अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया है उनमें से एक के बारे में महफ़िल-ए-गज़ल पर अच्छी खासी सामग्री मौजूद है, इसलिए आज हम उनकी बात नहीं करेंगे। हम ज़िक्र करेंगे उस दूसरे फ़नकार या यूँ कहिए फ़नकारा और इस नज़्म के नगमानिगार का, जिनकी बातें अभी तक कम हीं हुई हैं। यह अलग बात है कि हम आज की महफ़िल इन दोनों के सुपूर्द करने जा रहे हैं, लेकिन पहले फ़नकार का नाम बता देना हमारा फ़र्ज़ और जान लेना आपका अधिकार बनता है। तो हाँ, इस नज़्म में जिसने अपनी आवाज़ की मिश्री घोली है, उस फ़नकार का नाम है "भूपिन्दर सिंह"। "आवाज़" पर इनकी आवाज़ न जाने कितनी बार गूँजी है। अब हम बात करते हैं उस फ़नकारा की, जिसने अपनी गायिकी की शुरूआत फिल्म "अभिमान" से की थी जया बच्चन के लिए एक श्लोक गाकर। आगे चलकर १९७६ में उन्हें फिल्म कालिचरण के लिए गाने का मौका मिला। पहला एकल उन्होंने "लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल" के लिए "आपबीती" में गाया। फिर राजेश रोशन के लिए "देश-परद

यही वो जगह है, यही वो फिजायें....किसी की यादों में खोयी आशा की दर्द भरी सदा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 298 श रद तैलंग जी के पसंद के ज़रिए आज बहुत दिनों के बाद हम लेकर आए हैं आशा भोसले और ओ. पी. नय्यर साहब की जोड़ी का एक और सदाबहार नग़मा। फ़िल्म 'ये रात फिर ना आएगी' का यह गीत "यही वो जगह है, ये ही वो फ़िज़ाएँ" इस जोड़ी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण गीत है। बीती पुरानी यादों को उसी जगह पे जा कर फिर से एक बार जी लेने की बातें हैं इस गीत में। एस. एच. बिहारी साहब ने ऐसे जज़्बाती बोल लिखे हैं कि सुन कर दिल भर आता है। इस गीत के साथ हर कोई अपने आप को कनेक्ट कर सकता है। ख़ास कर वो लोग तो ज़रूर महसूस कर पाएँगे जो कभी अपने घर से दूर किसी जगह पर जा कर रहे होंगे और वहाँ पर कई रिश्ते भी बनाएँ होंगे, दोस्त बनाए होंगे, प्यार पाया होगा। और फिर जब उस जगह को छोड़ कर चले जाना पड़ा तो बस यादें ही साथ में वापस गईं। और फिर कई बरस बाद जब उसी जगह पर वापस लौटे तो सब कुछ बदला हुआ सा पाया। अगर कुछ वैसे का वैसा था तो बस दिल में उन बीते दिनों की यादें। "यही पर मेरा हाथ में हाथ लेकर कभी ना बिछड़ने का वादा किया था, सदा के लिए हो गए हम तुम्हारे गले से लगा कर हमें ये कहा था, कभ

दिल की नज़र से, नज़रों की दिल से....कुछ बातें लता-मुकेश के स्वरों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 296 श रद तैलंग जी के पसंद पर आज एक बड़ा ही ख़ूबसूरत सा रोमांटिक नग़मा। ५० के दशक में राज कपूर की फ़िल्मों में शंकर जयकिशन के संगीत में लता मंगेशकर और मुकेश ने एक से एक बेहतरीन युगल गीत गाए हैं जो शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी के कलम से निकले थे। यहाँ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर अब तक हमने इस तरह के तीन गानें बजा चुके हैं। ये हैं फ़िल्म 'आह' से " आजा रे अब मेरा दिल पुकारा ", फ़िल्म 'बरसात' का "छोड़ गए बालम" और फ़िल्म 'आशिक़' का " महताब तेरा चेहरा "। इसी फ़ेहरिस्त में एक और गीत का इज़ाफ़ा करते हुए आइए आज शरद की पसंद पर हो जाए फ़िल्म 'अनाड़ी' से "दिल की नज़र से, नज़रों की दिल से, ये बात क्या है, ये राज़ क्या है, कोई हमें बता दे"। दोस्तों, दिल और नज़र का रिश्ता बड़ा पुराना है और इस रिश्ते पर हर दौर में गानें लिखे गए हैं। लेकिन फ़िल्म 'अनाड़ी' का यह गीत इस तरह का पहला मशहूर गीत है जिसने कामयाबी की सारी बुलंदियों को पार कर गया। यही नहीं, आज एक नामचीन टीवी चैनल पर रोमांटिक फ़िल्मी गीतों का एक क

कुहु कुहु बोले कोयलिया... चार रागों में गुंथा एक अनूठा गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 296 ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है फ़रमाइशी गीतों का कारवाँ। पराग सांकला के बाद दूसरी बार बने पहेली प्रतियोगिता के विजेयता शरद तैलंग जी के पसंद के पाँच गानें आज से आप सुनेंगे बैक टू बैक इस महफ़िल में। शुरुआत हो रही है एक बड़े ही सुरीले गीत के साथ। यह एक बहुत ही ख़ास गीत है फ़िल्म संगीत के इतिहास का। ख़ास इसलिए कि इसके संगीतकार की पहचान ही है यह गीत, और इसलिए भी कि शास्त्रीय संगीत पर आधारित बनने वाले गीतों की श्रेणी में इस गीत को बहुत ऊँचा दर्जा दिया जाता है। हम आज बात कर रहे हैं १९५८ की फ़िल्म 'सुवर्ण सुंदरी' का गीत "कुहु कुहु बोले कोयलिया" की जिसके संगीतकार हैं आदिनारायण राव। लता जी और रफ़ी साहब की जुगलबंदी का शायद यह सब से बेहतरीन उदाहरण है। लता जी और रफ़ी साहब भले ही फ़िल्मी गायक रहे हों, लेकिन शास्त्रीय संगीत में भी उनकी पकड़ उतनी ही मज़बूत थी (है)। प्रस्तुत गीत की खासियत यह है कि यह गीत चार रागों पर आधारित है। गीत सोहनी राग से शुरु होकर बहार और जौनपुरी होते हुए यमन राग पर जाकर पूर्णता को प्राप्त करता है। भरत व्यास ने इस फ़िल्म के गानें ल

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (२३)

मखमली आवाज़ के जादूगर तलत महमूद साहब को संगीत प्रेमी अक्सर याद करते है उनकी दर्द भरी गज़लों के लिए. उनके गाये युगल गीत उतने याद नहीं आते है. अगर बात मेरी पसंदीदा गायिका गीता दत्त जी की हो तो उनके हलके-फुल्के गीत पसंद करने वालों की संख्या अधिक है. थोड़े संगीत प्रेमी उनके गाये भजन तथा दर्द भरे गीत भी पसंद करते है. गीताजी के गाये युगल गीतों की बात हो तो, मुहम्मद रफ़ी साहब के साथ उनके गाये हुए सुप्रसिद्ध गीत ही ज्यादा जेहन में आते है. सत्तर और अस्सी के दशक के आम संगीत प्रेमी को तो शायद यह पता भी नहीं था, कि तलत महमूद साहब और गीता दत्त जी ने मिलकर एक से एक खूबसूरत और सुरीले गीत एक साथ गाये है. सन १९८४ के करीब एक नौजवान एच एम् वी (हिज़ मास्टर्स वोईस ) कंपनी में नियुक्त किया गया. यह नौजवान शुरू में तो शास्त्रीय संगीत के विभाग में काम करता था, मगर उसे पुराने हिंदी फ़िल्मी गीतों में काफी दिलचस्पी थी. गायिका गीता दत्त जी की आवाज़ का यह नौजवान भक्त था. उसीके भागीरथ प्रयत्नोके के बाद एक एल पी (लॉन्ग प्लेयिंग) रिकार्ड प्रसिद्द हुआ "दुएट्स टू रेमेम्बर" (यादगार युगल गीत) : तलत महमूद - गीता

नज़र फेरो ना हम से, हम है तुम पर मरने वालों में...जी एम् दुर्रानी साहब लौटे हैं एक बार फिर महफ़िल में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 295 औ र आज बारी है पराग सांकला जी के पसंद के पाँचवे और फिलहाल अंतिम गीत को सुनने की। अब तक आप ने चार अलग अलग गायक, गीतकार और संगीतकारों के गानें सुने। पराग जी ने अपने इसी विविधता को बरक़रार रखते हुए आज के लिए चुना है दो और नई आवाजों और एक और नए गीतकार - संगीतकार जोड़ी को। सुनवा रहे हैं फ़िल्म 'दीदार' से जी. एम. दुर्रानी और शम्शाद बेग़म की आवाज़ों में शक़ील बदायूनी की गीत रचना, जिसे सुरों में ढाला है नौशाद साहब ने। और गीत है "नज़र फेरो ना हम से, हम है तुम पर मरने वालों में, हमारा नाम भी लिख लो मोहब्बत करने वालों में"। पाश्चात्य संगीत संयोजन सुनाई देती है इस गीत में। लेकिन गीत को कुछ इस तरह से लिखा गया है और बोल कुछ ऐसे हैं कि इस पर एक बढ़िया क़व्वाली भी बनाई जा सकती थी। लेकिन शायद कहानी की सिचुयशन और स्थान-काल-पात्र क़व्वाली के फ़ेवर में नहीं रहे होंगे। फ़िल्म 'दीदार' १९५१ की नितिन बोस की फ़िल्म थी जिसमें अशोक कुमार और दिलीप कुमार पहली बार आमने सामने आए थे। फ़िल्म की नायिकाएँ थीं नरगिस और निम्मी। इस फ़िल्म के युं तो सभी गानें हिट हुए थे