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ओ सजना बरखा बहार आई....लता के मधुर स्वरों की फुहार जब बरसी शैलेन्द्र के बोलों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 288 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है शृंखला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी"। आज का जो गीत हमने चुना है वह कोई दार्शनिक गीत नहीं है, बल्कि एक बहुत ही नमर-ओ-नाज़ुक गीत है बरखा रानी से जुड़ा हुआ। बारिश की रस भरी फुहार किस तरह से पेड़ पौधों के साथ साथ हमारे दिलों में भी प्रेम रस का संचार करती है, उसी का वर्णन है इस गीत में, जिसे हमने चुना है फ़िल्म 'परख' से। शैलेन्द्र का लिखा यह बेहद लोकप्रिय गीत है लता जी की मधुरतम आवाज़ में, "ओ सजना बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई, अखियों में प्यार लाई"। मुखड़े में "बरखा" शब्द वाले गीतों में मेरा ख़याल है कि इस गीत को नंबर एक पर रखा जाना चाहिए। और सलिल चौधरी के मीठे धुनों के भी क्या कहने साहब! शास्त्रीय, लोक और पहाड़ी धुनों को मिलाकर उनके बनाए हुए इस तरह के तमाम गानें इतने ज़्यादा मीठे लगते हैं सुनने में कि जब भी हम इन्हे सुनते हैं तो चाहे कितने ही तनाव में हो हम, हमारा मन बिल्कुल प्रसन्न हो जाता है। इसी फ़िल्म में कुछ और गीत हैं लता जी की आवाज़ में जैसे कि "मिला है किसी का झुमका

सुनो कहानी: मुंशी प्रेमचन्द की "नमक का दरोगा"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने हरिशंकर परसाई लिखित व्यंग्य " खेती " का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं मुंशी प्रेमचंद की कहानी "नमक का दरोगा" , जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय मात्र 21 मिनट 31 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृध्दि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती हैं। ( प्रेमचंद की "नमक का दारोगा" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क

सूरज जरा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएंगें हम...एक अंदाज़ शैलेद्र का ये भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 287 शै लेन्द्र के लिखे गीतों को सुनते हुए आपने हर गीत में ज़रूर अनुभव किया होगा कि इन गीतों में बहुत गहरी और संजीदगी भरी बातें कही गई है, लेकिन या तो बहुत सीधे सरल शब्दों में, या फिर अचम्भे में डाल देने वाली उपमाओं और अन्योक्ति अलंकारों की मदद से। आज "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" की सातवीं कड़ी के लिए हमने जिस गीत को चुना है वह भी कुछ इसी तरह के अलंकारों से सुसज्जित है। फ़िल्म 'उजाला' का यह गीत है मन्ना डे और साथियों का गाया हुआ - "सूरज ज़रा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएँगे हम, ऐ आसमाँ तू बड़ा महरबाँ आज तुझको भी दावत खिलाएँगे हम"। अब आप ही बताइए कि ऐसे बोलों की हम और क्या चर्चा करें! ये तो बस ख़ुद महसूस करने वाली बातें हैं। भूखे बच्चों को रोटियों का ख़्वाब दिखाता हुआ यह गीत भले ही ख़ुशमिज़ाज हो, लेकिन इसे ग़ौर से सुनते हुए आँखें भर आती हैं जब मन्ना दा बच्चों के साथ गा उठते हैं कि "ठंडा है चूल्हा पड़ा, और पेट में आग है, गरमागरम रोटियाँ कितना हसीं ख़्वाब है"। कॊन्ट्रस्ट और विरोधाभास देखिए इस पंक्ति में कि चूल्हा जिसे

मिटटी से खेलते हो बार बार किसलिए...कुछ सवाल उस उपर वाले से शैलेन्द्र ने पूछे लता के स्वरों के जरिये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 286 "ज़ रा सी धूल को हज़ार रूप नाम दे दिए, ज़रा सी जान सर पे सात आसमान दे दिए, बरबाद ज़िंदगी का ये सिंगार किस लिए?" शैलेन्द्र के ये शब्द वार करती है इस दुनिया के खोखले दिखाओं और खोखले रिवाज़ों पर। ये शब्द हैं फ़िल्म 'पतिता' में लता मंगेशकर के गाए "मिट्टी से खेलते हो बार बार किस लिए" गीत के जो आज हम आपको सुनवाने के लिए लाए हैं "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" के अंतर्गत। भगवान के द्वारा एक बार नसीब बनाने और एक बार बिगाड़ने के खेल के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है यह गीत। जिस तरह से मिट्टी के पुतलों को बार बार तोड़कर नए सांचे में ढाल कर नए नए रूप दिए जा सकते हैं, वैसे ही इंसान का शरीर भी मिट्टी का ही एक पुतला समान है जिसे उपरवाला जब जी चाहे, जैसे चाहे बिगाड़कर नया रूप दे सकता है। शैलेन्द्र ने इस तरह के गानें बहुत से लिखे हैं जिनमें शाब्दिक अर्थ के पीछे कोई गहरा फ़ल्सफ़ा छुपा होता है। रफ़ी साहब के गाए "दुनिया ना भाए मोहे" गीत की तरह इस गीत का सुर भी कुछ कुछ शिकायती है और भगवान की तरफ़ ही इशारा है। उषा किरण पर फ़िल्माया

मुन्ना बड़ा प्यारा, अम्मी का दुलारा...जब किशोर ने स्वर दिए शैलेन्द्र के शब्दों को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 285 रा ज कपूर के आर.के.फ़िल्म्स के बैनर के बाहर की फ़िल्मों में लिखे हुए गीतकार शैलेन्द्र के गीतों का करवाँ इन दिनों बढ़ा जा रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस ख़ास शृंखला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" के अंतर्गत। मन्ना डे, लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी और मुकेश के बाद आज बारी है हमारे किशोर दा की। इससे पहले हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शैलेन्द्र, सलिल चौधरी और किशोर कुमार की तिकड़ी का केवल गीत बजाया है फ़िल्म 'नौकरी' से "छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में" । आज हम आपको सुनवाने के लिए लाए हैं इसी तिकड़ी का बनाया हुआ १९५७ की फ़िल्म 'मुसाफ़िर' का एक बड़ा ही प्यारा सा बच्चों वाला गीत - "मुन्ना बड़ा प्यारा अम्मी का दुलारा, कोई कहे चाँद कोई आँख का तारा"। 'फ़िल्म ग्रूप' के बैनर तले बनी इस फ़िल्म को निर्देशित किया ॠषीकेश मुखर्जी ने। फ़िल्म की कहानी काफ़ी दिलचस्प थी। कहानी एक मकान और उसमें रहने वाले किराएदारों के इर्द-गिर्द घूमती है। हर किराएदार कुछ दिनों के लिए रहता है, दर्शकों के दिलों में जगह बनाता है

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें...सज्जाद अली ने कुछ यूँ उम्मीद जगाई, साथ हैं फ़राज़ के शब्द

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६१ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शामिख जी की पसंद की पहली गज़ल लेकर। आज की गज़ल की बात करें, उससे पहले मैं दो सप्ताह की अपनी गैर-हाज़िरी के लिए आप सबसे माफ़ी माँगना चाहूँगा। कुछ ऐसी वज़ह हीं आन पड़ी थी कि मुझे गज़लों की इस शानदार और जानदार महफ़िल को कुछ दिनों के लिए बंद करना पड़ा। लेकिन कोई बात नहीं, गज़लों की रूकी हुई यह गाड़ी दो सप्ताह के बाद फिर से पटरी पर आ गई है और निकट भविष्य में इसकी गति कम होने की मुझे कोई संभावना नज़र नहीं आ रही। तो चलिए आज की महफ़िल की शुरूआत कर हीं देते हैं। तो आज जो गज़ल हम आपको सुनवाने जा रहे हैं वह यूँ तो मेहदी हसन साहब की आवाज़ में भी उपलब्ध थी, लेकिन हमने जान-बूझकर एक कम-चर्चित गायक की गाई हुई गज़ल को चुना। वैसे इस गायक को कम-चर्चित भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि पाकिस्तानी फिल्मों में इन्होंने बहुत सारे गाने गाए हैं। इस फ़नकार के अब्बाजान साजन(वास्तविक नाम: शफ़क़त हुसैन) नाम से मलयालम फिल्में निर्देशित किया करते हैं। ७० के दशक से अबतक उन्होंने लगभग ३० फिल्में निर्देशित की हैं। मज़े की बात यह है कि खुद तो वे हिन्दुस्तान में रह गए लेकिन उन

बहुत दिया देने वाले ने तुझको, आँचल ही न समाये तो क्या कीजै...कह तो दिया सब कुछ शैलेन्द्र ने और हम क्या कहें...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 284 फ़ि ल्म संगीत के ख़ज़ाने में ऐसे अनगिनत लोकप्रिय गानें हैं जिन्होने बहुत जल्द लोकप्रियता तो हासिल कर ली, लेकिन एक समय के पश्चात कहीं अंधेरे में खो से गए। लेकिन समय समय पर कुछ ऐसे भी गानें बनें हैं जो जीवन की मह्त्वपूर्ण पहलुओं से हमें अवगत करवाते है। जीवन दर्शन और हमारे अस्तित्व के पीछे जो छुपे राज़ और फ़लसफ़ा हैं, उन्हे उजागर किया गया है ऐसे गीतों के माध्यम से। और इस तरह के गीत कभी भी अंधेरे में गुम नहीं हो सकते, बल्कि ये तो हमेशा हमारे साथ चलते हैं हमारे मार्गदर्शक बनकर। ये गीत किसी स्थान काल या पात्र के लिए नहीं होते, बल्कि हर युग में हर इंसान के लिए उतने ही सार्थक और लाभदायक होते हैं। गीतकार शैलेन्द्र एक ऐसे गीतकार रहे हैं जिन्होने इस तरह के दार्शनिक गीतों में जैसे जान डाल दी है। उनके लिखे सीधे सरल और हल्के फुल्के गीतों में भी ग़ौर करें तो कोई ना कोई दर्शन सामने आ ही जाता है। और कुछ गानें तो हैं ही पूरी तरह से दार्शनिक। आज हमने एक ऐसा ही गाना चुना है जिसे सुनकर हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी है उनसे हम क्यों नहीं संतुष्ट रहते? क्यो