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कवि हेमंत के शब्द और कुमार आदित्य की संगीत-संगत

पिछले सप्ताह आपने कुमार आदित्य विक्रम द्वारा स्वरबद्ध चाँद शुक्ला की एक ग़ज़ल का आनंद लिया। आदित्य में सूर्य की भाँति न खत्म होने वाली संगीत-संयोजन और गायन की ऊर्जा है। व्यवसायिकरण के इस दौर में भी आदित्य पूरी मुश्तैदी के साथ कविताओं को संगीतबद्ध करने का हौसला रखते हैं। आवाज़ भी ऐसी प्रतिभाओं को सलाम करने से कभी नहीं चूकता। एक बार फिर हम कुमार आदित्य विक्रम की ही प्रस्तुति लेकर हाज़िर हैं जो एक युवाकवि को श्रद्धाँजलि है। कुमार आदित्य ने स्व. कवि हेमंत की दो कविताओं का संगीत भी तैयार किया है और गाया भी है। स्वर्गीय कवि हेमंत जन्म: 23 मई 1977, उज्जैन (म.प्र.) शिक्षा: सॉफ़्टवेयर कम्प्यूटर इंजीनियर लेखन: हिन्दी, अंग्रेज़ी, मराठी में कविता-लेखन रचनाएँ: (1) मेरे रहते (कविता-संग्रह) / सं. डा. प्रमिला वर्मा (2) समकालीन युवा कवियों का संग्रह / सं. डा. विनय (3) सौ-वर्ष की प्रेम कविताओं का संग्रह / सं. वीरेंद्रकुमार बरनवाल निधन: 5 अगस्त 2000 — सड़क दुर्घटना में। हेमंत की मृत्यु के बादः इनकी माँ प्रसिद्ध लेखिका संतोष श्रीवास्तव (अध्यक्ष: हेमंत फाउण्डेशन) ने हेमंत की स्मृति में `हेमंत फाउण्ड

आप के पहलू में आकर रो दिए... मदन मोहन के सुरों पर रफी साहब की दर्द भरी आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 120 स स्पेन्स फ़िल्मों की अगर हम बात करें तो ६० के दशक में अभिनेत्री साधना ने कम से कम तीन ऐसी मशहूर फ़िल्मों में अभिनय किया है जिनमें वो रहस्यात्मक किरदार में नज़र आती हैं। ये फ़िल्में हैं 'मेरा साया', 'वो कौन थी?' और 'अनीता'। ये फ़िल्में मक़बूल तो हुए ही, इनका संगीत भी सदाबहार रहा है। 'अनीता' में संगीत लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल' का था, जब कि बाक़ी के दो फ़िल्मों के संगीतकार थे मदन मोहन साहब। मदन साहब अपनी 'हौन्टिंग मेलडीज़' के लिये तो मशहूर थे ही। बस फिर क्या था, सस्पेन्स वाली फ़िल्मों में उनसे बेहतर और कौन संगीत दे सकता था भला! आज हम आप के लिये लेकर आये हैं फ़िल्म 'मेरा साया' से मोहम्मद रफ़ी साहब का गाया एक दर्दीला नग़मा जिसे लिखा है राजा मेहंदी अली ख़ान ने। वैसे तो इस फ़िल्म के दूसरे कई गीत बहुत ज़्यादा मशहूर हुए थे जैसे कि लताजी के गाये फ़िल्म का शीर्षक गीत "मेरा साया साथ होगा" और "नैनों में बदरा छाये", तथा आशाजी की मचलती आवाज़ में "झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में"। लेकिन रफ़ी

वाह-वाह रम्ज़ सजन दी होर..... महफ़िल-ए-अथाह और "बाबा बुल्ले शाह"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२३ ए क शख्स जिसे उसकी लीक से हटकर धारणाओं और भावनाओं के कारण गैर-इस्लामिक करार दिया गया और जिसे कज़ा के बाद भी अपने समुदाय का कब्रिस्तान नसीब न हुआ,क्योंकि आसपास के मुल्लाओं को उसकी बातों में "काफ़िर" होने की बू आती थी, नियति का यह खेल देखिए कि आज उसे पूरी दुनिया में इबादत के शिखर पर स्थान दिया जाता है और उसके दर्शन और लेखन की तुलना "रूमि" और "शम्स-ए-तबरिज़" से की जाती है। जन्म से मुसलमान होने के बावजूद उसकी प्रसिद्धि सारे धर्मों में एक-सी है, दरवेश और बुद्धिजीवी उसे "दोनों दुनिया का शेख","खुदा का बंदा" कहकर संबोधित करते हैं और न सिर्फ़ पंजाब बल्कि पूरे मुल्क या कहिए पूरी दुनिया में "पराभौतिक/रहस्यवादी" कविता का जानकार उससे अच्छा नहीं मिलता। उसे "सूफी-साहित्य का शिखर-पुरूष" कहने वाले भी कम नहीं है। "क़सुर" में उसके कब्र के पास की ज़मीन आज भी इंसानियत का दम भरती है और आज भी उस जगह पर बड़े-छोटे का भेदभाव नहीं होता, वहाँ जो भी जाता है कुछ न कुछ हासिल करके हीं आता है। उसका जन्म कब हुआ, इसकी सही

बहुत शुक्रिया बड़ी मेहरबानी...ओल्ड इस गोल्ड के सभी श्रोताओं को समर्पित ये गीत.

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 119 हा ल ही में हमने आपको एस. एच. बिहारी के बारे में विस्तार से बताया था कि किस तरह से उन्हे एस. मुखर्जी ने १९५४ की फ़िल्म 'शर्त' में पहला बड़ा ब्रेक दिया था। आगे चलकर उनकी कई और फ़िल्मों में बिहारी साहब ने गीत लिखे, और सिर्फ़ लिखे ही नहीं, उन्हे कामयाबी की बुलंदी तक भी पहुँचाया। ऐसी ही एक फ़िल्म थी 'एक मुसाफ़िर एक हसीना'. जॉय मुखर्जी और साधना अभिनीत इस फ़िल्म में ओ. पी. नय्यर का संगीत था। आशा भोंसले और रफ़ी साहब के गाये इस फ़िल्म के तमाम युगल गीतों में तीन गीत जो सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हुए, वो थे "मैं प्यार का राही हूँ", "आप युँही अगर हम से मिलती रहीं, देखिये एक दिन प्यार हो जायेगा", और तीसरा गीत था "बहुत शुक्रिया बड़ी मेहरबानी, मेरी ज़िंदगी में हुज़ूर आप आये". यूँ तो एस. एच. बिहारी ने ही इस फ़िल्म के अधिकतर गानें लिखे, लेकिन "आप युँही अगर" वाला गीत राजा मेहंदी अली ख़ान ने लिखा था। आज इस महफ़िल में सुनिये तीसरा युगल गीत। फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह थी कि शादी की रात साधना के घर आतंकवादियों का हमला होता है

आप निराला की कौन सी कविता संगीतबद्ध करवाना चाहेंगे

श्रोताओं के प्यार, प्रोत्साहन और समर्थन की बदौलत हम मई माह से प्रत्येक माह महान कवियों की कविताओं को संगीतबद्ध/सुरबद्ध करने की गीतकास्ट प्रतियोगिता आयोजित कर रहे हैं। इस आयोजन की शुरूआती कड़ियों में हम छायावादी युग के स्तम्भ कवियों की कविताओं को संगीतबद्ध/सुरबद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले महीने हमने जयशंकर प्रसाद की कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' को संगीतबद्ध करवाया, जिसे आप लोगों ने बहुत सराहा भी। इस माह की गीतकास्ट प्रतियोगिता में हम सुमित्रा नंदन पंत की कविता 'प्रथम रश्मि' को संगीतबद्ध/सुरबद्ध करवाने की कोशिश कर रहे हैं। 30 जून 2009 तक प्रविष्टियाँ आमंत्रित की गई हैं। लेकिन आज हम आपके सुझाव और आपकी फरमाइश लेने के लिए यह पोस्ट लिख रहे हैं। हम जुलाई महीने की गीतकास्ट प्रतियोगिता में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता संगीतबद्ध करवाना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि कृपया आप बतायें कि हम कौन सी कविता को कम्पोज करवायें। नीचे दिये गये फॉर्म में निराला की अपनी पसंद की अधिकतम चार कविताएँ बतायें (केवल शीर्षक या पहली पंक्ति) और सुझाव फील्ड में इन कविताओं के संगीतबद्ध करव

चाँद आहें भरेगा, फूल दिल थाम लेंगें, हुस्न की बात चली तो सब तेरा नाम लेंगें

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 118 ना यिका की सुंदरता का बयाँ करने वाले गीतों की कोई कमी नहीं है हमारे फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने में। हर दौर मे, हर युग मे, हमारे गीतकारों ने ऐसे ऐसे ख़ूबसूरत से ख़ूबसूरत गीत हमें दिये हैं जिन्होने नायिका की ख़ूबसूरती को चार चाँद लगा दिये हैं। फ़िल्म सगीत के समुंदर में डुबकी लगाकर आज हम ऐसा ही मोती बाहर निकाल लाये हैं इस महफ़िल को रोशन करने के लिए। १९६३ की फ़िल्म 'फूल बने अंगारे' में मुकेश ने एक ऐसा ही गीत गाया था जिसमें फ़िल्म की नायिका माला सिंहा की ख़ूबसूरती का ज़िक्र हो रहा है। गीतकार आनंद बक्शी के शब्दों ने चाँद को आहें भरने पर मजबूर कर दिया था इस गीत में दोस्तों। जी हाँ, "चाँद आहें भरेगा, फूल दिल थाम लेंगे, हुस्न की बात चली तो, सब तेरा नाम लेंगे"। इससे बेहतर और कैसे करे कोई अपनी महबूबा की सुंदरता की तारीफ़! आनंद बख्शी साहब को अगर फ़िल्मी गीतों का 'ऑल राउंडर' कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ती नहीं होगी। ज़िंदगी की ज़ुबान का इस्तेमाल करते हुए उन्होने अपने गीतों को सरल, सुंदर और कर्णप्रिय बनाया। उनके गीतों की अपार सफलता और लोकप्रियता इस बात

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (8)

केतन मेहता एक सुलझे हुए निर्देशक हैं. मिर्च मसाला जैसी संवेदनशील फिल्म बनाकर उच्च कोटि के निर्देशकों में अपना नाम दर्ज कराने के बाद १९९३ में केतन लेकर आये -"माया मेमसाब". एक अनूठी फिल्म जो बेहद बोल्ड अंदाज़ में एक औरत के दिल की गहराइयों में उतरने की कोशिश करती है. फिल्म बहुत जटिल है और सही तरीके से समझने के लिए कम से कम दो बार देखने की जरुरत पड़ सकती है एक आम दर्शक को पर यदि फिल्म क्राफ्ट की नज़र से देखें तो इसे एक दुर्लभ रचना कहा जा सकता है. हर किरदार नापा तुला, सच के करीब यहाँ तक कि एक फ़कीर के किरदार, जो कि रघुवीर यादव ने निभाया है के माध्यम से भी सांकेतिक भाषा में बहुत कुछ कहा गया है फिल्म में. माया हिंदी फिल्मों की सामान्य नायिकाओं जैसी नहीं है. वह अपने तन और मन की जरूरतों को खुल कर व्यक्त करती है. वो मन को "बंजारा' कहती है और शरीर की इच्छाओं का दमन भी नहीं करती. वह अपने ही दिल के शहर में रहती है, थोडी सी मासूम है तो थोडा सा स्वार्थ भी है रिश्तों में. माया के इस जटिल किरदार पर परदे पर साकार किया दीपा साही ने जो "तमस" धारावाहिक से पहले ही अपने अभिनय का