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पतझर सावन बसंत बहार...अनुराग शर्मा के काव्य संग्रह पर पंकज सुबीर की समीक्षा

पॉडकास्ट पुस्तक समीक्षा पुस्तक - पतझर सावन बसंत बहार (काव्य संग्रह) लेखक - अनुराग शर्मा और साथी (वैशाली सरल, विभा दत्‍त, अतुल शर्मा, पंकज गुप्‍ता, प्रदीप मनोरिया) समीक्षक - पंकज सुबीर पिट्सबर्ग अमेरिका में रहने वाले भारतीय कवि श्री अनुराग शर्मा का नाम वैसे तो साहित्‍य जगत और नेट जगत में किसी परिचय का मोहताज नहीं है । किन्‍तु फिर भी यदि उनकी कविताओं के माध्‍यम से उनको और जानना हो तो उनके काव्‍य संग्रह पतझड़, सावन, वसंत, बहार को पढ़ना होगा । ये काव्‍य संग्रह छ: कवियों वैशाली सरल, विभा दत्‍त, अतुल शर्मा, पंकज गुप्‍ता, प्रदीप मनोरिया और अनुराग शर्मा की कविताओं का संकलन है । यदि अनुराग जी की कविताओं की बात की जाये तो उन कविताओं में एक स्‍थायी स्‍वर है और वो स्‍वर है सेडनेस का उदासी का । वैसे भी उदासी को कविता का स्‍थायी भाव माना जाता है । अनुराग जी की सारी कविताओं में एक टीस है, ये टीस अलग अलग जगहों पर अलग अलग चेहरे लगा कर कविताओं में से झांकती दिखाई देती है । टीस नाम की उनकी एक कविता भी इस संग्रह में है ’’एक टीस सी उठती है, रात भर नींद मुझसे आंख मिचौली करती है ।‘’ अनुराग जी की कविताओ

सागर मिले कौन से जल में....जीवन की तमाम सच्चाइयां समेटे है ये छोटा सा गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 85 जी वन दर्शन पर आधारित गीतों की जब बात चलती है तो गीतकार इंदीवर का नाम झट से ज़हन में आ जाता है। यूँ तो संगीतकार जोड़ी कल्याणजी - आनंदजी के साथ इन्होने बहुत सारे ऐसे गीत लिखे हैं, लेकिन आज हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में उनके लिखे जिस दार्शनिक गीत को आप तक पहुँचा रहे हैं वो संगीतकार रोशन की धुन पर लिखा गया था। मुकेश और साथियों की आवाज़ों में यह गीत है फ़िल्म 'अनोखी रात' का - "ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में कोई जाने ना". १९६८ में प्रदर्शित यह फ़िल्म रोशन की अंतिम फ़िल्म थी। इसी फ़िल्म के गीतों के साथ रोशन की संगीत यात्रा और साथ ही उनकी जीवन यात्रा भी अचानक समाप्त हो गई थी १९६७, १६ नवंबर के दिन। अचानक दिल का दौरा पड़ने से उनका अकाल निधन हो गया। इसे भाग्य का परिहास ही कहिए या फिर काल की क्रूरता कि जीवन की इसी क्षणभंगुरता को साकार किया था रोशन साहब के इस गीत ने, और यही गीत उनकी आख़िरी गीत बनकर रह गया. ऐसा लगा जैसे उनका यह गीत उन्होने अपने आप पर ही सच साबित करके दिखाया। इंदीवर ने जो भाव इस गीत में साकार किया है

"ज़िंदगी तो बेवफ़ा है एक दिन ठुकराएगी - प्रकाश मेहरा को हिंद युग्म की श्रद्धांजली

एक नौजवान, नाकाम और हताश, मुंबई में मिली असफलताओं का बोझ दिल में लिए घर लौटने की तैयारी कर रहा था कि उसे एक युवा निर्देशक ने रुकने की हिदायत दी, और अपनी एक छोटे बजट की फिल्म में उस नौजवान को मुख्य रोल की पेशकश दी. नौजवान ने उस निर्देशक पर विश्वास किया और सोचा कि एक आखिरी दाव खेल लिया जाए. फिल्म बनी और और जब दर्शकों तक पहुँची तो कमियाबी की एक नयी कहानी लिखी जा चुकी थी... दोस्तों, वो नौजवान थे अमिताभ बच्चन और वो युवा निर्देशक थे प्रकाश मेहरा. प्रकाश मेहरा, एक एक ऐसे जादूगर फ़िल्मकार, जिन्होने ज़िंदगी को एक जुआ समझकर पूरे आन बान से हाथ की सफ़ाई , और हेरा फेरी की हर ज़ंजीर तोड़ी, और तब जाकर कहलाये मुक़द्दर का सिकंदर । फ़िल्म जगत के ये सिकंदर यानी कि असंख्य हिट फ़िल्मों के निर्माता, निर्देशक और गीतकार प्रकाश मेहरा अब हमारे बीच नहीं रहे। उनकी मृत्यु की ख़बर सुनकर न जाने क्यों सबसे पहले 'मुक़द्दर का सिकंदर' फ़िल्म के शीर्षक गीत की वो लाइनें याद आ रहीं हैं कि - "ज़िंदगी तो बेवफ़ा है एक दिन ठुकराएगी, मौत महबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी, मर के जीने की अदा जो दुनिया को सिखलाएगा, वो

अखियाँ भूल गयी हैं सोना....सोने सा चमकता है ये गीत आज ५० सालों के बाद भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 84 आ ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक बहुत ही ख़ुशनुमा, चुलबुला सा, गुदगुदाने वाला गीत लेकर हम हाज़िर हुए हैं। दोस्तों, हमारी फ़िल्मों में कुछ 'सिचुएशन' ऐसे होते हैं जो बड़े ही जाने पहचाने से होते हैं और जो सालों से चले आ रहे हैं। लेकिन पुराने होते हुए भी ये 'सिचुएशन' आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं जितने कि उस ज़माने में हुआ करते थे। ऐसी ही एक 'सिचुएशन' हमारी फ़िल्मों में हुआ करती है कि जिसमें सखियाँ नायिका को उसके नायक और उसकी प्रेम कहानी को लेकर छेड़ती हैं और नायिका पहले तो इन्कार करती हैं लेकिन आख़िर में मान जाती हैं लाज भरी अखियाँ लिए। 'सिचुएशन' तो हमने आपको बता दी, हम बारी है 'लोकेशन' की। तो ऐसे 'सिचुएशन' के लिए गाँव के पनघट से बेहतर और कौन सा 'लोकेशन' हो सकता है भला! फ़िल्म 'गूँज उठी शहनाई' में भी एक ऐसा ही गीत था। यह फ़िल्म आज से पूरे ५० साल पहले, यानी कि १९५९ में आयी थी, लेकिन आज के दौर में भी यह गीत उतना ही आनंददायक है कि जितना उस समय था। गीता दत्त, लता मंगेशकर और सखियों की आवाज़ों में यह गी

जब तेरी धुन में जिया करते थे.....महफ़िल-ए-हसरत और बाबा नुसरत

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१४ कु छ फ़नकार ऐसे होते हैं, जिनकी ना तो कोई कृति पुरानी होती है और ना हीं कीर्ति पर कोई दाग लगता है। वह फ़नकार चाहे मर भी जाए लेकिन फ़न की मौत नहीं होती और यकीन मानिए- एक सच्चे फ़नकार की परिभाषा भी यही है। एक ऐसे हीं फ़नकार हैं जिनके बारे में जितना भी लिखा जाए,ना तो दिल को संतुष्टि मिलती है और ना हीं कलम को चैन नसीब होता है। कहने को तो १९९७ में हीं उस फ़नकार ने इस ईहलोक को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था,लेकिन अब भी फ़िज़ा में उनके सुरों की खनक और आवाज़ की चमक यथास्थान मौजूद है। ना हीं वक्त उसे मिटा पाया है और ना हीं मौत उसे बेअसर कर पाई है। उसी "शहंशाह-ए-कव्वाली", जिसे २००६ में "टाईम मैगजीन" ने "एशियन हिरोज" की फ़ेहरिश्त में शुमार किया था, की एक गज़ल लेकर हम आज यहाँ जमा हुए हैं। वह गज़ल वास्तव में सत्तर के दशक की है,जिसे पाकिस्तान के रिकार्ड लेबल "रहमत ग्रामोफोन" के लिए रिकार्ड किया गया था और यही कारण है कि तमाम कोशिशों के बावजूद मैं उस गज़ल के गज़लगो का नाम मालूम नहीं कर पाया। लेकिन परेशान मत होईये, गज़लगो का नाम नहीं मिला तो क्

आसमां पे है खुदा और जमीं पे हम...आजकल वो इस तरफ देखता है कम...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 83 सा हिर लुधियानवी एक ऐसे गीतकार रहे हैं कि उन्होने जो भी गाने लिखे वो आम जनता के होठों की शान बन गये। उन्होने अपनी शायरी और नग़मों में ऐसे ऐसे ख़यालात पेश किये हैं कि जिसने भी इन्हे पढ़ा या सुना इनके असर से बच न सके। असंतुलित बचपन और जवानी के असफल प्रेम ने उन्हे ऐसे झटके दिये थे कि उनकी ये तमाम दर्द उनकी शायरी में फूट पड़े थे और वो बन बैठे थे एक विद्रोही शायर। लेकिन सिर्फ़ प्रेम और प्रेम की नाकामियाँ लिखने तक ही उनकी शायरी सीमित नहीं रही, बल्कि समाज में चल रही समस्यायों पर भी उनकी कलम के बाण चलाये है उसी असरदार तरीक़े से। प्रेम और विरह जैसी विषयों से परे उठकर आम जनता की दैनन्दिन समस्यायों को अपना निशाना बनाया है साहिर ने एक बार नहीं बल्कि कई कई बार। भूख, बेरोज़गारी, नारी की इज़्ज़त और ग़रीबों की तमाम दुख तकलीफ़ों पर सीधा वार उनके कलम ने बहुत बार किये हैं। एक फ़िल्मी गीतकार के दायरे सीमाओं से घिरे होते हैं और बहुत ज़्यादा अलग तरह का कुछ लिखना मुमकिन नहीं होता। लेकिन जब भी मौका हाथ लगा साहिर ने ज़िन्दगी के किसी न किसी ज्वलन्त मुद्दे को व्यक्त किया है। उदाहरण के

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (5)

पराग संकला से हमारे श्रोता परिचित हैं, आप गायिका गीता दत्त के बहुत बड़े मुरीद हैं और उन्हीं की याद में गीता दत्त डॉट कॉम के नाम से एक वेबसाइट भी चलते हैं. आवाज़ पर गीता दत्त के विविध गीतों पर एक लम्बी चर्चा वो पेश कर चुके हैं अपने आलेख " असली गीता दत्त की खोज में " के साथ. आज एक बार फिर रविवार सुबह की कॉफी का आनंद लें पराग संकला के साथ गीता दत्त जी के गाये कुछ दुर्लभ "प्रेम गीतों" को सुनकर. गीता दत्त और प्रेम गीतों की भाषा हिंदी चित्रपट संगीत में अलग अलग प्रकार के गीत बनाते हैं. लोरी, भजन, नृत्यगीत, हास्यगीत, कव्वाली, बालगीत और ग़ज़ल. इन सब गानों के बीच में एक मुख्य प्रकार जो हिंदी फिल्मों में हमेशा से अधिक मात्रा में रहता हैं वह हैं प्रणयगीत यानी कि प्रेम की भाषा को व्यक्त करने वाले मधुर गीत! फिल्म चाहे हास्यफिल्म हो, या भावुक या फिर वीररस से भरपूर या फिर सामजिक विषय पर बनी हो, मगर हर फिल्म में प्रेम गीत जरूर होते हैं. कई फिल्मों में तो छः सात प्रेमगीत हुआ करते हैं. चालीस के दशक में बनी फिल्मों से लेकर आज की फिल्मों तक लगभग हर फिल्म में कोई न कोई प्रणयगीत जरूर