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एक मुलकात यूफोरिया के पलाश सेन से

हिंद युग्म की सबसे बड़ी सफलता रही है कि जब से ये सफ़र शुरू हुआ है, इसके बहाव में नयी प्रतिभाएं जुड़ती चली जा रही हैं, और हर आती हुई लहर बहाव को एक नए रंग से भर जाती है. हिंद युग्म के इस रंगीन परिवार में दो नए नाम और जुड़ गए हैं. दरअसल ये दो होते हुए भी एक हैं, एक सी कद काठी, चेहरा मोहरा, और व्यवसाय भी एक है इन जुड़वां भाईयों का. जामिया स्नातक अकबर और आज़म कादरी के रूप में हिंद युग्म को मिले हैं दो नए युवा निर्देशक. जालौन, बुदेलखंड जैसे छोटे क़स्बे में उनका बचपन बीता. बारहवीं पास कर, आँखों में आसमान छूने के सपने लेकर दोनों भाई दिल्ली आये. बचपन से ही थिएटर से जुडाव तो था ही, जामिया में मॉस मीडिया की पढाई के दौरान ये शौक और परवान चढा. २००५ में इनके द्वारा निर्देशित एक लघु फिल्म आई "मैसेल्फ़ संदीप" जिसमें संगीत था रॉक बैंड यूफोरिया का. किसानों की आत्महत्या विषय पर एक नाटक लिखा जिसका शीर्षक दिया गया "मौसम को जाने क्या हो गया है". जब इस नाटक का मंचन हुआ तो दर्शकों में शामिल थे ओक्सफेम इंडिया के कुछ सदस्य. चूँकि ओक्सफेम भारत में गरीबी उन्मूलन और जलवायु परिवर्तन जैसे संवेदन

लागी नाही छूटे रामा...लता तलत का गाया एक मधुर भोजपुरी गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 58 आ जकल भारी तादाद में भोजपुरी फ़िल्में बन रही हैं। अगर हम ज़रा इतिहास में झांक कर देखें तो पता चलता है कि भोजपूरी फ़िल्मों का इतिहास भी बड़ा पुराना है। 'लागी नाही छूटे राम' एक बहुत ही मशहूर भोजपुरी फ़िल्म रही है जो सन् १९६३ में बनी थी। यह फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' के साथ साथ रिलीज़ होने के बावजूद भी उत्तर और पूर्वी भारत में सुपरहिट रही। १९७७ की फ़िल्म 'नदिया के पार' भी एक कालजयी भोजपुरी फ़िल्म रही है। एक ज़माने में हिन्दी फ़िल्म जगत की बहुत मशहूर हस्तियाँ भोजपूरी सिनेमा से जुड़ी रही हैं। कुंदन कुमार निर्देशित इस फ़िल्म में नायक बने थे नासिर हुसैन साहब। हिन्दी फ़िल्म जगत के ऐसे दो मशहूर संगीतकार उस ज़माने मे रहे हैं जिनका भोजपुरी फ़िल्म संगीत में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ये थे एस. एन. त्रिपाठी और चित्रगुप्त। फ़िल्म 'लागी नाही छूटे राम' में चित्रगुप्त का संगीत था। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इसी फ़िल्म से एक बहुत ही मीठा गाना हम आपके लिए चुनकर लाए हैं। हमें पूरी पूरी उम्मीद है कि इस गीत को सुनने के बाद यह गीत आपके दिलोदिमाग़ में

जेहन को सोच का सामान भी देते हैं भूपेन दा अपने शब्दों और गीतों से

बात एक एल्बम की # 03 फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - भूपेन हजारिका. फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - मैं और मेरा साया, - भूपेन हजारिका (गीत अनुवादन - गुलज़ार) असम का बिहू, बन गीत और बागानों के लोकगीत को राष्ट्रीय फ़लक पे स्थपित करने का श्रेय हजारिका को ही जाता है. उनके शब्द आवाम की आवाज़ को सुन कर उन्ही के मनोभावों और एहसासों को गीत का रूप दे देते हैं और बहुत ही मासूमियत से फिर दादा पूछते हैं - 'ये किसकी सदा है'. भूपेन दा ने बतौर संगीतकार पहली असमिया फ़िल्म 'सती बेहुला' (१९५४) से अपना सफ़र शुरू क्या. भूपेन दा असमिया फ़िल्म में काम करने के बाद अपना रुख मुंबई की ओर किया वहाँ इनकी मुलाकात सलिल चौधरी और बलराज सहानी से हुई। इनलोगों के संपर्क में आ कर भूपेन दा इंडियन पीपल थियेटर मोवमेंट से जुड़े. हेमंत दा भी इस थियेटर में आया करते थे. हेमंत दा और भूपेन दा की कैमेस्ट्री ऐसी जमी कि भूपेन दा उनके घर में हीं रहने लगे. एक दिन अचानक हेमंत दा हजारिका को लता जी से मुलाकात करवाने ले गए. लता से उनकी ये पहली मुलाकात थी भूपेनदा खासा उत्साहित थे.जब लता जी से मुलाकात हुई तब आश्चर्य से बोली कि &#

ख्यालों में किसी के इस तरह आया नहीं करते...रोशन साहब का एक नायाब गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 57 स न १९४९ में एक नौजवान अपनी पत्नी का प्रोत्साहन और ज़िन्दगी में कुछ बड़ा करने का ख्याल लेकर मायानगरी मुंबई पहुँचे थे। एक दिन ख़ुशकिस्मती से दादर स्टेशन पर उनकी मुलाक़ात हो गई फ़िल्मकार केदार शर्मा से। केदार शर्मा उन दिनो मशहूर थे नये नये प्रतिभाओं को अपनी फ़िल्मों में मौका देने के लिए। बस फिर क्या था, उन्होने इस नौजवान को भी अपना पहला 'ब्रेक' दिया बतौर संगीतकार, फ़िल्म थी 'नेकी और बदी'। और वह नौजवान जिसकी हम बात कर रहे हैं, वो और कोई नहीं बल्कि संगीतकार रोशन थे। दुर्भाग्यवश 'नेकी और बदी' में रोशन अपनी संगीत का कमाल नहीं दिखा सके और ना ही यह फ़िल्म दर्शकों के दिलों को छू सकी। इस असफलता से रोशन इतने निराश हो गए थे कि उनकी जीने की चाहत ही ख़त्म हो गई थी। केदार शर्माजी का बड़प्पन देखिये कि उन्होने रोशन की यह हालत देख कर उन्हे अपनी अगली फ़िल्म 'बावरे नैन' में भी संगीत देने का एक और मौका दे दिया। और इस बार इस मौके को रोशन ने इस क़दर अंजाम दिया कि उन्हे फिर कभी पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। बावरे नैन कामयाब रही और इसके संगीत

यह ऎसी प्यास है जिसको मिले मुद्दत से मयखाना.....महफ़िल-ए-गज़ल और जगजीत सिंह

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०६ म हफ़िल-ए-गज़ल में आज हम जिस फ़नकार को ले आए हैं, उन्हें अगर गज़ल-गायकी का बेताज बादशाह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। कई जमाने बीत गए, लेकिन इनकी गायकी की मिठास अभी भी कायम है और कायम क्या यह कहिये कि उसमें और भी मिसरी घुलती जा रही है। इन्होंने लगभग सभी शायरों को अपनी आवाज़ दी है। तो चलिए फिर लगे हाथ हम उस गज़ल की भी बात कर लेते हैं जिसके लिए इस महफ़िल को सजाया गया है। १९९६ में "फ़ेस टू फ़ेस" नाम की गज़लों की एक एलबम आई थी, जिसमें ९ गज़लें थी। आप सभी श्रोताओं के लिए हम उन सभी नौ गज़लों को उनके गज़लगो के नाम के साथ पेश कर रहे हैं, फिर आप खुद अंदाजा लगाईये कि इसमें से वह कौन सी गज़ल है जो हमारे आज की महफ़िल की शान है और हाँ वह फ़नकार भी: १) सच्ची बात: सबीर दत्त २) दै्र-औ-हरम: ख़ामोश गाज़ीपुरी ३) बेसबब बात: शाहिद कबीर ४) ज़िंदगी तूने: राजेश रेड्डी ५) तुमने बदले हमसे: दाग़ दहलवी,अमीर मीनाइ ६) प्यार का पहला खत: हस्ती ७) ज़िंदगी ऎ ज़िंदगी : ज़क़ा सिद्दक़ी ८) शेख जी: सुदर्शन फ़ाकिर ९) कोई मौसम: अज़हर इनायती उम्मीद है अब तक आपने अंदाजा लगा हीं लिया होगा और अगर

हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए - साहिर का लिखा एक खूबसूरत युगल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 56 ओ . पी. नय्यर ने अगर आशा भोंसले से सबसे ज़्यादा गाने लिये तो संगीतकार रवि ने भी लताजी से ज़्यादा आशाजी से ही गाने लिये। यहाँ तक की रवि के सबसे सफलतम गीत आशाजी ने ही गाये हैं। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पेश है संगीतकार रवि और गायिका आशा भोंसले की जोड़ी का एक शायराना नग्मा । महेन्द्र कपूर की भी आवाज़ शामिल है इस गाने में। जोड़ी की अगर बात करें तो रवि के साथ शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी की जोड़ी भी ख़ूब जमी थी। हमराज़, नीलकमल, पारस, काजल, दो कलियाँ, गुमराह, आँखें, एक महल हो सपनों का, धुंध, और वक़्त जैसी कामयाब फ़िल्मों में साहिर और रवि ने एक साथ काम किया। आज aasha -महेन्द्र की आवाज़ों में जो गीत हम चुन कर लाए हैं वह है फ़िल्म वक़्त का। साहिर हमेशा से सीधे शब्दों में गहरी बात कह जाते थे। इस गीत में भी सीधे सीधे वो लिखते हैं कि "हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए, लाखों हसीन ख़्वाब निगाहों में आ गए"। बात है तो बड़ी सीधी, लेकिन तरीका बेहद सुंदर और रुमानीयत से भरपूर। फ़िल्म वक़्त बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था यश चोपड़ा ने। यह हि

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (3)

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीतों की सौगात लेकर हम फिर से हाज़िर हैं. आज आपके लिए कुछ ख़ास लेकर आये हैं हम सबके प्रिय पंकज सुबीर जी. हमें उम्मीद ही नहीं यकीन है कि पंकज जी का ये नायाब नजराना आप सब को खूब पसंद आएगा. असमिया संगीतकार और गायक श्री भूपेन हजारिका का गीत "ओ गंगा बहती हो क्‍यों" जब आया तो संगीत प्रेमियों के मानस में पैठता चला गया । हालंकि भूपेन दा काफी पहले से हिंदी फिल्‍मों में संगीत देते आ रहे हैं किन्‍तु उनको हिंदी संगीत प्रेमियों ने इस गाने के बाद हाथों हाथ लिया । यद्यपि 1974 में आई फिल्‍म "आरोप" जिसके निर्देशक श्री आत्‍माराम थे तथा जिसमें विनोद खन्‍ना और सायरा बानो मुख्‍य भूमिकाओं में थे उस फिल्‍म का एक गीत जो लता जी तथा किशोर दा ने गाया था वो काफी लोकप्रिय हुआ था । गीत था- "नैनों में दर्पण है दर्पण में कोई देखूं जिसे सुबहो शाम" । इस फिल्‍म के संगीतकार भी भूपेन दा ही थे । भूपेन दा और गुलजार साहब ने मिलकर जब "रुदाली" का गीत संगीत रचा तो धूम ही मच गई । रुदाली में इस जादुई जोड़ी के साथ त्रिवेणी के रूप में आकर मिली लता जी की आव