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वर्षा ऋतु के रंग : मल्हार अंग के रागों के संग – समापन कड़ी

             स्वरगोष्ठी – ८४ में आज ‘चतुर्भुज झूलत श्याम हिंडोला...’ : मल्हार अंग के कुछ अप्रचलित राग व र्षा ऋतु के संगीत पर केन्द्रित ‘स्वरगोष्ठी’ की यह श्रृंखला विगत सात सप्ताह से जारी है। परन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अब इस ऋतु ने भी विराम लेने का मन बना लिया है। अतः हम भी इस श्रृंखला को आज के अंक से विराम देने जा रहे हैं। पिछले अंकों में आपने मल्हार अंग के विविध रागों और वर्षा ऋतु की मनभावन कजरी गीतों का रसास्वादन किया था। आज इस श्रृंखला के समापन अंक में मल्हार अंग के कुछ अप्रचलित रागों पर चर्चा करेंगे और संगीत-जगत के कुछ शीर्षस्थ कलासाधकों से इन रागों में निबद्ध रचनाओं का रसास्वादन भी करेंगे। पण्डित सवाई गन्धर्व  मल्हार अंग का एक मधुर राग है- नट मल्हार। आजकल यह राग बहुत कम सुनाई देता है। यह राग नट और मल्हार अंग के मेल से बना है। इसे विलावल थाट का राग माना जाता है। इस राग में दोनों निषाद का प्रयोग होता है, शेष सभी स्वर शुद्ध प्रयुक्त होते हैं। इसका वादी मध्यम और संवादी षडज होता है। इसराज और मयूर वीणा-वादक पं. श्रीकुमार मिश्र के अनुसार इस राग के गायन-वादन में नट अ

हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें....विश्व कप के लिए लड़ रहे सभी प्रतिभागियों के नाम आवाज़ का पैगाम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 601/2010/301 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, पिछले बृहस्पतिवार १७ फ़रवरी को २०११ विश्वकप क्रिकेट का ढाका में भव्य शुभारंभ हुआ और इन दिनों 'क्रिकेट फ़ीवर' से केवल हमारा देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया ग्रस्त है। दक्षिण एशिया और तमाम कॊमन-वेल्थ देशों में क्रिकेट सब से लोकप्रिय खेल है और हमारे देश में तो साहब आलम कुछ ऐसा है कि फ़िल्मी नायक नायिकाओं से भी ज़्यादा लोकप्रिय हैं क्रिकेट के खिलाड़ी। ऐसे मे ज़ाहिर सी बात है कि क्रिकेट विश्वकप को लेकर किस तरह का रोमांच हावी रहता होगा हम सब पर। और जब यह विश्वकप हमारे देश में ही आयोजित हो रही हो, ऐसे में तो बात कुछ और ही ख़ास हो जाती है। इण्डियन पब्लिक की इसी दीवानगी के मद्दे नज़र हाल ही में 'पटियाला हाउस' फ़िल्म रिलीज़ हुई है जिसकी कहानी भी एक क्रिकेटर के इर्द गिर्द है। ऐसे में इस क्रिकेट-बुख़ार की गरमाहट 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को ना लगे, ऐसा कैसे हो सकता है! विश्वकप क्रिकेट २०११ में भाग लेने वाले सभी खिलाड़ियों को शुभकामना हेतु आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड'

ए मलिक तेरे बंदे हम....एक कालजयी प्रार्थना जो आज तक एक अद्भुत प्रेरणा स्रोत है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 534/2010/234 फ़ि ल्मकार वी. शांताराम द्वारा निर्मित और/ या निर्देशित फ़िल्मों के गीतों से सजी लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' का पहला खण्ड इन दिनों जारी है। गीतों के साथ साथ हम शांताराम जी के फ़िल्मी सफ़र की भी थोड़ी बहुत संक्षिप्त में चर्चा भी हम कर रहे हैं। पिछली कड़ी में हमने ४० के दशक के उनकी फ़िल्मों के बारे में जाना। आज हम ज़िक्र करते हैं ५० के दशक की। पिछले दो दशकों की तरह यह दशक भी शांताराम जी के फ़िल्मी सफ़र का एक अविस्मरणीय दशक सिद्ध हुआ। १९५० में शांताराम ने समाज की ज्वलंत समस्या दहेज पर वार किया था फ़िल्म 'दहेज' के ज़रिए। ६० वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन आज भी उनकी यह फ़िल्म उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस ज़माने में थी। इस फ़िल्म में करण दीवान और वी. शांताराम की पत्नी जयश्री शांताराम ने अभिनय किया था। वसंत देसाई का ही संगीत था और जयश्री शांताराम का गाया "अम्बुआ की डाली पे बोले रे कोयलिया" गीत बेहद मकबूल हुआ था। १९५२ में 'परछाइयाँ', १९५३ में 'तीन बत्ती चार रास्ता', १९५४ में 'सुबह का तारा', १९५४ में &#

नैन सो नैन नाहीं मिलाओ....देखिये किस तरह एक देहाती शब्द "गुईयाँ" का सुन्दर प्रयोग किया हसरत ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 533/2010/233 'हिं दी सिनेमा के लौह स्तंभ', इस शृंखला के पहले खण्ड में इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं महान फ़िल्मकार वी. शांताराम पर केन्द्रित हमारी यह प्रस्तुति 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अंतर्गत। आज इसकी तीसरी कड़ी में बातें शांताराम जी के ४० के दशक के सफ़र की। १९४१ में एक फ़िल्म आई थी 'पड़ोसी', जिसकी पृष्ठभूमि थी हिंदू मुसलमान धर्मों के बीच का तनाव। कहानी दो युवा दोस्तों की थी जो इन दो धर्मों के अनुयायी थी, और जो एक साम्प्रदायिक हमले में एक साथ मर जाते हैं। फ़िल्म के क्लाइमैक्स में एक बांध का बम से उड़ा देने का पिक्चराइज़ेशन उस ज़माने के लिहाज़ से काफ़ी सरहानीय था। 'पड़ोसी' के बाद वी. शान्ताराम 'प्रभात' से अलग हो गए और अपनी निजी कंपनी 'राजकमल कलामंदिर' की स्थापना की और अपने आप को पुणे से मुंबई में स्थानांतरित कर लिया। कालीदास की मशहूर कृति 'शकुंतला' पर आधारित १९४३ की फ़िल्म 'शकुंतला' इस बैनर की पहली पेशकश थी, जो बेहद कामयाब सिद्ध हुई। यह भारतीय पहली फ़िल्म थी जिसे व्यावसायिक तौर पर विदेश में प्रदर्शित कि

निर्बल से लड़ाई बलवान की, ये कहानी है दीये की और तूफ़ान की....प्रेरणा का स्रोत है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 532/2010/232 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पहली बार बीस कड़ियों की एक लघु शृंखला कल से हमने शुरु की है - 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ'। इस शृंखला के पहले खण्ड में आप सुन रहे हैं फ़िल्मकार वी. शांताराम की फ़िल्मों के गीत और पढ़ रहे हैं उनके फ़िल्मी सफ़र का लेखा जोखा। मूक फ़िल्मों से शुर कर कल के अंक के अंत में हम आ पहुँचे थे साल १९३२ में। आज १९३३ से बात को आगे बढ़ाते हैं। इस साल शांताराम ने अपनी फ़िल्म 'सैरंध्री' को जर्मनी लेकर गए आगफ़ा लैब में कलर प्रोसेसिंग् के लिए। लेकिन जैसी उन्हें उम्मीद थी, वैसा रंग नहीं जमा सके। तस्वीरें बड़ी फीकी फीकी थी, वरना यही फ़िल्म भारत की पहली रंगीन फ़िल्म होने का गौरव प्राप्त कर लेती. यह गौरव आर्दशिर ईरानी के 'किसान कन्या' को प्राप्त हुआ आगे चलकर। कुछ समय के लिए शांताराम जर्मनी में रहे क्योंकि उन्हें वहाँ काम करने के तौर तरीक़े बहुत पसंद आये थे। १९३३ में ही 'प्रभात स्टुडियोज़' को कोल्हापुर से पुणे स्थानांतरित कर लिया गया, क्योंकि पुणे फ़िल्म निर्माण का एक मुख्य केन्द्र बनने लगा था। १९३४ में इस

जीवन से लंबे हैं बंधु, ये जीवन के रस्ते...गुलज़ार साहब की कलम और मन्ना दा की आवाज़, एक बेमिसाल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 466/2010/166 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों का एक बार फिर से स्वागत है पुराने सदाबहार गीतों की इस महफ़िल में। जैसा कि आप जानते हैं इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है गीतकार, शायर, लेखक व फ़िल्मकार गुलज़ार साहब के लिखे फ़िल्मी गीतों पर केन्द्रित शृंखला 'मुसाफ़िर हूँ यारों', तो आज जिस गीत की बारी है, वह भी कुछ मुसाफ़िर और रास्तों से ताल्लुख़ रखता है। और ये रास्ते हैं ज़िंदगी के रास्ते। इस गीत में भी ज़िंदगी का एक कड़वा सत्य उजागर होता है, जिसे बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों से संवारा है गुलज़ार साहब ने। "जीवन से लम्बे हैं बंधु ये जीवन के रस्ते, एक पल रुक कर रोना होगा, एक पल चल के हँस के, ये जीवन के रस्ते"। दादामुनि अशोक कुमार पर फ़िल्माये और मन्ना डे के गाए फ़िल्म 'आशिर्वाद' के इस गीत को सुन कर भले ही दिल उदास हो जाता है, आँखें नम हो जाती हैं, लेकिन जीवन के इस कटु सत्य को नज़रंदाज़ भी तो नहीं किया जा सकता। सुखों और दुखों का मेला है ज़िंदगी, और निरंतर चलते रहने का नाम है ज़िंदगी, बस यही दो सीख हैं इस गीत में। वसंत देसाई के

डर लागे गरजे बदरिया ---- भरत व्यास को उनकी पुण्यतिथि पर याद किया आवाज़ परिवार ने कुछ इस तरह

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 432/2010/132 न मस्कार दोस्तों। आज ५ जुलाई, गीतकार भरत व्यास जी का स्मृति दिवस है। भरत व्यास जी ने अपने करीयर में केवल अच्छे गानें ही लिखे हैं। विशुद्ध हिंदी भाषा का फ़िल्मी गीतों में उन्होने व्यापक रूप से इस्तेमाल किया और अच्छे गीतों के कद्रदानों के दिलों में जगह बनाई। आज जब कि हम इस 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में बरसात के गीतों पर आधारित शृंखला 'रिमझिम के तराने' प्रस्तुत कर रहे हैं, ऐसे में यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि आज के दिन हम व्यास की लिखी हुई कोई ऐसी रचना सुनवाएँ जो सावन से जुड़ी हो, बारिश से जुड़ी हो। इसी उद्देश्य से हमने खोज बीन शुरु की और ऐसे गीतों की याद हमें आने लगी जिनमें भरत व्यास जी ने बारिश का उल्लेख किया हो। तीन गीतों का उल्लेख करते हैं, एक "ऐ बादलों, रिमझिम के रंग लिए कहाँ चले" (चाँद), दूसरा, "डर लागे, गरजे बदरिया, सावन की रुत कजरारे कारी" (राम राज्य), और तीसरा गीत फ़िल्म गज गौरी का है "आज गरज घन उठी"। ये और इन जैसे बहुत से और भी गीत हैं जिनमें भरत व्यास ने सावन के, बादलों के, रिमझिम बरसते फुहारों का रंग भरा

सांझ ढले गगन तले....एक उदास अकेली शाम की पीड़ा वसंत देसाई के शब्दों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 374/2010/74 अ स्सी के दशक के फ़िल्मी गीतों के ज़िक्र से कुछ लोग अपना नाक सिकुड़ लेते हैं। यह सच है कि ८० के दशक में फ़िल्म संगीत के स्तर में काफ़ी गिरावट आ गई थी, लेकिन कई अच्छे गीत भी बने थे। पूरे के पूरे दशक को बदनाम करने से इन अच्छे गीतों के साथ नाइंसाफ़ी वाली बात हो जाएगी। और किसी भी गीत के स्तर को उसके बनने वाले समय से जोड़ा नहीं जाना चाहिए। जो चीज़ वाक़ई अच्छी है, हमें उसके बनने वाले समय से क्या! और दोस्तों, ८० का दशक एक ऐसा भी दशक रहा जिसमें सब से ज़्यादा आर्ट फ़िल्में बनीं। सिनेमा के इस विधा को हम पैरलेल सिनेमा या आर्ट फ़िल्मों के नाम से जानते हैं। युं तो कलात्मक फ़िल्मों में बहुत ज़्यादा गीत संगीत की गुंजाइश नहीं होती है, लेकिन किसी किसी फ़िल्म के लिए कुछ गानें भी बने हैं। आर्ट फ़िल्मों में संगीत देने वाले संगीतकारों में अजीत वर्मन और वनराज भाटिया का नाम सब से पहले ज़हन में आता है। लेकिन आज हम एक ऐसी फ़िल्म का गीत सुनने जा रहे हैं जिसके संगीतकार हैं लक्ष्मीकांत प्यारेलाल। यह फ़िल्म है 'उत्सव', जो बनी थी सन् १९८४ में। वैसे इस फ़िल्म को पूरी तरह

बोले रे पपिहरा, नित मन तरसे....वाणी जयराम की मधुर तान

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 227 हा लाँकि शास्त्रीय राग संख्या में अजस्र हैं, लेकिन फिर भी शास्त्रीय संगीत के दक्ष कलाकार समय समय पर नए नए रागों का इजाद करते रहे हैं। संगीत सम्राट तानसेन ने कई रागों की रचना की है जो उनके नाम से जाने जाते हैं। उदाहरण के तौर पर मिया की सारंग, मिया की तोड़ी और मिया की मल्हार। यानी कि सारंग, तोड़ी और मल्हार रागों में कुछ नई चीज़ें डाल कर उन्होने बनाए ये तीन राग। तानसेन के प्रतिद्वंदी बैजु बावरा ने भी कुछ रागों का विकास किया था, जैसे कि सारंग से उन्होने बनाया गौर सारंग, और इसी तरह से गौर मल्हार। आधुनिक काल में पंडित रविशंकर ने कई रागों का आविश्कार किया है, इसी शृंखला में आगे चलकर उन पर भी चर्चा करेंगे। दोस्तों, आज 'दस राग दस रंग' में बारी है राग मिया की मल्हार की। इस राग पर बने फ़िल्मी गीतों की जहाँ तक बात है, मेरे ज़हन में बस दो ही गीत आ रहे हैं, एक तो १९५६ की फ़िल्म 'बसंत बहार' में शंकर जयकिशन के संगीत में मन्ना डे का गाया हुआ "भय भंजना वंदना सुन हमारी, दरस तेरे माँगे ये तेरा पुजारी", और दूसरा गीत है आज का प्रस्तुत गीत, वाणी जयराम का

अखियाँ भूल गयी हैं सोना....सोने सा चमकता है ये गीत आज ५० सालों के बाद भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 84 आ ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक बहुत ही ख़ुशनुमा, चुलबुला सा, गुदगुदाने वाला गीत लेकर हम हाज़िर हुए हैं। दोस्तों, हमारी फ़िल्मों में कुछ 'सिचुएशन' ऐसे होते हैं जो बड़े ही जाने पहचाने से होते हैं और जो सालों से चले आ रहे हैं। लेकिन पुराने होते हुए भी ये 'सिचुएशन' आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं जितने कि उस ज़माने में हुआ करते थे। ऐसी ही एक 'सिचुएशन' हमारी फ़िल्मों में हुआ करती है कि जिसमें सखियाँ नायिका को उसके नायक और उसकी प्रेम कहानी को लेकर छेड़ती हैं और नायिका पहले तो इन्कार करती हैं लेकिन आख़िर में मान जाती हैं लाज भरी अखियाँ लिए। 'सिचुएशन' तो हमने आपको बता दी, हम बारी है 'लोकेशन' की। तो ऐसे 'सिचुएशन' के लिए गाँव के पनघट से बेहतर और कौन सा 'लोकेशन' हो सकता है भला! फ़िल्म 'गूँज उठी शहनाई' में भी एक ऐसा ही गीत था। यह फ़िल्म आज से पूरे ५० साल पहले, यानी कि १९५९ में आयी थी, लेकिन आज के दौर में भी यह गीत उतना ही आनंददायक है कि जितना उस समय था। गीता दत्त, लता मंगेशकर और सखियों की आवाज़ों में यह गी

ओ दिलदार बोलो एक बार, क्या मेरा प्यार पसंद है तुम्हें...कवि प्रदीप का एक गीत ये भी...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 70 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की ७०-वीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। सुरीले फ़िल्म संगीत का यह सफ़र पिछले ७० दिनो से चला आ रहा है और आप भी इसमें पूरी तरह से हिस्सेदारी निभा रहे हैं जिस वजह से हमें भी रोज़ नयी ऊर्जा मिल रही है बेहतर से बेहतर गाने और उनसे संबंधित जानकारियाँ खोजने में। कभी कभी जब जानकारियों में कुछ गड़बड़ हो जाती है तो आप उसका सुधार भी कर देते हैं जिसके लिए हम आप के तह-ए-दिल से आभारी हैं। आगे भी आप हमारा इसी तरह से मार्ग-दर्शन करते रहेंगे ऐसा हमारा विश्वास है। तो चलिये इसी बात पर अब हम आते हैं आज के गाने पर। दोस्तों, कुछ दिन पहले हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आपको एक गीत सुनवाया था लता मंगेशकर और तलत महमूद का गाया हुआ फ़िल्म 'मौसी' का - "टिम टिम टिम तारों के दीप जले नीले आकाश तले"। याद है न आपको? इस गीत को भरत व्यास ने लिखा था और संगीत था वसंत देसाई का। आज इस गीत से मिलता-जुलता एक और गीत हम लेकर आये हैं, इसे भी लताजी और तलत साहब ने गाया है और संगीत भी एक बार फिर वसंत देसाई साहब का है। बस गीतकार भरत व्यास के जगह आ गये हैं कवि

तेरे सुर और मेरे गीत...दोनों मिलकर बनेगी प्रीत...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 33 सु र संगीतकार का क्षेत्र है तो गीत गीतकार का. एक अच्छा सुरीला गीत बनने के लिए सुर और गीत, यानी कि संगीतकार और गीतकार का आपस में तालमेल होना बेहद ज़रूरी है, वरना गीत तो किसी तरह से बन जायेगा लेकिन शायद उसमें आत्मा का संचार ना हो सकेगा. शायद इसी वजह से फिल्म संगीत जगत में कई संगीतकार और गीतकारों ने अपनी अपनी जोडियाँ बनाई जिनका आपस में ताल-मेल 'फिट' बैठ्ता था, जैसे कि नौशाद और शक़ील, शंकर जयकिशन और हसरत शैलेन्द्र, गुलज़ार और आर डी बर्मन, वगैरह. ऐसी ही एक जोड़ी थी गीतकार भारत व्यास और संगीतकार वसंत देसाई की. इस जोडी ने भी कई मधुर से मधुर संगीत रचनाएँ हमें दी हैं जिनमें शामिल है फिल्म "गूँज उठी शहनाई". इस फिल्म का एक सुरीला नग्मा आज गूँज रहा है 'ओल्ड इस गोल्ड' में. फिल्म निर्माता और निर्देशक विजय भट्ट ने एक बार किसी संगीत सम्मेलन में उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान का शहनाई वादन सुन लिया था. वो उनसे और उनकी कला से इतने प्रभावित हुए कि वो न केवल अपनी अगली फिल्म का नाम रखा 'गूँज उठी शहनाई', बल्कि फिल्म की कहानी भी एक शहनाई वादक के जीवन पर

टिम टिम टिम तारों के दीप जले...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 08 'ओल्ड इस गोल्ड' में आज बारी है एक सदाबहार युगल गीत को सुनने की. दोस्तों, फिल्मकार वी शांताराम और संगीतकार वसंत देसाई प्रभात स्टूडियो के दिनो से एक दूसरे से जुडे हुए थे, जब वसंत देसाई वी शांताराम के सहायक हुआ करते थे. वी शांताराम को वसंत देसाई के प्रतिभा का भली भाँति ज्ञान था. इसलिए जब उन्होंने प्रभात छोड्कर अपने 'बैनर' राजकमल कलामंदिर की नीव रखी तो वो अपने साथ वसंत देसाई को भी ले आए. "दहेज", "झनक झनक पायल बाजे", "तूफान और दीया", और "दो आँखें बारह हाथ" जैसी चर्चित फिल्मों में संगीत देने के बाद वसंत देसाई ने राजकमल कलामंदिर की फिल्म "मौसी" में संगीत दिया था सन 1958 में. इस फिल्म में एक बडा ही प्यारा सा गीत गाया था तलत महमूद और लता मंगेशकर ने. यही गीत आज हम आपके लिए लेकर आए हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' में. हालाँकि वी शांताराम प्रभात स्टूडियो छोड चुके थे, लेकिन उसे अपने दिल से दूर नहीं होने दिया. उन्होने अपने बेटे का नाम इसी 'स्टूडियो' के नाम पर प्रभात कुमार रखा. और उनके इसी बेटे ने फिल्म