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रविवार सुबह की कॉफी और एक और क्लास्सिक "अंदाज़" के दो अप्रदर्शित और दुर्लभ गीत

नौशाद अली की रूहानियत और मजरूह सुल्तानपुरी की कलम जब जब एक साथ मिलकर परदे पर चलीं तो एक नया ही इतिहास रचा गया. उस पर महबूब खान का निर्देशन और मिल जाए तो क्या बात हो, जैसे सोने पे सुहागा. राज कपूर और नर्गिस जिस जोड़ी ने कितनी ही नायाब फ़िल्में भारतीय सिनेमा को दीं हैं उस पर अगर दिलीप कुमार का अगर साथ और मिल जाए तो कहने की ज़रुरत नहीं कि एक साथ कितनी ही प्रतिभाओं को देखने का मौका मिलेगा......अब तक तो आप समझ गए होंगे के हमारी ये कलम किस तरफ जा रही है...जी हाँ सही अंदाजा लगाया आपने लेकिन यहाँ कुछ का अंदाजा गलत भी हो सकता है. साहब अंदाजा नहीं अंदाज़ कहिये. साथ में मुराद, कुक्कु वी एच देसाई, अनवरीबाई, अमीर बानो, जमशेदजी, अब्बास, वासकर और अब्दुल. सिनेमा के इतने लम्बे इतिहास में दिलीप कुमार और राज कपूर एक साथ इसी फिल्म में पहली और आखिरी बार नजर आये. फिल्म की कहानी प्यार के त्रिकोण पर आधारित थी जिस पर अब तक न जाने कितनी ही फिल्मे बन चुकी हैं. फिल्म में केवल दस गीत थे जिनमे आवाजें थीं लता मंगेशकर, मुकेश, शमशाद बेगम और मोहम्मद रफ़ी साब की. फिल्म को लिखा था शम्स लखनवी ने, जी बिलकुल वोही जिन्होंने

रविवार सुबह की कॉफी और जश्न-ए-आजादी पर जोश से भरने वाला एक अप्रकाशित दुर्लभ गीत रफ़ी साहब का गाया - लहराओ तिरंगा लहराओ

रात कुछ अजीब थी सच कहूँ तो रात चाँदनी ऐसे लग रही थी जैसे आकाश से फूल बरसा रही हो और बादल समय समय पर इधर उधर घूमते हुए सलामी दे रहे हों. और सुबह सुबह सूरज की किरणों की भीनी भीनी गर्मी एक अलग ही अंदाज़ मे अपनी चह्टा बिखेर रही थी. ऐसा लग रहा था के जैसे ये सब अलमतें हमें किसी ख़ास दिन का एहसास क़रना चाहते हैं. रात कुछ अजीब थी सच कहूँ तो रात चाँदनी ऐसे लग रही थी जैसे आकाश से फूल बरसा रही हो और बादल समय समय पर इधर उधर घूमते हुए सलामी दे रहे हों. और सुबह सुबह सूरज की किरणों की भीनी भीनी गर्मी एक अलग ही अंदाज़ मे अपनी छटा बिखेर रही थी. ऐसा लग रहा था के जैसे ये सब अलमतें हमें किसी ख़ास दिन का एहसास क़रना चाहते हैं. शायद आज सचमुच कोई ख़ास दिन ही तो है और ऐसा ख़ास दिन कि जिसकी तलाश करते हुए ना जाने कितनी आँखें पथरा गयीं, कितनी आँखें इसके इंतज़ार मे हमेशा के लिए गहरी नींद मे सो गयीं. आज हमारे द्वारा 15 ऑगस्ट को मनाने का अंदाज़ सिर्फ़ कुछ भाषण होते हैं या फिर तिरंगे को फहरा देना कुछ देशभक्ति गीत बजाना जो सिर्फ़ इसी दिन के लिए होते हैं. मुझे याद आ रहा है के 90 के दशक की शुरुआत मे 1 हफ्ते पहले ही से

रविवार सुबह की कॉफी और एक बेहद दुर्लभ अ-प्रकाशित गीत फिल्म मुग़ल-ए-आज़म से (26)...हुस्न की बारात चली

ज़रा गौर कीजिये कि आप किसी काम को दिल से करें उसका पूरा मेहनताना तो मिले लेकिन उसका वो इस्तेमाल न किया जाए जिसके लिए आपने इतनी मेहनत की है. तो आपको कैसा लगेगा. शायद आपका जवाब भी वही होगा जो मेरा है कि बहुत बुरा लगेगा. संगीतकार ने दिन रात एक करके धुन बनाई, गीतकार के शब्दों के भण्डार में डूबकर उसपर बोल लिखे तो वही गायक या गायिका के उस पर मेहनत का न जाने कितने रीटेक के बाद रंग चढ़ाया मगर वो गीत श्रोताओं तक नहीं पहुँच पाया तो इस पर तीनों की ही मेहनत बेकार चली गयी क्योंकि एक फनकार को केवल वाह वाह चाहिए जो उसे नहीं मिली. लेकिन ऐसे गीतों की कीमत कुछ ज्यादा ही हुआ करती है इस बात को संगीत प्रेमी अच्छी तरह से जानते है, अगर ये गीत हमें कहीं से मिल जाए तो हम तो सुनकर आनंद ही उठाते हैं. लेकिन इतना तो ज़रूर है की इन गीतों को सुनने के बाद आप ये अंदाजा लगा सकते हैं की अगर ये गीत फिल्म के साथ प्रदर्शित हो जाता तो शायद फिल्म की कामयाबी में चार चाँद लगा देता. ये गीत कभी भी किसी भी मोड़ पर फिल्म से निकाल दिए जाते है जिसकी बहुत सारी वजह हो सकती हैं कभी फिल्म की लम्बाई तो कभी प्रोडूसर को पसंद न आना वगैरह वग