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जलते हैं जिसके लिए तेरी आँखों के दीये....तलत साहब लाये हैं गीत वही हम सबके लिए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 125 अ गर मैं आप से यह पूछूँ कि १९५९ की फ़िल्म 'सुजाता' और इस दशक की फ़िल्म 'बाग़बान' में क्या समानता है तो शायद आप चौंक उठें। इन दोनो फ़िल्मों में एक एक गीत ऐसा है जो फ़िल्म के परदे पर टेलीफ़ोन पर गाये गये हैं। फ़िल्म 'बाग़बान' में अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी पर फ़िल्माया गया "मैं यहाँ तू वहाँ ज़िंदगी है कहाँ" गीत तो आप ने हाल में इस फ़िल्म में देखा होगा। लेकिन आज से ५० साल पहले बनी फ़िल्म 'सुजाता' में भी कुछ ऐसा ही एक गीत था जिसे परदे पर सुनिल दत्त साहब ने फ़िल्म की अभिनेत्री नूतन को टेलीफ़ोन पर सुनाया था - "जलते हैं जिसके लिए तेरी आँखों के दीये, ढ़ूंढ़ लाया हूँ वही गीत मैं तेरे लिए"। उस ज़माने में टेलीफ़ोन का इतना चलन नहीं था, और ना ही आज की तरह हर कोई इसे अफ़ोर्ड कर सकता था। फ़ोन कौल की दरें भी बहुत ज़्यादा हुआ करती थीं। ऐसे में अगर फ़िल्म का नायक अपनी नायिका को फ़ोन पर एक पूरा का पूरा गाना सुनवाना चाहे, तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि मामला ज़रूर गम्भीर है। टेलीफ़ोन पर गाये गीतों की बात जब चलती है तब यही गीत

सुन मेरे बन्धू रे, सुन मेरे मितवा....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 31 कि सी सुदूर अनजाने गाँव की धरती से गुज़रती हुई नदी, उसकी कलकल करती धारा, दूर दिखाई देती है एक नाव, और कानो में गूंजने लगते हैं उस नाव पर बैठे किसी मांझी के सुर. अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए वो अपनी ही धुन में गाता चला जाता है. दोस्तों, शहरों में अपने 'कॉंक्रीट' के 'अपार्टमेंट' में रहकर शायद हम ऐसे दृश्य का नज़ारा ना कर सके, लेकिन एक गीत ऐसा है जिसे सुनकर आप उसी नज़ारे को ज़रूर महसूस कर पाएँगे, वही नदी, वही नाव और उसी मांझी की तस्वीर आपकी आँखों के सामने आ जाएँगे, यह हमारा विश्वास है. और वही गीत लेकर आज हम हाज़िर हुए हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' की इस महफ़िल में. भटियाली संगीत, यानी कि बंगाल के नाविकों का संगीत. नाव चलाते वक़्त वो जिस अंदाज़ में और सुर में गाते हैं उसी को भटियाली संगीत कहा जाता है. और बंगाल के लोक संगीत के इसी अंदाज़ में सचिन देव बर्मन ने इस क़दर महारत हासिल की है कि उनकी आवाज़ में इस तरह का गीत जैसे जीवंत कर देता है उसी मांझी को हमारी आँखों के सामने. 1959 में फिल्म "सुजाता" में बर्मन दादा ने ऐसा ही एक गीत गाया था.