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फिल्मी चक्र समीर गोस्वामी के साथ || एपिसोड 18 || रविन्द्र जैन

Filmy Chakra With Sameer Goswami  Episode 18 Ravindra Jain फ़िल्मी चक्र कार्यक्रम में आप सुनते हैं मशहूर फिल्म और संगीत से जुडी शख्सियतों के जीवन और फ़िल्मी सफ़र से जुडी दिलचस्प कहानियां समीर गोस्वामी के साथ, लीजिये आज इस कार्यक्रम के 18 वें एपिसोड में सुनिए कहानी रविन्द्र जैन की...प्ले पर क्लिक करें और सुनें.... फिल्मी चक्र में सुनिए इन महान कलाकारों के सफ़र की कहानियां भी - किशोर कुमार शैलेन्द्र  संजीव कुमार  आनंद बक्षी सलिल चौधरी  नूतन  हृषिकेश मुखर्जी  मजरूह सुल्तानपुरी साधना  एस डी बर्मन राजेंद्र कुमार  शकील बदायुनी  जयकिशन गीता दत्त  चित्रगुप्त  आर डी बर्मन  मन्ना डे  

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 01 (रवीन्द्र जैन)

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 01   ‘ मन की आँखें हज़ार होती हैं... !’ रवीन्द्र जैन ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! दोस्तों, किसी ने सच ही कहा है कि यह ज़िन्दगी एक पहेली है जिसे समझ पाना नामुमकिन है। कब किसकी ज़िन्दगी में क्या घट जाए कोई नहीं कह सकता। लेकिन कभी-कभी कुछ लोगों के जीवन में ऐसी दुर्घटना घट जाती है या कोई ऐसी विपदा आन पड़ती है कि एक पल के लिए ऐसा लगता है कि जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया। पर निरन्तर चलते रहना ही जीवन - धर्म का निचोड़ है। और जिसने इस बात को समझ लिया, उसी ने ज़िन्दगी का सही अर्थ समझा, और उसी के लिए ज़िन्दगी ख़ुद कहती है कि तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी। आज से हम इसी शीर्षक से एक नई शृंखला शुरू कर रहे हैं जिसमें हम ज़िक्र करेंगे उन फ़नकारों का जिन्होंने ज़िन्दगी के क्रूर प्रहारों को झेलते हुए जीवन में सफलता प्राप्त किए हैं, और हर किसी के लिए मिसाल बन गए हैं। आज का यह अंक समर्पित है गीतकार, संगीतकार, कवि और गायक रवीन्द्र जैन को। 28 फ़रवरी 1944 के दिन पंडित इन्द्रमणि ज्ञान प्रसाद जी के

"मैं हूँ ख़ुशरंग हिना" - फ़िल्म इतिहास में कोई रंग नहीं राज कपूर की फ़िल्मों के बिना

एक गीत सौ कहानियाँ - 31   ‘ मैं हूँ ख़ुशरंग हिना... ’ 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारी ज़िन्दगियों से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़ी दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कम सुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह साप्ताहिक स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इसकी 31वीं कड़ी में आज जानिये फ़िल्म 'हिना' के लोकप्रिय शीर्षक गीत "मैं हूँ ख़ुशरंग हिना" के बारे में। रा ज कपूर न केवल एक फ़िल्मकार थे, संगीत की समझ भी उनमें उतन

तू जो मेरे सुर में सुर मिला दे...दादु के इस मनुहार को भला कौन इनकार कर पाये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 793/2011/233 "तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले, संग गा ले, तो ज़िन्दगी हो जाये सफल"। यह बात किसी और के लिए सटीक हो न हो, रवीन्द्र जैन के लिए १००% सही है क्योंकि उनके सुरों में जिन जिन नवोदित गायक गायिकाओं नें सुर मिलाया, उन्हें प्रसिद्धि मिली, उन्हें यश प्राप्त हुआ, उनका करीयर चल पड़ा। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार सुजॉय चटर्जी का और इन दिनों इस स्तंभ में जारी है लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' जिसमें आप सुन रहे हैं गीतकार-संगीतकार रवीन्द्र जैन की फ़िल्मी रचनाएँ और जान रहे हैं उनके जीवन की दास्तान उनकी ही ज़ुबानी विविध भारती की शृंखला 'उजाले उनकी यादों के' के सौजन्य से। कल की कड़ी में आपने जाना कि किस तरह से जन्म से ही उनकी आँखों की रोशनी जाती रही और इस कमी को ध्यान में रखते हुए उनके पिताजी नें उन्हें गीत-संगीत की तरफ़ प्रोत्साहित किया। अब आगे की कहानी दादु की ज़ुबानी - " तो यहाँ अलीगढ़ में नाटकों में मास्टर जी. एल. जैन संगीत निर्देशन किया करते थे, आर्य-जैन समाज के, और उन्होंने सबसे पहले जो ग़ज़ल मुझे सिखाई थी,

दूर है किनारा....आईये किनारे को ढूंढती मन्ना दा की आवाज़ के सागर में गोते लगाये हम भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 641/2010/341 'ओ ल्ड इस गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! मैं, सुजॉय चटर्जी, आप सभी का इस स्तंभ में फिर एक बार स्वागत करता हूँ। युं तो इस शृंखला का वाहक मैं और सजीव जी हैं, लेकिन समय समय पर आप में से कई श्रोता-पाठक इस स्तंभ के लिए उल्लेखनीय योगदान करते आये हैं, चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो! यह हमारा सौभाग्य है कि हाल में हमारी जान-पहचान एक ऐसे वरिष्ठ कला संवाददाता व समीक्षक से हुई, जो अपने लम्बे करीयर के बेशकीमती अनुभवों से हमारा न केवल ज्ञानवर्धन कर रहे हैं, बल्कि 'सुर-संगम' स्तंभ में भी अपना अमूल्य योगदान समय समय पर दे रहे हैं। और अब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए एक पूरी की पूरी शृंखला के साथ हाज़िर हैं। आप हैं लखनऊ के श्री कृष्णमोहन मिश्र। मिश्र जी का परिचय कुछ शब्दों में संभव नहीं, इसलिए आप यहाँ क्लिक कर उनके बारे में विस्तृत रूप से जान सकते हैं। तो दोस्तों, आइए अगले दस अंकों के लिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का आनंद लें श्री कृष्णमोहन मिश्र जी के साथ। एक और बात, कृष्णमोहन जी नें इस शृंखला के हर अंक में इतने सारे तथ्य भरे हैं कि अलग से "

कहाँ से आये बदरा....एक से बढ़कर एक खूबसूरत फ़िल्में दी सशक्त निर्देशिका साईं परांजपे ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 618/2010/318 पा र्श्वगायन को छोड़ कर हिंदी फ़िल्म निर्माण के अन्य सभी क्षेत्रों में पुरुषों का ही शुरु से दबदबा रहा है। लेकिन कुछ साहसी और सशक्त महिलाओं नें फ़िल्म निर्माण के सभी क्षेत्रों में क़दम रखा और दूसरों के लिए राह आसान बनायी. ऐसी ही कुछ महत्वपूर्ण महिला कलाकारों को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला 'कोमल है कमज़ोर नहीं' में आप सब का हम फिर एक बार स्वागत करते हैं। कल की कड़ी में हमने बातें की मशहूर लेखिका इस्मत चुगताई की, और आज बातें फिर एक बार एक लेखि्का व निर्देशिका की। इन्होंने अपनी कलम को अपना 'साज़' बनाकर ऐसी 'कथा' लिखीं कि वह न केवल सब के मन को 'स्पर्श' कर गईं बल्कि फ़िल्म निर्माण को भी एक नई 'दिशा' दी। उनकी लाजवाब फ़िल्मों को देख कर केवल पढ़े लिखे लोग ही नहीं, बल्कि 'अंगूठा-छाप' लोगों ने भी एक स्वर कहा 'चश्म-ए-बद्दूर'!!! जी हाँ, हम आज बात कर रहे हैं साईं परांजपे की। १९ मार्च १९३८ को लखनऊ मे जन्मीं साईं के पिता थे रशियन वाटरकलर आर्टिस्ट यूरा स्लेप्ट्ज़ोफ़, और उनकी माँ थीं शकुंत

वृष्टि पड़े टापुर टुपुर...टैगोर की कविता से प्रेरित होकर दादू रविन्द्र जैन ने रचा ये सदाबहार गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 436/2010/136 न मस्कार दोस्तों! सावन की रिमझिम फुहारों का आनंद इन दिनों आप ले रहे होंगे अपनी अपनी जगहों पर। और अगर अभी तक बरखा रानी की कृपा दृष्टि आप के उधर नहीं पड़ी है, तो कम से कम हमारी इस लघु शॄंखला के गीतों को सुन कर ही बारिश का अनुभव इन दिनों आप कर रहे होंगे, ऐसा हमारा ख़याल है। युं तो बारिश की फुहारों को "टिप-टिप" या "रिमझिम" के तालों से ही ज़्यादातर व्यक्त किया जाता है, लेकिन आंचलिक भाषाओं में और भी कई इस तरह के विशेषण हो सकते हैं। जैसे कि बंगला में "टापुर टुपुर" का ख़ूब इस्तेमाल होता है। मेरे ख़याल से "टापुर टुपुर" की बारिश "टिप टिप" के मुक़ाबले थोड़ी और तेज़ वाली बारिश के लिए प्रयोग होता है। तो दोस्तों, धीरे धीरे आप समझने लगे होंगे कि हम किस गीत की तरफ़ बढ़ रहे हैं आज की इस कड़ी में। जी हाँ, रवीन्द्र जैन की लिखी और धुनों से सजी सन् १९७७ की फ़िल्म 'पहेली' का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत गीत, सुरेश वाडकर और हेमलता की युगल आवाज़ों में - "सोना करे झिलमिल झिलमिल, रूपा हँसे कैसे खिलखिल, आहा आहा बॄष्टि पड

दादा रविन्द्र जैन ने इंडस्ट्री को कुछ बेहद नयी और सुरीली आवाजों से मिलवाया, जिसमें एक हेमलता भी है

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # १७ 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' की आज की कड़ी में आप सुनेंगे रवीन्द्र जैन के गीत संगीत में फ़िल्म 'अखियो के झरोखों से' का वही मशहूर शीर्षक गीत जिसे हेमलता ने गाया था और फ़िल्म में रंजीता पर फ़िल्माया गया था। गीत सुनने से पहले थोड़ी हेमलता की बातें हो जाए, जो उन्होने विविध भारती के एक मुलाक़ात में कहे थे। "कलकत्ता के रवीन्द्र सरोवर स्टेडियम में एक बहुत बड़ा प्रोग्राम हुआ था। डॊ. बिधान चन्द्र रॊय आए थे उसमें, दो लाख की ऒडियन्स थी। उस शो के चीफ़ कोर्डिनेटर गोपाल लाल मल्लिक ने मुझे एक गाना गाने का मौका दिया। उस शो में लता जी, रफ़ी साहब, उषा जी, हृदयनाथ जी, किशोर दा, सुबीर सेन, संध्या मुखर्जी, आरती मुखर्जी, हेमन्त दादा, सब गाने वाले थे। मुझे इंटर्वल में गाना था, ऐज़ बेबी लता (हेमलता का असली नाम लता ही था उन दिनों) ताकि लोग चाय वाय पी के आ सके। मेरे गुरु भाई चाहते थे कि इस प्रोग्राम के ज़रिए मेरे पिताजी को बताया जाए कि उनकी बेटी कितना अच्छा गाती है (हेमलता के पिता को यह मालूम नहीं था कि उनकी बेटी छुप छुप के गाती है)। तो वो जब जाकर मेरे पिताजी को इस

सांझ ढले गगन तले हम कितने एकाकी...- सुरेश वाडकर

१९५४ में जन्में सुरेश वाडकर ने संगीत सीखना शुरू किया जब वो मात्र १० वर्ष के थे. पंडित जयलाल वसंत थे उनके गुरु. कहते हैं उनके पिता ने उनका नाम सुरेश (सुर+इश) इसलिए रखा क्योंकि वो अपने इस पुत्र को बहुत बड़ा गायक देखना चाहते थे. २० वर्ष की आयु में उन्होंने एक संगीत प्रतियोगिता "सुर श्रृंगार" में भाग लिया जहाँ बतौर निर्णायक मौजूद थे संगीतकार जयदेव और हमारे दादू रविन्द्र जैन साहब. सुरेश की आवाज़ से निर्णायक इतने प्रभावित हुए कि उन्हें फिल्मों में प्ले बैक का पक्का आश्वासन मिला दोनों ही महान संगीतकारों से, जयदेव जी ने उनसे फ़िल्म "गमन" का "सीने में जलन" गीत गवाया तो दादू ने उनसे "विष्टि पड़े टापुर टुपुर" गवाया फ़िल्म "पहेली" में. "पहेली" का गीत पहले आया और फ़िर "गमन" के गीत ने सब को मजबूर कर दिया कि यह मानने पर कि इंडस्ट्री में एक बेहद प्रतिभशाली गायक का आगमन हो चुका है. उनकी आवाज़ और प्रतिभा से प्रभावित लता जी ने उन्हें बड़े संगीतकारों से मिलवाया. लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने दिया उन्हें वो "बड़ा' ब्रेक, जब उन्होंने लता

शुद्ध भारतीय संगीत को फिल्मी परदे पर साकार रूप दिया दादू यानी रविन्द्र जैन ने

अब तक आपने पढ़ा वर्ष था १९८२ का. कवियित्री दिव्या जैन से विवाह बंधन में बंध चुके हमारे दादू यानी रविन्द्र जैन साहब के संगीत जीवन का चरम उत्कर्ष का भी यही वर्ष था जब "ब्रिजभूमि" और "नदिया के पार" के संगीत ने सफलता की सभी सीमाओं को तोड़कर दादू के संगीत का डंका बजा दिया था. और यही वो वर्ष था जब दादू की मुलाकात राज कपूर साहब से एक विवाह समारोह में हुई थी. हुआ यूँ कि महफ़िल जमी थी और दादू से गाने के लिए कहा गया. दादू ने अपनी मधुर आवाज़ में तान उठायी- "एक राधा, एक मीरा, दोनों ने श्याम को चाहा, अन्तर क्या दोनों की चाह में बोलो, एक प्रेम दीवानी एक दरस दीवानी...". राज साहब इसी मुखड़े को बार बार सुनते रहे और फ़िर दादू से आकर पुछा -"ये गीत किसी को दिया तो नही". दादू बोले- "दे दिया", चौंक कर राज साहब ने पुछा "किसे", दादू ने मुस्कुरा कर कहा "राजकपूर जी को".सुनकर राज साहब ने जेब में हाथ डाला पर सवा रूपया निकला टी पी झुनझुनवाला साहब की जेब से (टी पी साहब दादू के संगी और मार्गदर्शक रहे हैं कोलकत्ता से मुंबई तक). और यहीं से शुरू हुआ

एक चित का चोर जो गायक भी है, गीतकार भी और संगीतकार भी....- रविन्द्र जैन

हमने आपको सुनवाया था येसुदास का गाया रविन्द्र जैन का स्वरबद्ध किया एक अनमोल गीत . चलिए अब बात करते हैं एक बेहद अदभुत संगीत निर्देशक, गीतकार और गायक रंविन्द्र जैन की, जिन्हें फ़िल्म जगत प्यार से दादू के नाम से जानता है. स्वर्गीय के सी डे के बाद वो पहले संगीत सर्जक हैं जिन्होंने चक्षु बाधा पर विजय प्राप्त कर अपनी प्रतिभा को दक्षिण एशिया ही नही, वरन संसार भर में फैले समस्त भारतीय परिवारों तक बेहद सफलता के साथ पहुंचाया. दादू के संगीत में अलीगढ की सामासिक संस्कृति, बंगाल के माधुर्य और हिंदू जैन परम्परा का अदभुत मिश्रण है. २८ फरवरी १९४४ में जन्में रविन्द्र जैन की फिल्मी सफर शुरू हुआ १४ जनवरी १९७२ के दिन जब कोलकत्ता से मुंबई पहुंचे दादू ने फ़िल्म सेण्टर स्टूडियो में अपना पहला गाना रिकॉर्ड किया, गायक थे मोहम्मद रफी साहब. रफी साहब को जब ज्ञात हुआ की दादू अलीगढ से हैं तो उनसे ग़ज़ल सुनाने का आग्रह किया तो दादू ने पेश किया ये कलाम- गम भी हैं न मुक्कमल, खुशियाँ भी हैं अधूरी, आंसू भी आ रहे हैं, हंसना भी है जरूरी, ग़ज़ल का मत्तला सुनते ही रफी साहब ने कहा की देखिये मास्टर जी, देखिये मेरे बाल खड़े हो

षड़ज ने पायो ये वरदान - एक दुर्लभ गीत

येसू दा का जिक्र जारी है, सलिल दा के लिए वो "आनंद महल" के गीत गा रहे थे, उन्हीं दिनों रविन्द्र जैन साहब भी अभिनेता अमोल पालेकर के लिए एक नए स्वर की तलाश में थे. जब उन्होंने येसू दा की आवाज़ सुनी तो लगा कि यही एक भारतीय आम आदमी की सच्ची आवाज़ है, दादा(रविन्द्र जैन) ने बासु चटर्जी जो कि फ़िल्म "चितचोर" के निर्देशक थे, को जब ये आवाज़ सुनाई तो दोनों इस बात पर सहमत हुए कि यही वो दिव्य आवाज़ है जिसकी उन्हें अपनी फ़िल्म के लिए तलाश थी. उसके बाद जो हुआ वो इतिहास बना. चितचोर के अविस्मरणीय गीतों को गाकर येसू दा ने राष्टीय पुरस्कार जीता और उसके बाद दादा और येसू दा की जुगलबंदी ने खूब जम कर काम किया. वो सही मायनों में संगीत का सुनहरा दौर था. जब पूरे पूरे ओर्केस्ट्रा के साथ हर गीत के लिए जम कर रिहर्सल हुआ करती थी, जहाँ फ़िल्म के निर्देशक भी मौजूद होते थे और गायक अपने हर गीत में जैसे अपना सब कुछ दे देता था. येसू दा और रविन्द्र दादा के बहाने हम एक ऐसे ही गीत के बनने की कहानी आज आपको सुना रहे हैं. येसू दा की माने तो ये उनका हिन्दी में गाया हुआ सबसे बहतरीन गीत है. पर दुखद ये है कि न

"दासेएटन" (येसुदास) के हिन्दी गीतों की मिठास भी कुछ कम नहीं...

कल हमने बात की सलिल दा की और बताया की किस तरह उन्होंने खोजा दक्षिण भारत से एक ऐसा गायक जो आज की तारीख में मलयालम फ़िल्म संगीत का दूसरा नाम तो है ही पर जितने भी गीत उन्होंने हिन्दी में भी गाये वो भी अनमोल साबित हुए. आज हम बात करेंगे ४०.००० से भी अधिक गीतों को अपनी आवाज़ से संवारने वाले गायकी के सम्राट येसुदास की. लगभग ४ दशकों से उनकी आवाज़ का जादू श्रोताओं पर चल रहा है, और इस वर्ष १० जनवरी को उन्होंने अपने जीवन के ६० वर्ष पूरे किये हैं. उनके पिता औगेस्टीन जोसफ एक मंझे हुए मंचीय कलाकार एवं गायक थे, जो हर हाल में अपने बड़े बेटे येसुदास को पार्श्वगायक बनाना चाहते थे. उनके पिता जब वो अपनी रचनात्मक कैरिअर के शीर्ष पर थे तब कोच्ची स्थित उनके घर पर दिन रात दोस्तों और प्रशंसकों का जमावडा लगा रहता था. पर जब बुरे दिन आए तब बहुत कम थे जो मदद को आगे आए. येसुदास का बचपन गरीबी में बीता, पर उन्होंने उस छोटी सी उम्र से अपने लक्ष्य निर्धारित कर लिए थे, ठान लिया था की अपने पिता का सपना पूरा करना ही उनके जीवन का उद्देश्य है. उन्हें ताने सुनने पड़े जब एक इसाई होकर वो कर्नाटक संगीत की दीक्षा लेने लगे. ऐसा भी

रॉक ऑन के सितारे जुटे बाढ़ राहत कार्य में

आवाज़ ने संगीतप्रेमियों से इस फ़िल्म की सिफारिश की थी, और आज यह फ़िल्म साल की श्रेष्ट फिल्मों में एक मानी जा रही है. फ़िल्म के संगीत का नयापन युवाओं को बेहद भाया. फरहान अख्तर ने बतौर अभिनेता और गायक अपनी पहचान बनाई. बिहार में कोसी नदी में आई बाढ़ के पीडितों के लिए मुंबई में अभी हाल ही में इस फ़िल्म के सितारों और संगीत टीम के सदस्यों ने जबरदस्त शो किया और इस नेक काम के लिए धन अर्जित किया. "मेरी लौंड्री का एक बिल..." गीत जब ऋतिक रोशन थिरके तो दर्शक समूह झूम उठा. "रॉक ऑन" का संगीत वास्तव में रोक्किंग है. रविन्द्र जैन की वापसी लंबे समय के बाद सुप्रसिद्ध गीतकार संगीतकार रविन्द्र जैन फ़िल्म संगीत में वापसी कर रहे हैं. ७ नवम्बर को राजश्री प्रोडक्शन के साथ उनकी नई फ़िल्म "एक विवाह ऐसा भी" प्रर्दशित हो रही है. रविन्द्र जी ने राजश्री फ़िल्म्स के साथ लगभग १७ फिल्मों में काम किया है. "अबोध" की असफलता के लगभग २० वर्षों के बाद फ़िल्म "विवाह" से रविन्द्र जी ने बड़जात्या परिवार के साथ अपनी वापसी की थी. अब "एक विवाह ऐसा भी" से भी इसी तरह