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जाने कहाँ गए वो दिन कहते थे तेरी राहों में....वाकई कहाँ खो गए वो दिन, वो फनकार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 107 'रा ज कपूर के फ़िल्मों के गीतों और बातों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं 'राज कपूर विशेष' की अंतिम कड़ी मे। आपको याद होगा कि गायक मुकेश हमें बता रहे थे राज साहब के फ़िल्मी सफ़र के तीन हिस्सों के बारे में। पहला हिस्सा हम आप तक पहुँचा चुके हैं जिसमें मुकेश ने 'आग' का विस्तार से ज़िक्र किया था। दूसरा हिस्सा था उनकी ज़बरदस्त कामयाब फ़िल्मों का जो शुरु हुआ था 'बरसात' से। 'बरसात' के बारे में हम बता ही चुके हैं, अब आगे पढ़िये मुकेश के ही शब्दों में - "ज़बरदस्त, अमीन भाई, फ़िल्में देखिये, 'आवारा', 'श्री ४२०', 'आह', 'जिस देश में गंगा बहती है', और 'संगम'।" एक सड़कछाप नौजवान, 'आवारा', जिस पर दिल लुटाती है एक इमानदार लड़की, 'हाइ सोसायटी' के लोगों का पोल खोलता हुआ 'श्री ४२०', 'आह' मे मौत के साये में ज़िंदगी को पुकारता हुआ प्यार, डाकुओं के बीच घिरा हुआ एक सीधा सच्चा नौजवान, 'जिस देश में गंगा बहती है', और मोहब्बत का इम्तिहान, 'संगम', और उस

लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया...राज का अभिनय अपने चरम पे था इस फिल्म में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 106 'रा ज कपूर विशेष' मे आज गीतकार शैलेन्द्र और राज कपूर के साथ की बात। शैलेन्द्र एक ऐसे रोशन सितारे हैं जो अपने बहुत छोटे से संगीत सफ़र में ही न जाने कितने अमर गीत हमें दे गये हैं। उनके ये अमर गीत दुनिया के होंठों पर सदियों तक थिरकते रहेंगे। शैलेन्द्र भाषा और साहित्य के विद्वान थे। रूसी साहित्य जानने के लिए उन्होने रूसी भाषा सीखा। रबींद्रनाथ टैगोर की नोबल जयी कृति 'गीतांजली' को समझने के लिए उन्होने बंगला भी सीखा। राज कपूर उन्हे पुश्किन कहा करते थे। सन् १९६६ मे शैलेन्द्र निर्माता बने और फणीश्वर नाथ रेणु की एक कहानी 'मारे गये गुलफ़ाम' को सेल्युलायड के परदे पर उतारा 'तीसरी क़सम' के शीर्षक से। यह फ़िल्म 'सेल्युलायड' के परदे पर लिखी गयी एक कविता है। आज इस फ़िल्म को फ़िल्म इतिहास का एक सुनहरा अध्याय के रूप मे भले ही स्वीकारा जाये, उस समय यह फ़िल्म बुरी तरह पिट गयी थी और इस फ़िल्म से निर्माता शैलेन्द्र को भारी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा था। कई कड़वे अनुभवों से उन्हे गुज़रना पड़ा था। कुछ ऐसे लोग जिन पर उन्हे बहुत भरोसा था, उ

मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के...सफलता की राह में मुड़ कर न देखा राज ने कभी पीछे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 105 'रा ज कपूर को समर्पित इन विशेषांकों में हम न केवल राज साहब के फ़िल्मों के गाने आप तक पहुँचा रहे हैं, बल्कि उनके साथ अन्य कलाकारों से जुड़ी बातें भी साथ साथ बताते जा रहे हैं। इसी अंदाज़ को क़ायम रखते हुए आज हम बात करेंगे राज कपूर और मन्ना डे के साथ की। उन दिनों मुकेश राज कपूर का प्लेबैक कर रहे थे। ऐसे मे मन्ना डे किस तरह से राज कपूर की आवाज़ बने, पढ़िये मन्ना डे साहब के ही शब्दों में जो उन्होने विविध भारती को एक बार बताया था - " संगीतकार शंकर मुझसे हमेशा कहते थे कि आप की आवाज़ को संगीतकारों ने ठीक से 'एक्सप्लायट' नहीं कर पाये; जब भी सही मौका आयेगा, मैं आपको गवाउँगा। और वह फ़िल्म थी 'चोरी चोरी'। जब मैं 'चोरी चोरी' फ़िल्म का एक गीत गाने के लिए 'रिकॉर्डिंग स्टूडियो' पहुँचा, लताजी भी वहीं पर थीं। फ़िल्म के निर्माता चेटानी साहब ने शंकर से कहा कि 'यह बहुत 'इम्पार्टेंट' गाना है, मुकेश को क्यों नहीं बुलाया?' यह सुनकर मेरा तो दिल बिल्कुल बैठ गया। शंकर जयकिशन ने उन्हे समझाया कि मन्ना डे की आवाज़ मे यह गीत ज़्याद

ओ बसन्ती पवन पागल न जा रे न जा रोको कोई...मगर रोक न पायी कोई सदा राज को जाने से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 104 'रा ज कपूर विशेष' की चौथी कड़ी मे आप सभी का स्वागत है। राज कपूर कैम्प की एक मज़बूत स्तम्भ रहीं हैं लता मंगेशकर। दो एक फ़िल्मों को छोड़कर राज साहब की सभी फ़िल्मों की नायिका की आवाज़ बनीं लताजी। राज कपूर और लताजी के संबंध भी बहुत अच्छे थे। इसी सफल फ़िल्मकार-गायिका जोड़ी के नाम आज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह शाम! दोस्तों, २ जुन १९८८ को राज कपूर इस दुनिया को हमेशा के लिए छोड़ गये थे। इसके कुछ ही दिन पहले लताजी का एक कॊन्‍सर्ट लंदन मे आयोजित हुआ था जिसका नाम था 'लता - लाइव इन इंगलैंड'। इस कॊन्‍सर्ट की रिकार्डिंग मेरे पास उपलब्ध है दोस्तों, और उसी मे लताजी ने राज कपूर की दीर्घायू कामना करते हुए जनता से क्या कहा था वो मैं आपके लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ - " भाइयों और बहनों, हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री के प्रोड्युसर, डायरेक्टर, हीरो, और किसी हद तक मैं कहूँगी म्युज़िक डायरेक्टर भी, राज कपूर साहब बहुत बीमार हैं दिल्ली में, मैं आप लोगों से यह प्रार्थना करूँगी कि आप लोग उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करें कि उनकी तबीयत ठीक हो जायें। हम लोगों ने कम

जिंदगी ख्वाब है....राज कपूर ने जिसे जिया एक सिल्वर स्क्रीन ख्वाब की तरह

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 103 'रा ज कपूर विशेष' जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मे। दोस्तों, कल हमारा अंक ख़त्म हुआ था मुकेशजी की बातों से जिनमें वो बता रहे थे राज कपूर के बारे मे। वहीं से बात को आगे बढ़ाते हुए सुनते हैं कि मुकेश ने आगे क्या कहा था अमीन सायानी को दिये उस पुराने साक्षात्कार मे - " अमीन भाई, एक दिन हम रणजीत स्टूडियो मे बैठे थे। हज़रत के पास एक टूटी-फूटी फ़ोर्ड गाड़ी हुआ करती थी उन दिनों। तो उसमे बिठाया हमें और ले गये बहुत दूर एक जगह। वहाँ ले जाकर अपना फ़ैसला सुनाया कि 'हम एक फ़िल्म 'आग' बनाना चाहते हैं'। तो कुछ 'सीन्स‍' भी सुनाये। 'सीन्स' तो पसंद आये ही थे मगर मुझे जो ज़्यादा बात पसंद आयी, वह थी कि जिस जोश के संग वो बनाना चाहते थे 'आग' को। " लेकिन 'आग' बनाते समय राज कपूर को काफ़ी तक़लीफ़ों का सामना करना पड़ा था, इस सवाल पर मुकेश कहते हैं - " काफ़ी तकलीफ़ें, अमीन भाई कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता। पैसे की तकलीफ़ें, डेटों की तकलीफ़ें, यानी कि फ़िल्म बनाते समय जो जो तकलीफ़ें आ सकती हैं एक 'प्रोड्युसर'

आवारा हूँ...या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ....कभी कहा था खुद राज कपूर ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 102 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' मे चल रहा है ' राज कपूर विशेष '। कल के अंक मे राज कपूर के शुरूआती दिनों का ज़िक्र करते हुए हम आ पहुँचे थे सन् १९४९ की फ़िल्म 'बरसात' तक। 'बरसात' के गीतों से शंकर जयकिशन, शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी के गीतों की ऐसी बरसात शुरु हुई जो अगले तीन दशकों तक लगातार चलती रही और उस बरसात का हर एक बूँद जैसे एक अनमोल मोती बनकर बरसी। उधर चारली चैपलिन की छाप राज कपूर के 'मैनरिज़्म' पर पड़ी और वो कहलाये 'इंडियन चैपलिन'। उनके इस अंदाज़ की पहली फ़िल्म थी सन् १९५१ की 'आवारा'। उनकी यही 'इमेज' आज भी हमारी आँखों में बसी हुईं हैं। और उनके इसी चैपलिन वाले अंदाज़ को इस फ़िल्म के शीर्षक गीत मे भी उभारा गया और यही गीत आज सुनिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मे गायक मुकेश की आवाज़ मे। 'आवारा' पहली फ़िल्म थी जिसमें राज कपूर और उनके पिता पृथ्वीराज कपूर साथ साथ परदे पर नज़र आये थे। और दोस्तों यही वह फ़िल्म थी जिसने राज कपूर और नरगिस की जोड़ी को घर घर में लोकप्रिय बना दिया था और फ़िल्म इतिहास की पहली लोकप्रिय

छोड़ गए बालम मुझे हाय अकेला छोड़ गए....एक टीस सी छोड़ जाता है "बरसात" का ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 101 दो स्तों, कल हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की हीरक जयंती मनायी। और उससे एक दिन पहले यानी कि २ जून को फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार राज कपूर साहब की पुण्यतिथि भी थी। 'शोमैन औफ़ दि मिलेनियम' राज कपूर को हम श्रद्धांजली अर्पित कर रहे हैं हिंद युग्म के इसी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के माध्यम से। आज से लेकर अगले सात दिनों तक यह शृंखला समर्पित रहेगी राज कपूर की पुण्य स्मृति को। अर्थात, अगले सात अंकों में आप सुनने जा रहे हैं राज साहब की फ़िल्मों के सदाबहार गानें। राज कपूर की हर एक फ़िल्म अमर हो गयी है अपने सुमधुर गीत संगीत की वजह से। उनकी कोई भी फ़िल्म चाहे बौक्स औफ़िस पर चले या ना चले, लेकिन उनके हर फ़िल्म का संगीत राज करता है लोगों के दिलों में आज तक। और यही कारण है कि हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक पूरा का पूरा हफ़्ता मनाने वाले हैं 'राज कपूर विशेष'। गाने सुनवाने के साथ साथ हम आपको राज साहब से जुड़ी कई बातें भी बताएँगे, और अगर आपको भी उनके बारे मे कोई दिलचस्प बात का पता हो तो हमारे साथ ज़रूर बाँटें। १४ दिसम्बर १९२४ को पेशावर मे जन्मे राज